मौर्योत्तर काल

 

देशी शासक

विदेशी शासक 

  1. शुंग वंश 
  2. कण्व वंश 
  3. सातवाहन वंश 
  4. चेदि वंश/महामेघवाहन वंश
  1. इंडो-ग्रीक
  2. शक 
  3. पार्थियन 
  4. कुषाण वंश

शुंग वंश

  • संस्थापक – पुष्यमित्र शुंग
  • पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. में मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके ‘शुंग वंश’ की स्थापना की। 
  • बाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ में पुष्यमित्र को ‘अनार्य’ कहा है। पुष्यमित्र कट्टर ब्राह्मणवादी था।
  • शुंग वंश के इतिहास के बारे में जानकारी साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक दोनों साक्ष्यों से प्राप्त होती है

साहित्यिक स्रोत 

  • पुराण (वायु और मत्स्य पुराण): इससे पता चलता है कि शुंग वंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था। 
  • हर्षचरितः इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की चर्चा है। इससे पता चलता है कि पुष्यमित्र ने अंतिम मौर्य नरेश बृहदृथ की हत्या कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। 
  • पतंजलि का महाभाष्यः पतंजलि पुष्यमित्र के पुरोहित थे। इस ग्रंथ में यवनों के आक्रमण की चर्चा है। 
  • गार्गी संहिताः इसमें भी यवन आक्रमण का उल्लेख है। यह एक ज्योतिष ग्रंथ है। 
  • मालविकाग्निमित्रम्: यह कालिदास का नाटक है, जिससे शुगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है। 
  • दिव्यावदानः इसमें पुष्यमित्र शुंग को अशोक के 84,000 स्तूपों को तोड़ने वाला बताया गया है।

पुरातात्त्विक स्रोत 

  • अयोध्या अभिलेखः इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराए गए दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है। .
  •  बेसनगर का अभिलेखः यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़ स्तंभ के ऊपर खुदा है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता का पता चलता है। 
  • भरहुत का लेखः इससे भी शुंग काल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। 

उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि स्थानों से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की विशिष्टता का ज्ञान कराते हैं। शुंग काल की कुछ मुद्राएँ कौशांबी, अहिच्छत्र, अयोध्या तथा मथुरा से प्राप्त हुई हैं, जिनसे तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। 

पुष्यमित्र शुंग 

  • पुष्यमित्र मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ का सेनापति था।
  •  ‘दिव्यावदान’ से पता चलता है कि वह पुष्यधर्म का पुत्र था। 
  • धनदेव के अयोध्या अभिलेख के अनुसार, पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया।
  •  पतंजलि उसके अश्वमेध यज्ञ के पुरोहित  थे। पतंजलि पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे। 
  • बौद्ध ग्रंथों के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का उत्पीड़क था। पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों को नष्ट किया तथा बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की थी। 
  • संभवतः पुष्यमित्र बौद्ध विरोधी था, लेकिन भरहुत स्तूप बनाने का श्रेय पुष्यमित्र शुंग को ही दिया जाता है। 

विजय अभियान 

  • पुष्यमित्र के शासनकाल में कई विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा भारत पर आक्रमण किये गए। 
  •  पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। 
  •  पुष्यमित्र ने अपने विजय अभियानों से सीमा का विस्तार किया।

 विदर्भ (बरार) की विजय 

  •  विदर्भ का शासक यज्ञसेन था। वह मौर्यों की तरफ से विदर्भ के शासक  पद पर नियुक्त हुआ था, परंतु मगध साम्राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर उसने स्वयं को विदर्भ का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। 
  •  यज्ञसेन को शुंगों का ‘स्वाभाविक शत्रु’ बताया गया है। 
  • पुष्यमित्र के आदेश से अग्निमित्र ने उस पर आक्रमण किया और उसे परास्त कर विदर्भ को फिर से. मगध साम्राज्य के अधीन कर लिया। 
  •  कालिदास के प्रसिद्ध नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्‘ में यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका और अग्निमित्र के प्रेम की कथा के साथ-साथ विदर्भ विजय का वृत्तांत भी उल्लेखित है। 

खारवेल से युद्ध 

  • मौर्य वंश के अंतिम दिनों में कलिंग देश (वर्तमान ओडिशा) भी स्वतंत्र हो गया था। 
  • कलिंग का राजा खारवेल था। 
  • खारवेल ने मगध पर आक्रमण कर पुष्यमित्र शुंग को पराजित किया था। (हाथीगुम्फा अभिलेख,उदयगिरि ,भुवनेश्वर  से ज्ञात

यवन आक्रमण

  • पुष्यमित्र शुंग के समय में यवन आक्रमण हुआ था। इसका वर्णन ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में मिलता है। 
  • डेमेट्रियस (दिमित्र) नामक यवन राजा पुष्यमित्र का समकालीन था। 
  • ‘गार्गी संहिता’ के युगपुराण में विवरण मिलता है कि यवन, साकेत और मथुरा पर अधिकार करने के बाद पाटलिपुत्र पहुँच गए थे। 

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी 

  •  पुष्यमित्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अग्निमित्र साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। 
  • पुष्यमित्र के राजत्व काल में ही अग्निमित्र, विदिशा का गोप्ता (उपराजा) बनाया गया था। 
  • कालिदास द्वारा रचित ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में अग्निमित्र और मालविका की प्रेम कथा का वर्णन किया गया है। 
  • अग्निमित्र के बाद पुराणों में क्रमशः वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, आंध्रक, पुलिंदक, घोष, वज्रमित्र, भागवत तथा देवभूति नामक राजाओं का  वर्णन मिलता है। 
  • भागवत (भागभद्र) ने भागवत धर्म ग्रहण किया तथा विदिशा (बेसनगर) में गरुड़ स्तंभ की स्थापना कर भागवत विष्णु की पूजा की। 
  • देवभूति इस वंश का अंतिम शासक था। इसके मंत्री वसुदेव ने इसकी हत्या कर एक नए वंश (कण्व वंश) की स्थापना की।

