भारत में ब्रिटिश शासकों की आर्थिक नीति एवं उसका प्रभाव Economic policy of British rulers in India and its impact : SARKARI LIBRARY

 भारत में ब्रिटिश शासकों की आर्थिक नीति  एवं उसका प्रभाव.

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण 

  • भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है। 

उपनिवेशवाद का प्रथम चरण : वाणिज्यिक पूंजीवाद का चरण (1757-1813) 

  •  उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में ब्रिटिश कंपनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केंद्रित रहा। 
  • इस चरण में ब्रिटिशों के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे
    • भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना। 
    • राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना।
    • कम-से-कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीद कर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्यों पर बेचना।
    • अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को भारत से बाहर निकालना। 
    • पूंजी निवेश के माध्यम से लाभ कमाना 

इस प्रकार, उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में कंपनी का एकमात्र उद्देश्य धन को लूटना था। 

  • पर्सिवल स्पीयर ने कहा , “अब बंगाल में खुला तथा बेशर्म लूट का काल आरंभ हुआ।” 
  • 1765 से 1772 के काल को के.एम. पणिक्कर ने ‘डाकू राज्य’ कहा है।

उपनिवेशवाद का द्वितीय चरण : औद्योगिक पूंजीवाद (1813-1858) 

  • 1813 में भारत के व्यापार से कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया। 
  •  1765 से 1785 के बीच अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हए, जैसे- कताई की मशीन, स्टीम इंजन, पावरलूम, वाटरफ्रेम आदि। 
  • 1813 का चार्टर एक्ट पारित करके भारत के प्रति ब्रिटेन ने मुक्त व्यापार की नीति अपनाई। 
  • चाय और चीन से व्यापार को छोड़कर कंपनी का भारतीय क्षेत्र से व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया 
  • प्रत्येक ब्रिटिश व्यापारी के लिये भारत का दरवाजा खोल दिया गया। 
  •  कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त हो जाने के बाद सस्ती लागत पर तैयार ब्रिटेन के कपड़ों को भारतीय बाजारों में भेजा जाने लगा। फलतः भारतीय वस्त्र उद्योग का पतन हुआ। 

महत्त्वपूर्ण कथन  

कार्ल मार्क्स– “विश्व के कपड़ों के घर को विदेशी कपड़ों से भर दिया गया।”

लॉर्ड विलियम बेंटिक– “बुनकरों की हड्डियों से भारत की भूमि सफेद हो गई।”

रेलवे का विकास इतिहास 

  • 1846 में लॉर्ड हार्डिंग द्वारा ‘सैन्य यातायात‘ हेतु पहली बार भारत में रेलवे के विकास की बात की गई। 
  • 1849 में पहली रेलवे लाइन कलकत्ता से रानीगंज तक बिछाई गई। 
  • 1853 में पहली रेल बंबई से थाणे के बीच चलाई गई। 
  • 1856 में भारत में विदेशी निवेश की शुरुआत रेलवे में हुई। 
  •  1879 में लिटन के कार्यकाल मेंसबसे पहले पूर्वी रेलवे को खरीदा गया। 
  •  1903 में कर्ज़न ने थॉमस राबर्टसन के नेतृत्व में एक रेलवे बोर्ड की स्थापना की। 
  •  ‘एकबर्थ आयोग’ (1921-22) की रिपोर्ट के आधार पर 1925 में रेलवे बजट को आम बजट से अलग कर दिया गया। 
  •  1947 में आजादी से पहले के.सी. नियोगी की अध्यक्षता में रेलवे वित्त के निरीक्षण के लिये एक समिति का गठन हुआ। 

टिप्पणियाँ

कार्लमार्क्स- “जिस देश में लोहाकोयला मौजूद हो वहाँ अगर तकनीक पहुँचा दी जाए तो उस देश को आधुनिकीकरण से नहीं रोका जा सकता।”

अर्नाल्ड – “भारत में रेलवे ने वह कर दिखाया जो अकबर व टीपू जैसे निरंकुश शासक न कर पाये, वे भारत को एकीकृत न कर सके।” 

तिलक– “भारत में अंग्रेजों द्वारा रेलवे के विकास पर खुश होना ऐसा ही है, जैसे दूसरे की पत्नी के अलंकार को देखकर खुश होना।”

उपनिवेशवाद का तृतीय चरण : वित्तीय पूंजीवाद (1858-1947) 