 शुंगकालीन कला 

  • 1. विदिशा का गरुड़ स्तंभ; 
  • 2. भाजा का चैत्य एवं विहार; 
  • 3. अजंता का नवाँ चैत्य मंदिर; 
  • 4. नासिक तथा कार्ले के चैत्य; 
  • 5. मथुरा की अनेक यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियाँ।

शुंग कला के विषय धार्मिक जीवन की अपेक्षा लौकिक जीवन से अधिक संबंधित हैं।

नोट: शुंग काल में विदिशा का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व सर्वाधिक हो गया था। 

  • शुंग काल में ही संस्कृत भाषा तथा हिंदू धर्म का पुनरुत्थान हुआ। इनके उत्थान में महर्षि पतंजलि का विशेष योगदान था।
  • ‘मनुस्मृति’ के वर्तमान स्वरूप की रचना इसी युग में हुई। 
  •  इस काल में ही भागवत धर्म का उदय व विकास हुआ तथा वासुदेव विष्णु की उपासना प्रारंभ हुई। 
  • मौर्य काल में स्तूप कच्ची ईंटों और मिट्टी की सहायता से बनते थे, परंतु शुंग काल में उनके निर्माण में पाषाण का प्रयोग किया गया है। 
  • शुंग राजाओं का काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण काल माना जाता है। 
  • पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया।

कण्व वंश (75 ई.पू. से 30 ई.पू.) 

  •  संस्थापक – वसुदेव 
  • शुंग वंश के अंतिम सम्राट देवभूति की हत्या करके वसुदेव ने 75 ई. पू. में कण्व वंश की नींव रखी। इसकी जानकारी ‘हर्षचरित’ से प्राप्त होती है। 
  • वसुदेव ब्राह्मण वंश का था। वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परंपरा शुंगों ने प्रारंभ की थी, उसे कण्व वंश ने जारी रखा। 
  • इसमें केवल चार शासक हुए 
    •  1. वसुदेव 2. भूमिमित्र 3. नारायण 4. सुशर्मन 
  • अंतिम शासक सुशर्मन की हत्या 30 ई. पू. में सिमुक ने कर दी और एक नवीन ब्राह्मण वंश ‘आंध्र-सातवाहन‘ की नींव डाली।

आंध्र-सातवाहन वंश (30 ई.पू. से 250 ई.) 

  • सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक था। 
  • सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्र और कर्नाटक था। 
  • पुराणों में इन्हें ‘आंध्रभृत्य’ कहा गया है तथा अभिलेखों में ‘सातवाहन’ कहा गया है।
  • सातवाहन वंश की राजधानी प्रतिष्ठान/पैठान थी। 
  • इसकी राजकीय भाषा ‘प्राकृत’ तथा लिपि ‘ब्राह्मी’ थी।  
  • इस वंश की जानकारी हमें अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक तीनों से प्राप्त होती है, जो निम्नलिखित हैं

1. रानी नागनिका का नानाघाट अभिलेख (पुणे, महाराष्ट्र

2. गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख 

3. गौतमी बलश्री का नासिक गुहालेख 

4. वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख 

5. वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख | 

6. यज्ञश्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख 

  • सातवाहन वंश किसी-न-किसी रूप में लगभग तीन शताब्दियों तक बना रहा, जो प्राचीन भारत में किसी एक वंश का सर्वाधिक कार्यकाल है। 

सातवाहन वंश के प्रमुख शासक 

शातकर्णी प्रथम 

  •  यह सातवाहन वंश का पहला यशस्वी शासक था। उसकी उपलब्धियों की जानकारी रानी नागनिका (नायनिका) के नानाघाट अभिलेख से मिलती है।
  •  शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध यज्ञ और एक राजसूय यज्ञ किया था। 
  • शातकर्णी प्रथम ने ‘दक्षिणापथपति’ तथा ‘अप्रतिहतचक्र’ की उपाधियाँधारण की। 
  • शातकर्णी प्रथम ने मालव शैली की गोल मुद्राएँ तथा अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्राएँ उत्कीर्ण करवाईं। 
  • उसके सिक्कों पर ‘श्रीसात’ (शातकर्णी का सूचक) का उल्लेख मिलता है।

हाल 

  • सातवाहन वंश में हाल महानतम् शासक था। 
  • वह एक बड़ा कवि तथा कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। 
  • हाल ने ‘गाथासप्तशती‘ नामक एक काव्य की रचना की  थी। इसकी भाषा ‘प्राकृत’ है। 
  • उसकी राजसभा में ‘बृहत्कथा’ (पैशाची प्राकृत भाषा में रचित) के रचयिता गुणाढ्य तथा ‘कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक सर्ववर्मन निवास करते थे। 

गौतमीपुत्र शातकर्णी (106 ई.-130 ई.) 

  • गौतमीपुत्र शातकर्णी सांतवाहन वंश का सबसे महान शासक था। 
  • उसकी विजय की जानकारी उसकी माता गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख से प्राप्त होती है। इस अभिलेख में उसे अद्वितीय ब्राह्मण (एकब्राह्मण) कहा गया है। इस अभिलेख के अनुसार उसके घोड़ों ने तीनों समुद्रों का पानी पिया था। 
  • गौतमीपुत्र शातकर्णी ने वेणकटक स्वामी की उपाधि धारण की तथा वेणकटक नामक नगर की स्थापना की। 
  • इसके अलावा उसने ‘राजाराज’ तथा ‘विंध्यनरेश’ की भी उपाधि धारण की। 
  • उसने बौद्ध संघ को ‘अजकालकिय‘ तथा कार्ले के भिक्षुसंघ को ‘करजक‘ नामक ग्राम दान में दिये। 
  • उसका साम्राज्य संभवतः उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक फैला हुआ था। 
  • नासिक (जोगलथंबी) से चांदी के लगभग 8 हज़ार सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिनमें एक तरफ नहपान तथा दूसरी तरफ गौतमीपुत्र शातकर्णी का नाम है। 
  • गौतमीपुत्र शातकर्णी ने शक शासक नहपान को हराया था। 

वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130 ई.- 154 ई.) 

  • गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी शासक बना। 
  • आंध्र प्रदेश पर विजय के पश्चात् उसे प्रथम आंध्र सम्राट कहा गया। 
  • पुलुमावी ने अपनी राजधानी आंध्र प्रदेश के औरंगाबाद जिले में गोदावरी नदी के किनारे पैठान या प्रतिष्ठान बनाई। 
  • उसने शक शासक रुद्रदामन को दो बार पराजित किया। 
  • उसे ‘दक्षिणापथेश्वर’ भी कहा गया है। 
  • पुराणों में उसका नाम ‘पुलोमा’ मिलता है। 
  • पुलुमावी के बाद शिवश्री शातकर्णी (154-165 ई.) तथा शिवस्कंदशातकर्णी (165-174 ई.) राजा हुए। 

यज्ञश्री शातकर्णी (174-203 ई.) 

  • यज्ञश्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अंतिम महत्त्वपूर्ण राजा था। उसने शकों के विजित क्षेत्र पर पनः अधिकार कर लिया। 
  • यज्ञश्री शातकर्णी व्यापार एवं जलयात्रा का प्रेमी था। 
  • उसके सिक्कों पर जहाज के चित्र बने हुए हैं, जो उसके जलयात्रा एवं व्यापार के प्रति प्रेम का द्योतक है। 
  • उसके सिक्के आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश एवं गुजरात से प्राप्त हुए हैं।
  •  यज्ञश्री के मृत्यु के बाद सातवाहनों का साम्राज्य विभाजित हो गया, जिसका मुख्य कारण विद्रोह एवं केंद्रीय शासन की दुर्बलता थी। 

सातवाहनकालीन संस्कृतियाँ

सातवाहन युग, दक्कन की भौतिक संस्कृति के स्थानीय उपादान और उत्तर के वैशिष्ट्य दोनों का मिश्रण है। 

प्रशासनिक व्यवस्था 

  • सामंतिक लक्षण का आभास सर्वप्रथम सातवाहन काल में ही मिलता है। 
  • इस काल में सामंतों की तीन श्रेणियाँ थीं- प्रथम-राजा, द्वितीय महाभोज, तृतीय- सेनापति 
  • जिला को ‘अहार’ कहा जाता था। 
  • सातवाहन शासन में अधिकारी को ‘अमात्य’ और ‘महामात्य’ कहा जाता था। 
  • ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासक ‘गौल्मिक‘ कहलाता था। 
  • गौल्मिक एक सैनिक टुकड़ी का प्रधान होता था, जिसमें नौ रथ, नौ हाथी, पच्चीस घोड़े और पैंतालीस पैदल सैनिक होते थे। 

आर्थिक व्यवस्था एवं मुद्राएँ 

  • इस काल में कृषि की उन्नति के साथ व्यापार-वाणिज्य की भी प्रगति हुई। 
  • राजा कृषकों के उपज का छठा भाग कर के रूप में प्राप्त करता था। 
  •  ‘मिलिंदपन्हो’ एवं ‘महावस्तु’ से व्यवसायों एवं शिल्पियों की विभिन्न श्रेणियों का पता चलता है, जिसके प्रधान को ‘श्रेष्ठिन’ कहा जाता था। 
  • इस काल में आंतरिक एवं बाह्य दोनों ही व्यापार होते थे। पश्चिमी देशों के साथ-ही-साथ श्रीलंका. जावा, समात्रा आदि के साथ जल मार्ग से व्यापार होता था।  
  • सातवाहन काल में व्यापार-व्यवसाय में चांदी एवं तांबे के सिक्कों का प्रयोग होता था, जिसे ‘कार्षापण’ कहा जाता था। 
  •  सातवाहनों ने ही सर्वप्रथम सीसे की मुद्रा चलाई थी। 
  • सोने की मुद्रा को ‘सुवर्ण’ कहा जाता था,  एवं तांबे के सिक्कों को कार्षापण’ कहा जाता था। सुवर्ण,35 चांदी के ‘कार्षापणों‘ के बराबर होती थी। 

सामाजिक संगठन 

  • सातवाहन दक्कन के कबीलाई लोग थे, लेकिन वे ब्राह्मण बना दिये गए थे। 
  • गौतमीपुत्र शातकर्णी ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था (चार वर्णों वाली व्यवस्था) को फिर से स्थापित किया और वर्णसंकर व्यवस्था (वर्णों और जातियों के सम्मिश्रण) को रोका। 
  • इस काल में महिलाओं की दशा अच्छी थी। 
  • महिलाएँ शिक्षित थीं,पर्दा प्रथा नहीं थी। स्त्रियाँ भी संपत्ति में भागीदार होती थीं। 
  •  यद्यपि राजाओं के नाम मातृप्रधान हैं किंतु सातवाहन राजकुल पितृतंत्रातमक था क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था। 
  • समाज में अंतर्जातीय विवाह होते थे। 
  • राजपरिवार की महिलाएँ बौद्ध धर्म को प्रश्रय देती थीं, जबकि पुरुष वैदिक धर्म को।  
  • सातवाहनों ने ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर-मुक्त ग्रामदान देने की प्रथा आरंभ की। 