  • ब्रिटिश निवेशकों ने इस चरण के दौरान निवेश के लिये जिन क्षेत्रों को चुना, उसमें वित्त बाज़ार प्रमुख था। इसके तहत बैंकों तथा बीमा कंपनियों की स्थापना की गई। 
  • निवेश के अन्य क्षेत्रों में चाय, कॉफी, रबड़ के बागान, जूट उद्योग तथा जहाज़रानी प्रमुख थे। 
  • सबसे रोचक पहलू इस वित्तीय पूंजीवाद के दौरान यह रहा कि ब्रिटिश निवेशकों ने उन उद्योगों (सूती वस्त्र, इस्पात) में निवेश नहीं किया, जो आगे चलकर ब्रिटिश कंपनियों से ही प्रतिस्पर्धा करते। 
  • सार्वजनिक ऋण पर भारत को ब्याज व लाभांश भी देना पड़ता था। 

भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भू-राजस्व व्यवस्था

  • 1765 में कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार मिल जाने पर राजस्व वसूली के लिये इन क्षेत्रों में अलग-अलग दीवान नियुक्त किये गए। इन नायब दीवान द्वारा लगान वसूली का कार्य ठेकेदारों को दे दिया गया। 
  • इसके माध्यम से ठेकेदारों ने मनमाना कर कृषकों से वसूल किया और कंपनी को उनके द्वारा निश्चित रकम अदा की गई। इस व्यवस्था में ज़मींदार भी ठेकेदारों के नियंत्रण में आ गए । 
  • बाद में लगान व्यवस्था में व्याप्त असंगतियों के कारण वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 में बंगाल में द्वैध शासन का अंत कर राजस्व वसूली का काम स्वयं कंपनी की देख-रेख में शुरू किया।

इजारेदारी प्रथा (फार्मिंग सिस्टम) 

  • 1772 में एक पाँच वर्षीय इजारेदारी प्रथा चालू की गई। 
  • इस नई व्यवस्था (फार्मिंग सिस्टम) के अनुसार नीलामी में सबसे अधिक बोली लगाने वाले को भू-राजस्व वसूली का ठेका दिया जाता था। इस पद्धति में ज़मींदारों को अलग रखा गया
  • इस पाँच वर्षीय ठेकेदारी योजना के बाद वारेन हेस्टिंग्स ने 1776 में इसे एकवर्षीय कर दिया। अब ठेकेदारी एक वर्ष के लिये ही दी जाती थी. इसमें ज़मींदारों को प्राथमिकता दी गई। 
  • वारेन हेस्टिंग्स के बाद बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में कॉर्नवालिस का आगमन हुआ। 

जमींदारी/स्थायी/इस्तमरारी व्यवस्था/मालगुजारी व्यवस्था  

  • 1790 में कॉर्नवालिस ने एक 10 वर्षीय भू-राजस्व व्यवस्था लागू का, जिसमें भूमि का स्वामी तथा लगान वसूली का अधिकारी ज़मीदार को ही माना गया। अतः इसे ज़मींदारी/मालगुजारी व्यवस्था भी कहते है।  
  • 1793 में कॉनवालिस ने 10 वर्षीय व्यवस्था को बदलकर स्थायी कर दिया । 
  • लगान वसूली का 10/11 भाग सरकार का तथा शेष 1/11 भाग ज़मींदारों हेतु नियत किया गया। । 
  • 1793 के विनियम-14 द्वारा सरकार को ज़मींदार की संपत्ति जब्त करने का अधिकार मिला और 1794 में ‘सूर्यास्त का नियम लागू कर दिया गया, अर्थात् नियत समय तक यदि सरकार के पास लगान या राजस्व नहीं पहुंचा तो उसकी ज़मींदारी नीलाम कर 
  •  यह व्यवस्था भारत के 19 प्रतिशत भाग पर लागू की गई जिसमें बंगाल, बिहार, उड़ीसा के अतिरिक्त बनारस व उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्र शामिल थे।
  • 1812 में ज़मींदारों को यह अधिकार दे दिया गया कि लगान न देने वाले किसानों की जमीन बिना न्यायालयों की पूर्व अनुमति के वे जब्त कर सकते हैं। 
  • 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट में ज़मींदारों द्वारा लगान वसूली को मान्यता दी गई थी। 
  • अंग्रेजों को भारत में ज़मींदारों के रूप में एक सामाजिक मित्र मिल गया, जो दिल से चाहता था कि अंग्रेज़ यहाँ बने रहे। इसीलिये 1857 के महाविद्रोह में ज़मींदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया।
  • आर.सी. दत्त व राजा राममोहन राय जैसे विद्वान इस व्यवस्था के समर्थक थे। आर.सी. दत्त ने तो इसे पूरे भारत में लागू करने की अनुशंसा की। 
  • 1945 की ज़मींदारी व्यवस्था की जाँच के लिये ‘फ्लाउड कमीशन’ की रिपोर्ट स्थायी बंदोबस्त की आलोचना की गई।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था 