धार्मिक व्यवस्था 

  • सातवाहन शासकों ने राज्य में निवास करने वाले सभी नागरिकों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुशीलन किया। 
  • हाल की गाथासप्तशती के प्रारंभ में ही शिव की पूजा की गई है तथा इंद्र, कृष्ण, पशुपति एवं गौरी की पूजा का भी इसमें उल्लेख मिलता है। 
  • सातवाहन काल में राजा स्वयं के साथ देवताओं का तादात्म्य स्थापित करने लगे, जैसे- गौतमी पुत्र शातकर्णी ने स्वयं को कृष्ण, बलराम और संकर्षण का रूप स्वीकार किया था। 
  • गौतमीपुत्र शातकर्णी को नासिक प्रशस्ति में ‘अद्वितीय ब्राह्मण’ कहा गया है।

कला एवं भाषा 

  • सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत और लिपि ब्राह्मी थी। 
  • सातवाहनों की महत्त्वपूर्ण स्थापत्य कला है – कार्ले का चैत्य एवं अमरावती स्तूप कला का विकास। 

चेदि वंश/महामेघवाहन वंश 

  • कलिंग के चेदि वंश से संबंधित जानकारी का मुख्य स्रोत खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख (प्रथम शताब्दी ई. पू.) है। 
  • इस अभिलेख से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि इस वंश की स्थापना महामेघवाहन नामक व्यक्ति ने की थी। 
  • खारवेल इस वंश का महानतम शासक था, वह जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति मगध से लाने में सफल हुआ, जिसको तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मगध का शासक महापद्मनंद कलिंग से ले गया था। । 
  • हाथीगुम्फा अभिलेख में जैन लोगों को ग्राम दान देने का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख में दक्षिण के तीन राज्यों- चोल, चेर एवं पांड्यों को उसके द्वारा पराजित किये जाने का उल्लेख है। 
  • खारवेल ने अनेक गुहा विहार बनवाये। 
  • साक्ष्यों से पता चलता है कि उदयगिरी में 19 तथा खंडगिरी में 16 गुहा विहारों का निर्माण हुआ था। 
  • ‘महाविजय प्रासाद‘ किसी विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया भव्य भवन था।

विदेशी शासक 

इंडो-ग्रीक (हिंद-यवन) 

  • मौर्योत्तर काल में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर लगातार हमले हुए।
  • पहला आक्रमण हिंद-यूनानी या बैक्ट्रियाई-यूनानी द्वारा किया गया। 
  • इंडो-ग्रीक की भारत विजय का इतिहास यूथोडेमस के शक्तिशाली पुत्र डेमेट्रियस प्रथम के समय से ही प्रारंभ होता है। 

प्रमुख शासक 

डेमेट्रियस प्रथम 

  • भारत की सीमा में सर्वप्रथम प्रवेश करने का श्रेय डेमेट्रियस प्रथम को ही जाता है।
  • उसने 183 ई. पू. के लगभग पंजाब के कुछ भाग को जीतकर साकल(आधुनिक स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाया।
  • डेमेट्रियस ने भारतीय राजा की उपाधि धारण की और यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों वाले सिक्के चलवाए। 
  • डेमेट्रियस के बाद यूक्रेटाइड्ज ने भारत के कुछ हिस्सों को जीतकर तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। 
  • बैक्ट्रिया में यवनों का अंतिम शासक हेलियोक्लीज था। 125 ई.पू. के लगभग बैक्ट्रिया से यवन-शासन समाप्त हो गया और वहाँ शकों का राज्य स्थापित हो गया। 

मिनाण्डर ( 165-145 ई.पू.)

  •  मिनाण्डर सबसे प्रसिद्ध हिंद-यूनानी शासक हुआ। वह संभवतः डेमेट्रियस कुल का था। 
  •  मिनाण्डर को बौद्ध साहित्य में ‘मिलिंद‘ कहा गया है। 
  • वह बौद्ध अनुयायी था। 
  • बौद्ध ग्रंथ ‘मिलिंदपन्हो‘ में बौद्ध भिक्षु नागसेन एवं मिनाण्डर के बीच वाद-विवाद (वार्ता) का उल्लेख मिलता है। 
  • उसकी राजधानी ‘साकल’ शिक्षा का प्रमुख केंद्र थी। 
  •  मिनाण्डर के सिक्कों पर ‘धर्म-चक्र’ अंकित मिलता है। 
  • वह पहला  शासक था, जिसने सोने के सिक्के चलवाए। चांदी के सिक्कों के लिये ‘द्रम्म’ शब्द यूनानी भाषा से ही लिया गया है। 

नोट: यूक्रेटाइड्स वंश के सबसे प्रतापी शासक एन्तियालकीडस ने हेलियोडोरस को शुंग शासक भागभद्र के दरबार में भेजा था, जिसने विदिशा में एक गरुड़ स्तम्भ स्थापित किया। 

  • हर्मियस यूक्रेटाइड्स वंश का अंतिम शासक था। उसकी मृत्यु के साथ ही पश्चिमोत्तर भारत से यवनों का लगभग 200 वर्षों का शासन समाप्त हो गया। 

यूनानियों की देन 

  • राजत्व का दैवीय सिद्धांत। 
  • साँचों से सिक्का-निर्माण की विधि। 
  • मुद्राओं पर राजा का नाम, चित्र, तिथि अंकित करने का प्रचलन। 
  • काल गणना, संवत् का प्रयोग, सप्ताह के 7 दिन, 12 राशियाँ, कैलेंडर वर्ष। 
  • भारत में ‘ज्योतिष कला का विकास’। 
  • भारत में एक नवीन शैली हेलेनिस्टिक कला (Helenistic Art) का विकास। 
  • भारतीय रंगमंच में यवनिका (पर्दा) का शुभारंभ। 

शक 

  • शक मूलतः सीरिया के उत्तर में निवास करने वाले थे। शक बोलन दर्रे से भारत में आए। 
  •  भारतीय स्रोतों में शकों को ‘सीथियन’ कहा गया है। 
  • शक पाँच शाखाओं में विभक्त थे
    1. अफगानिस्तान में 
    2. पंजाब में (राजधानी – तक्षशिला) 
    3. मथुरा में 
    4. पश्चिमी भारत में 
    5. ऊपरी दक्कन में
  •  पश्चिमी क्षत्रपों में क्षहरात वंश (नासिक) का नहपान तथा कादर्मक वंश (उज्जैन) का रुद्रदामन सबसे प्रसिद्ध शासक थे। 

प्रमुख शासक 

मोगा/माउस 

  • तक्षशिला के शासकों में मोगा/माउस प्रमुख था। उसे प्रथम शक शासक माना जाता है। 
  • उसके अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं। 

नहपान 

  •  महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षेत्र के शक शासकों में क्षहरात वंश का नहपान सबसे प्रसिद्ध था। 
  • नहपान ,सातवाहन शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी से पराजित हुआ था। 
  • नहपान के सिक्कों पर उसके लिये ‘राजा’ संबोधन हुआ है। उसके सिक्के अजमेर से नासिक तक मिलते हैं। 

रुद्रदामन प्रथम 

  • भारत में शकों का सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा रुद्रदामन प्रथम (130-150 ई.) हुआ। उसके राज्याधिकार में सिंध, कोंकण, नर्मदा घाटी, मालवा, काठियावाड़ और गुजरात का एक बड़ा भाग था। 
  •  रुद्रदामन ने सुदर्शन झील (गुजरात) का जीर्णोद्धार किया। 
  • इस झील का निर्माण मौर्य काल में हुआ था। उसकै समय सौराष्ट्र प्रांत का शासक सुविशाख था। 
  •  रुद्रदामन संस्कृत का बड़ा प्रेमी था। उसने ही सबसे पहले विशुद्ध संस्कृत भाषा में जूनागढ़ अभिलेख जारी किया। 

नोट: इस वंश का अंतिम शासक रुद्रसिंह तृतीय था। गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ ने उसे पराजित कर पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

पह्लव वंश या पार्थियन साम्राज्य 

  • पार्थियन लोगों का मूल निवास स्थान ईरान था। 
  • पश्चिमोत्तर भारत में शकों के आधिपत्य के बाद पार्थियन लोगों का आधिपत्य हुआ।  
  • भारत में पार्थियन साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मिथ्रेडेट्स प्रथम (171-130 ई.पू.) था। 
  •  पहलव वंश का सर्वाधिक शक्तिशली शासक गोण्डोफर्नीज (20-41 ई.) था। खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण तख्तेबही अभिलेख में उसे का ‘गुदुव्हर’ कहा गया है। फारसी में उसका नाम ‘बिंदफर्ण’ है, जिसका अर्थ है-‘यश विजयी’।
  • इस साम्राज्य का अंत कुषाणों के द्वारा हुआ। 

कुषाण वंश

  • कुषाणों ने पार्थियन शासन का अंत कर स्वयं की सत्ता स्थापित की। 
  • उन्हें यूची या तोचेरियन (तोखारी) भी कहा जाता है। 
  • उनका मूल निवास स्थान चीन की सीमा पर स्थित चीनतुर्किस्तान था।

प्रमुख शासक 

कुजुल कडफिसस (15 ई.-65 ई.) 

  •  भारत में कुषाण वंश की स्थापना ‘कुजुल कडफिसस’ ने की। 
  •  उसने रोमन सिक्कों की नकल करके तांबे के सिक्के चलाए। 

विम कडफिसस ( 65 ई.-78 ई.) 

  • विम कडफिसस भारत में कुषाण शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
  • उसने सिंधु नदी पार करके तक्षशिला और पंजाब पर अधिकार कर लिया। 
  • उसने बड़ी संख्या में सोने के सिक्के जारी किये। उसके सिक्कों पर एक ओर यूनानी लिपि तथा दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि उत्कीर्ण है। 
  • वह शैव मतानुयायी था तथा उसने ‘महेश्वर’ की उपाधि धारण की। उसके कुछ सिक्कों पर शिव, नंदी तथा त्रिशूल की आकृतियाँ मिलती हैं। 
  • भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के विम कडफिसस ने ही चलाए। 
  • उसने अपने शासनकाल में अनेक उपाधियाँ, यथा- ‘महाराज’, ‘राजाधिराज’, ‘महेश्वर’ एवं ‘सर्वलोकेश्वर’ आदि धारण की। 