  •  रैय्यतवाड़ी व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार/किसानों को भूमि का स्वामी माना गया और लगान जमा करने का दायित्व भी किसानों को ही दिया गया। 
  • यह व्यवस्था प्रत्यक्ष रूप से किसानों या आम जनता के साथ लागू की गई, अतः इसे ‘रैय्यतवाड़ी’ कहा गया। 
  • यदि किसान निर्धारित लगान जमा नहीं कर पाता था तो उसे भू-स्वामित्व से वंचित कर दिया जाता था। 
  • रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का जन्मदाता टॉमस मुनरो और कैप्टन रीड को माना जाता है।
  • 1792 में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था बारामहल ज़िलें में पहली बार कर्नल रीड द्वारा लागू की गई। 
  • 1820 में इस व्यवस्था को मद्रास में लागू किया गया। 
  • 1825 में यह व्यवस्था बंबई तथा 1858 तक यह संपूर्ण दक्कन और अन्य क्षेत्रों में लागू हो गई। 
  • इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भू-भाग का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था। 
  • यह 30 वर्षों के लिये लागू की गई और इसकी दर 1/3 निश्चित की गई। 

नोट: सरकार द्वारा इस व्यवस्था को लागू करने का उद्देश्य बिचौलियों (जमींदारों) के वर्ग को समाप्त करना था। 

महालवाड़ी व्यवस्था

  •  ‘महाल’ का तात्पर्य है-गाँव। 
  • इस व्यवस्था के अंतर्गत गाँव के मुखिया से सरकार का लगान वसूली का समझौता होता था, जिसे ‘महालवाड़ी बंदोबस्त’ कहा गया। 
  • इस व्यवस्था का जनक ‘हॉल्ट मैकेंजी’ को माना जाता है। 
  • यह व्यवस्था मध्य प्रांत, उत्तर प्रदेश एवं पंजाब में लागू की गई 
  • इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भारत की भूमि का 30 प्रतिशत भाग सम्मिलित था। 
  • इस व्यवस्था के अंतर्गत भू-राजस्व का निर्धारण समूचे ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था तथा महाल के समस्त भू-स्वामियों के भू-राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था। 
  • इसमें गाँव के लोग अपने मुखिया या प्रतिनिधियों के द्वारा एक निर्धारित समय-सीमा के अंदर लगान की अदायगी की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते थे। 

ब्रिटिश काल में भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ी कुछ प्रथाएँ 

1. तिनकठिया प्रथाः इस प्रथा के अंतर्गत चंपारन (बिहार) के किसानों को अपने अंग्रेज़ बागान मालिकों के अनुबंध पर अपनी जमीन के करीब 3/20 भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य होता था। | 

2. ददनी प्रथाः इस प्रथा के अंतर्गत ब्रिटिश व्यापारी भारतीय उत्पादकों, कारीगरों एवं शिल्पियों को एक मामूली सी रकम ‘अग्रिम’ या ‘पेशगी’ देकर करारनामा लिखा लेते थे, जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था।

3. दुबला-हाली प्रथाः यह प्रथा भारत के पश्चिमी क्षेत्र, मुख्यतः सूरत में प्रचलित थी, जिसके अंतर्गत दुबला तथा हाली कहलाने वाले भू-दास अपने मालिकों को ही अपनी संपत्ति का और स्वयं का संरक्षक मानते थे।

कृषि का वाणिज्यीकरण 

  • कृषि का वाणिज्यीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत खाद्यान्न फसलों के स्थान पर बाज़ार आधारित फसलों को उपजाया जाता है, जैसे-कपास, तंबाकू आदि। 
  • औपनिवेशिक सरकार ने भारत में उन्हीं वाणिज्यिक फसलों को बढ़ावा दिया, जिनकी उन्हें ज़रूरत थी। 

उदाहरणस्वरूप, 

केरेबियाई देशों से नील के आयात की निर्भरता को समाप्त करने के लिये उन्होंने भारत में नील की खेती को बढ़ावा दिया। 

चीन को निर्यात करने के लिये भारत में अफीम के उत्पादन पर जार दिया गया। 

इटैलियन रेशम पर अपनी निर्भरता कम करन के लिये बंगाल में मलबरी रेशम के उत्पादन पर जोर दिया गया। 