कनिष्क 

  • कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। 
  • उसने 78 ई. में अपना राज्यारोहण किया तथा इसके उपलक्ष्य में शक संवत् चलाया। इसे वर्तमान में भारत सरकार द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। यह चैत्र (22 मार्च अथवा 21 मार्च) से प्रारंभ होता है। 
  • रोमन सम्राट की भाँति कनिष्क ने ‘कैसर’ या ‘सीजर’ की उपाधि धारण की तथा शकों की भाँति क्षत्रप शासन व्यवस्था लागू की। 
  •  कनिष्क की प्रथम राजधानी ‘पेशावर’ (पुरुषपुर) एवं दूसरी राजधानी ‘मथुरा थी।
  • कनिष्क ने कश्मीर जीतकर वहाँ ‘कनिष्कपुर’ नामक नगर बसाया।
  • कनिष्क ने बौद्ध धर्म का मुक्त हृदय से संपोषण एवं संरक्षण किया। 
  • उसके समय में कश्मीर के कुंडलवन में वसुमित्र की अध्यक्षता में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। मौर्य वंशीय सम्राट अशोक के बाद कनिष्क ही बौद्ध धर्म का प्रबल समर्थक था। 
  • कनिष्क ने अनेक बौद्ध विहारों, चैत्यों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया; पुरुषपुर (पेशावर) स्तूप उसके समय का प्रसिद्ध स्तूप है। 
  • इसके दरबार में पार्श्व, अश्वघोष, वसुमित्र तथा नागार्जुन जैसे विद्वान और चरक जैसे चिकित्सक विद्यमान थे। 
  •  कनिष्क कला एवं संस्कृति का महान संरक्षक था।
  •  उसके समय में मूर्तिकला की गांधार एवं मथुरा शैली का जन्म हुआ। 
  • कनिष्क ने चीन से रोम को जाने वाली सिल्क मार्ग पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था। 
  • कनिष्क ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर वहाँ के प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष, बुद्ध का भिक्षापात्र और एक अनोखा कुक्कुट प्राप्त किया था। 
  •  महास्थान (बोगरा) में पाई गई सोने की मुद्रा पर कनिष्क की एक खड़ी मूर्ति अंकित है। 
  • मथुरा में कनिष्क की एक प्रतिमा मिली है, जिसमें उन्हें घुटने तक चोगा एवं पैरों में भारी जूते पहने हुए दिखाया गया है।
  •  कनिष्क का चीन के शासक ‘पान चाओ’ से युद्ध हुआ था, जिसमें पहले कनिष्क की पराजय हुई तथा बाद में विजय। 
  •  कनिष्क को ‘द्वितीय अशोक’ कहा जाता है। 
  • कनिष्क द्वारा जारी किये गये एक तांबे के सिक्के पर उसे बलिवेदी पर बलि देते दिखाया गया है। 

हुविष्क 

  • हुविष्क, वासिष्क का उत्तराधिकारी था।
  •  उसने कश्मीर में हुविष्कपुर/ हुष्कपुर नामक नगर की स्थापना करवाई, जिसका उल्लेख कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में किया गया है। 
  • उसके सिक्कों पर शिव, स्कंद एवं विष्णु आदि देवताओं की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। 
  •  वह संभवतः रुद्रदामा द्वारा पराजित हुआ और मालवा शकों के हाथ में चला गया।  
  • कनिष्क कुल का अंतिम महान सम्राट वासुदेव था। | 
  • नोटः कनिष्क के दरबार में संरक्षण प्राप्त विद्वान 
  • अश्वघोषः वह चतुर्थ बौद्ध संगीति का उपाध्यक्ष तथा उच्चकोटि का साहित्यकार था। ‘बुद्धचरित’ तथा सूत्रालंकार उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
  •  नागार्जुनःवह दार्शनिक व वैज्ञानिक था। उसकी तुलना मार्टिन लूथर से की जाती है। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘माध्यमिक सूत्र’ में सापेक्षता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। 
  • वसुमित्रःचतुर्थ बौद्ध संगीति के अध्यक्ष थे। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘महाविभाष्य शास्त्र‘ की रचना की, जो बौद्ध जातकों पर टीका है। इसे बौद्ध धर्म का ‘विश्वकोश’ कहा जाता है। |
  • चरकःआयुर्वेद के आचार्य, कनिष्क के राजवैद्य। 

मौर्योत्तरकालीन प्रशासनिक व्यवस्था 

  • इस काल में अधिकतर छोटे-छोटे राज्य थे। यद्यपि उत्तर में कुषाणों एवं दक्षिण में सातवाहनों ने काफी विस्तृत प्रदेशों पर राज किया किंतु न तो सातवाहन और न ही कुषाणों के राजनीतिक संगठन में वह केंद्रीकरण था जो मौर्य प्रशासन की मुख्य विशेषता थी। 
  •  मौर्योत्तर काल में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिये राजतंत्र में दैवीय तत्त्वों को समाविष्ट करने की प्रवृत्ति अपनाई गई। 
  • चीनी शासकों के अनुरूप कुषाण राजाओं ने मृत राजाओं की मूर्तियाँ स्थापित करने के लिये मंदिर बनवाने की प्रथा (देवकुल) आरंभ की।
  • चीनी शासकों के अनुरूप कुषाण राजाओं ने ‘देवपुत्र’ जैसी उपाधियाँ; धारण कीं। 
  • मूर्तिपूजा का आरंभ कुषाण काल से ही माना जाता है। 
  • सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों एवं बौद्ध भिक्षुओं को पहली शताब्दी ई.पू. में कर-मुक्त भूमि प्रदान करने की प्रथा प्रारंभ की। 
  • नानाघाट अभिलेख में भूमिदान का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण मिलता है। 
  • कुषाणों ने राज्य शासन में क्षत्रप-प्रणाली चलाई। शकों एवं पार्थियन ने दो आनुवंशिक राजाओं के संयुक्त शासन की परिपाटी चलाई।
  •  प्रशासन की व्यवस्था के लिये सातवाहन साम्राज्य को अनेक विभागों में बाँटा गया था, जिन्हें ‘अहार’ कहा जाता था। प्रत्येक ‘अहार’ अमात्य के अधीन होता था। 
  • सातवाहन काल के पदाधिकारियों में भांडागारिक (कोषाध्यक्ष), रज्जुक (राजस्व विभाग का प्रमुख), पनियघरक (जलापूर्ति अधिकारी), वर्मातेक (भवन निर्माण अधिकारी), सेनापति आदि होते थे। 
  • अहार के नीचे ग्राम होते थे। प्रत्येक ग्राम का अध्यक्ष एक ‘ग्रामिक‘ होता था, जो ग्राम प्रशासन के लिये उत्तरदायी होता था। 
  • कुषाण लेखों से पहली बार ‘दंडनायक’ तथा ‘महादंडनायक‘ जैसे के पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है। 
  • कुषाणों ने प्रांतों में द्वैध शासन की प्रणाली प्रारंभ की। 