धन का  बहिर्गमन

  • भारतीय उत्पाद का वह हिस्सा जो भारतीय जनता के उपभोग के लिये उपलब्ध नहीं था तथा  जिसका निर्यात  इंग्लैण्ड की ओर हो रहा था, जिसके बदले में भारत को कुछ नहीं प्राप्त होता था, उसे आर्थिक निकास या धन-निष्कासन (Drain of Wealth) की संज्ञा दी गयी।
  • भारतीय धन के बहिर्गमन का सिद्धांत सर्वप्रथम ‘दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘द पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में दिया । 

ब्रिटेन भारत में अपने शासन की कीमत के रूप में भारत की संपदा को छीन रहा है।” 

“भारत में वसूल किये गए कुल राजस्व का लगभग चौथाई भाग देश के बाहर चला जाता है तथा इंग्लैंड के संसाधनों से जुड़ जाता है। और वही धन ऋण के रूप में पुनः भारत वापस आता है, जिसके लिये भारत और अधिक धन ब्याज के रूप में चुकाता है।” 

  • हालाँकि सर सैय्यद अहमद खाँ, दादाभाई नौरोजी की इस बात से सहमत नहीं थे।
  • नौरोजी ने धन के निष्कासन को ‘अनिष्टों का अनिष्ट’ कहा 
  • महादेव गोविंद रानाडे ने भी 1872 में पुणे में कहा कि “राष्ट्रीय पूंजी का एक तिहाई हिस्सा किसी-न-किसी रूप में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत के बाहर ले जाया जाता है।”
  • प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रमेश चंद्र दत्त (आर.सी. दत्त) ने अपनी पुस्तक ‘इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में धन के बहिर्गमन’ का उल्लेख किया। इसी पुस्तक को भारत के आर्थिक इतिहास पर पहली पुस्तक माना जाता है। 
  • भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस ने अपने कलकत्ता अधिवेशन (1896) में औपचारिक रूप से नौरोजी के ‘धन के निष्कासन’ सिद्धांत को स्वीकार किया। 
  • 1901 में गोपाल कृष्ण गोखले ने ‘धन के बहिर्गमन’ सिद्धांत को प्रस्तुत किया।

औद्योगीकरण de-industrialization 

  • अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में कुटीर उद्योगों की बहुलता थी।  विऔद्योगीकरण का आशय इन्हीं के पतन से है, जिसमें वस्त्र उद्योग प्रमुख था।
  • 1813 के चार्टर एक्ट के द्वारा भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओं के लिये खोल दिया गया। 

भारत में नए उद्योगों की स्थापना

  • भारत में विदेशी निवेश 1833 के एक्ट के बाद नील, चाय, कॉफी जैसे बागानी फसलों में निवेश के द्वारा हुआ। 
  • 1833 के एक्ट से कंपनी का चीन के साथ व्यापार पर प्रतिबंध स्थापित हो गया 
  • 1835 में भारत में पहला चाय बागान स्थापित हुआ और 1837 में ‘असम चाय लिमिटेड’ की स्थापना की गई। 
  • 1916 में थॉमस हॉलैंड के नेतृत्व में एक ‘औद्योगिक आयोग’ भारत आया 
  • 1921 में इब्राहिम रहीमतुल्ला की अध्यक्षता में ‘वित्तीय आयोग‘ ने भी भारत के उद्योगों के संरक्षण की मांग की। 
  • 1854 में बंबई में कावसजी डाबर ने ‘बॉम्बे स्पेनिंग एंड वीविंग कंपनी’ के नाम से सूती वस्त्र फैक्ट्री की स्थापना की, जो भारतीयों द्वारा स्थापित पहली फैक्ट्री मानी जाती है। 
  • 1855 में बंगाल के रिसड़ा में जॉर्ज ऑकलैंड द्वारा जूट कारखाना लगा। 
  • 1854 में भारत की पहली कोलफिल्ड रानीगंज में खोजी गई। 
  • 1830 में आधुनिक इस्पात तैयार करने का प्रथम प्रयास अर्काट (मद्रास) में जेसिया मार्सल हिट द्वारा किया गया। 
  • 1874 में ‘बंगाल आयरन एंड वर्क्स कंपनी’ स्थापित हुई जो भारत में पहली आधुनिक लौह इस्पात की कंपनी बनी। 
  • 1907 में टाटा लौह इस्पात कारखाना निजी क्षेत्र में पहला इस्पात कारखाना लगाया गया। 
  • 1927 में फिक्की (FICCI) की स्थापना । 
  • भारत के विकास के लिये 1944 में बॉम्बे प्लान एक महत्त्वपूर्ण  प्रस्ताव, जिसमें ठाकुर दास, मोदी, बिरला आदि की विशेष भूमिका थी।