आर्थिक व्यवस्था 

मुद्राएँ

  1. सोने का सिक्का – निष्क, स्वर्ण 
  2. चांदी का सिक्का – शतमान
  3. तांबे का सिक्का – काकणि 
  • चार धातुओं-सोना, चांदी, तांबा एवं शीशे से ‘कार्षापण’ नामक सिक्का बनता था। 
  • हिंद-यवन शासकों ने सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाए। उनके सिक्कों पर द्विभाषिक लेख होते थे- एक तरफ यूनानी भाषा, यूनानी लिपि में तथा दूसरी तरफ प्राकृत भाषा, खरोष्ठी लिपि में। 
  • कुषाणों ने सर्वप्रथम शुद्ध स्वर्ण के सिक्के चलवाए, जो 124 ग्रेन  का था। 
  • सातवाहनों ने सीसे के अतिरिक्त चांदी, तांबा, पोटीन (तांबा, जिंक, सीसा तथा मिश्र धातु) आदि के सिक्के भी चलाए। 

वाणिज्य एवं व्यापार 

  •  आर्थिक रूप से इस काल का उज्ज्वल पक्ष वाणिज्य-व्यापार की प्रगति था। 
  • इस काल में भारत की मध्य एशिया तथा पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापार शुरू हो गया था। व्यापार की उन्नति के कारण नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में नए वर्गों का उदय हो रहा था। 
  • इस समय व्यापार मुख्यतः अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। 
  • इस काल में बारबेरिकस (सिंधु के मुहाने पर); अरिकामेडु (पूर्वीतट पर), बेरीगाजा या भड़ौच (पश्चिमी तट पर) आदि महत्त्वपूर्ण बंदरगाह थे। 
  •  कुषाणों ने चीन से ईरान तथा पश्चिम एशिया तक जाने वाले रेशम मार्ग पर नियंत्रण कर रखा था। रेशम मार्ग आय का बहुत बड़ा स्रोत था। 
  •  प्रथम शताब्दी ई. में अज्ञात यूनानी नाविक ने अपनी ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ नामक पुस्तक में भारत द्वारा रोम को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं का विवरण दिया है।
  • रोम को निर्यातित प्रमुख वस्तुएँ-मसाले, काली मिर्च, मलमल, हाथी दाँत की वस्तुएँ, इत्र, चंदन, कछुए की खोपड़ी, केसर, जटामासी, हीरा, रत्न, तोता, शेर, चीता आदि थीं।
  • रोम से आयातित वस्तुएँ- शराब के दो हत्थे वाला कलश, शराब,सोना एवं चांदी के सिक्के, पुखराज, टिन, तांबा, शीशा, लाल आदि। 
  • पश्चिम के लोगों को भारतीय काली मिर्च (गोल मिर्च) इतनी प्रिय थी कि संस्कृत में काली मिर्च का नाम ही ‘यवनप्रिय‘ पड़ गया।
  • नोट: ईसा की पहली सदी में हिप्पालस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर से चलने वाले मानसून हवाओं की जानकारी दी।

शिल्प एवं उद्योग

  • व्यापार एवं विनिमय में मुद्राओं का प्रयोग मौर्योत्तर युग की सबसे  बड़ी देन है। 
  •  इस काल का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था।
  •  ‘साटक’ नामक वस्त्र के लिये मथुरा; वृक्ष के रेशों से बने वस्त्र के लिये लिये मगध; मलमल के लिये बंग एवं पुण्ड्र क्षेत्र तथा मसालों के लिये दक्षिण भारत प्रसिद्ध था। 
  • व्यापारिक प्रगति के कारण शिल्पकारों ने शिल्प श्रेणियों को संगठित किया। श्रेणियों के पास अपना सैन्य बल होता था।
    1. निगम का प्रधान – श्रेष्ठि
    2. श्रेणी का प्रधान- प्रमुख
    3. पूग का प्रधान – ज्येष्ठक 
  •  श्रेष्ठियों को उत्तर भारत में सेठ एवं दक्षिण भारत में शेटि या चेट्टियार कहा जाता था।

सामाजिक व्यवस्था 

  • मौर्योतर काल में परंपरागत चारों वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मौजूद थे, किंतु शिल्प एवं वाणिज्य में उन्नति का फायदा शूद्रों को मिला। 
  • बड़ी संख्या में विदेशियों का समाज में आगमन हुआ और उन्हें आत्मसात किया गया। इसी क्रम में विदेशियों को ‘व्रात्यक्षत्रिय’ का दर्जा दिया गया। 
  • मौर्योत्तर काल में ही शैव धर्म के अंतर्गत ‘पाशुपत संप्रदाय’ का विकास हुआ, जिसके प्रवर्तक ‘लकुलिश’ को माना जाता है। 
  • इस काल में भागवत धर्म का विकास हुआ, जो वैष्णव संप्रदाय से जुड़ा था। कृष्ण के उपासक ‘भागवत’ कहलाते थे। 
  • विभिन्न धर्मों ने लचीला रुख अपनाते हुए विदेशियों को शामिल करने का प्रयास किया। यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाण सभी भारत में अपनी-अपनी पहचान अंततः खो बैठे। वे समाज के क्षत्रिय वर्ग में समाहित हो गए। 
  • सातवाहन शासकों के नाम का मातृप्रधान होना, स्त्रियों की अच्छी दशा को दर्शाता है। स्त्रियाँ धार्मिक कार्यों में पति के साथ भाग लेती थीं। कभी-कभी वे शासन कार्यों में भाग लेती थीं। 

धार्मिक व्यवस्था

  • भक्ति का विकास इस काल के धर्म की प्रमुख विशेषता है, बाद में भक्ति के साथ अवतारवाद की परिकल्पना भी जुड़ गई। अवतारवाद के साथ-साथ मूर्तिपूजा भी की जाने लगी।
  • इस काल में कई विदेशी शासक विष्णु के उपासक बन गए। 
  • आर्य देवताओं के समानांतर गैर-आर्य देवता भी स्थापित हो गए, जैसे -गणेश, कार्तिकेय, मातृदेवी, वृक्ष पूजा, पशु पूजा, सर्प पूजा आदि। 
  • मौर्योत्तर काल में बौद्ध धर्म और उसकी महायान शाखा का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार हुआ। 
  • बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा आरंभ हुई एवं इसका प्रचलन ब्राह्मण समुदाय  में भी हुआ। 
  • संभवतः भारत में सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियों की पूजा की गई।(महायान शाखा) 

कला एवं संस्कृति 

  • मौर्योत्तर काल में कला का आधार मुख्यतः बौद्ध धर्म ही रहा। 
  • कनिष्क के शासनकाल में कला के क्षेत्र में दो स्वतंत्र शैलियों का विकास हुआ

गांधार कला

  •  ई. पू. प्रथम शताब्दी के मध्य उत्तर-पश्चिम गांधार में, कला की एक शैली का विकास हुआ, जिसे ‘गांधार शैली’ कहते हैं। 
  •  इस शैली को इण्डो-ग्रीक शैली या ग्रीक बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। 
  • इसका सर्वाधिक विकास कुषाण काल में हुआ। 
  •  गांधार कला के अंतर्गत मूर्तियों के शरीर की आकृति को सर्वथा यथार्थ दिखाने का प्रयत्न किया गया है। 
  •  इस कला की विषय-वस्तु बौद्ध परंपरा से ली गई है, किंतु निर्माण का ढंग यूनानी था। 
  • गांधार मूर्तिकला शैली में बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो के समान बनाई गई है। 
  •  गांधार कला शैली की उत्पत्ति का स्रोत एशिया माइनर तथा हेलेनिस्टिक कला थी। 
  • गांधार कला के अंतर्गत बुद्ध की धर्मचक्रमुद्रा, ध्यानमुद्रा, अभयमुद्रा और वरदमुद्रा आदि मूर्तियों का निर्माण किया गया। 

मथुरा कला 

  • मौर्योत्तर काल में विकसित हुई मथुरा शैली के मूर्तिकारों ने विभिन्न देशी परंपराओं के सम्मिश्रण से इस कला को जन्म दिया, जिसमें बुद्ध की विलक्षण प्रतिमाएँ बनीं। परंतु इस जगह की ख्याति कनिष्क की सिरविहीन खड़ी मूर्ति को लेकर है। 
  •  जैन धर्मानुयायियों ने भी मथुरा में मथुरा मूर्तिकला की शैली को प्रश्रय दिया, जहाँ शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति बनाई। 
  • इस शैली में मुख्यतः लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग किया जाता था। 
  • कुषाण शासकों के द्वारा भी इसका संरक्षण किया गया। अतः इस काल में इसका विकास हुआ। 
  • मथुरा कला के अंतर्गत बुद्ध की धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा, अभयमुद्रा, ध्यानमुद्रा, भू-स्पर्श मुद्रा आदि मूर्तियों का निर्माण किया गया। 
  • मथुरा कला का भरहुत और साँची की कलाओं के साथ निकट का संबंध है।

गांधार कला एवं मथुरा कला में अंतर

गांधार कला

मथुरा कला

गहरे नीले एवं काले पत्थर का प्रयोग

लाल पत्थर का प्रयोग

संरक्षक-शक एवं कुषाण

संरक्षक-कुषाण

यथार्थवादी

आदर्शवादी

मुख्यतः बौद्ध की मूर्तियाँ

बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म  से संबंधित मूर्तियाँ

  • नोट: इसी समय सातवाहन एवं इक्ष्वाकु शासकों के संरक्षण में पूर्वी दक्कन में कृष्णा एवं गोदावरी की निचली घाटी में अमरावती कला का विकास हुआ, जिसके प्रमुख केंद्र नागार्जुनकोण्डा, अमरावती व जगैइपेट आदि थे।
  • मौर्योत्तरकालीन साहित्य 
  • इस काल में साहित्य रचना में संस्कृत भाषा का प्रचलन अधिक था। 
  • पतंजलि ने ‘महाभाष्य‘ की रचना की, जो उनके पूर्ववर्ती व्याकरणाचार्य पाणिनी की रचना ‘अष्टाध्यायी’ की टीका है।
  • सबसे प्रसिद्ध स्मृति ‘मनुस्मृति’ ई. पू. दूसरी सदी में लिखी गई। 
  • अश्वघोष रचित सौंदरानंद, बुद्ध के सौतेले भाई आनंद के बौद्ध धर्म  में दीक्षित होने के प्रसंग पर आधारित है। 
  • अश्वघोष के नाटकों के कुछ भाग मध्य एशिया के एक विहार से प्राप्त हुए हैं। 
  • रुद्रदामन का ‘गिरनार अभिलेख‘ संस्कृत काव्य का अनूठा उदाहरण है। 
  •  कुषाण साम्राज्य के ‘सुई विहार’ के अभिलेख में भी संस्कृत का प्रयोग हुआ है। 

मौर्योत्तरकालीन साहित्य

रचनाएँ 

रचनाकार

गाथासप्तशती 

हाल

कामसूत्र

वात्स्यायन 

अष्टाध्यायी

पाणिनी

महाभाष्य

अष्टाध्यायी’ की टीका

पतंजलि

सौंदरानंद, बुद्धचरित 

अश्वघोष

चरक संहिता 

चरक

स्वप्नवासवदत्ता

भास 

नाट्यशास्त्र 

भरत मुनि

चारुदत्ता

भास 

मिलिंदपन्हो 

नागसेन

उरुभंग

भास