प्राचीन भारतीय इतिहास का विकास
प्रागैतिहासिक काल
- पुरापाषाण काल(प्रारंभ से -10,000 ई. पू.)
- निम्न पुरापाषाण (प्रारंभ से -1 लाख ई. पू.)
- मध्य पुरापाषाण काल (1 लाख ई. पू.- 40,000 ई. पू.))
- उच्च पुरापाषाण काल (40,000 ई. पू.- 10,000 ई. पू.)
- मध्यपाषाण काल (10,000-5500 ई. पू.)
- नवपाषाण काल (5,500-3,000 ई.पू.)
पाषाण युग
- भारतीय पाषाणकालीन संस्कृति को विद्वानों ने तीन कालों में विभाजित कया है-
- पुरापाषाण काल,
- मध्य पाषाण काल
- नवपाषाण काल।
- पुरापाषाण संस्कृति का उदय अभिनूतन (Pleistocene) युग में हुआ था।
- इस युग में धरती बर्फ से ढकी हुई थी। भारतीय पुरापाषाण काल को मानव द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले पत्थर के औज़ारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर तीन अवस्थाओं में बाँटा जाता है
- 1. निम्न पुरापाषाण काल (प्रारंभ से 1 लाख ई.पू.)
- 2. मध्य पुरापाषाण काल (1 लाख ई.पू. से 40,000 ई.पू.)
- 3. उच्च पुरापाषाण काल (40,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू.)
प्रागैतिहासिक काल
पुरापाषाण काल
- पुरापाषाणकालीन संस्कृति के अवशेष सोहन नदी घाटी, बेलन नदी घाटी तथा नर्मदा नदी घाटी एवं भोपाल के पास ‘भीमबेटका’ नामक चित्रित शैलाश्रयों से प्राप्त हुए हैं।
- पूर्वपाषाण काल या पुरापाषाण काल को उपकरणों में भिन्नता के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया गया है
- निम्न पुरापाषाण काल
- मध्य पुरापाषाण काल
- उच्च पुरापाषाण काल
निम्न पुरापाषाण काल
- इसके उपकरण सर्वप्रथम सोहन नदी (सिंधु नदी की छोटी सहायक नदी) घाटी से प्राप्त हुए, इसी कारण इसे ‘सोहन संस्कृति‘ भी कहा जाता है।
- इस काल में पेबुल, चॉपर तथा चॉपिंग उपकरणों के साक्ष्य मिलते हैं।
- पेबुल, पत्थर के वे उपकरण होते थे, जो पानी के बहाव में रगड़ खाकर चिकने और सपाट हो जाते थे।
- चॉपर, बड़े आकार वाला उपकरण है, जो पेबुल से बनाया जाता था।
- चॉपिंग उपकरण द्विधारी होते हैं अर्थात् पेबुल के ऊपर दोनों किनारों को छीलकर उनमें धार बनाई जाती थी।
मध्य पुरापाषाण काल
- इस काल में बहुसंख्यक कोर, फ्लेक तथा ब्लेड उपकरण प्राप्त हुए हैं। फलकों की अधिकता के कारण मध्य पुरापाषाण काल को ‘फलक संस्कृति’ की संज्ञा दी जाती है।
- मध्य पुरापाषाण काल के औज़ारों का निर्माण अच्छे प्रकार के क्वार्टज़ाइट पत्थर से किया
- मध्य पुरापाषाण काल के उपकरण महाराष्ट्र में नेवासा, झारखण्ड में सिंहभूमि, उत्तर प्रदेश में चकिया (वाराणसी), बेलन घाटी (इलाहाबाद), मध्य प्रदेश के भीमबेटका गुफाओं तथा सोन घाटी, गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र, हिमाचल में व्यास, वानगंगा तथा सिरसा घाटियों आदि विविध पुरास्थलों से प्राप्त होते हैं।
उच्च पुरापाषाण काल
- इस काल का प्रमुख पाषाणोपकरण ब्लेड (Blade) है। ब्लेड पतले तथा सँकरे आकार वाला वह पाषाण फलक है जिसके दोनों किनारे समानांतर होते हैं तथा जो लंबाई में अपनी चौड़ाई से दोगुना होता है।
- भारत में इस काल के उपकरण सोन घाटी (मध्य प्रदेश), सिंहभूमि (झारखण्ड), जोगदहा, भीमबेटका, रामपुर, बघेलान, बाघोर (मध्य प्रदेश), पटणे, भदणे तथा इनामगाँव (महाराष्ट्र), रेनीगुंटा, वेमुला, कुर्नूल गुफाएँ (आंध्र प्रदेश), शोरापुर दोआब (कर्नाटक) तथा बूढ़ा पुष्कर (राजस्थान) आदि से प्राप्त हुए हैं।
मध्यपाषाण काल
- इस काल के उपकरण अत्यंत छोटे होते थे, इसलिये इन्हें ‘माइक्रोलिथ’ कहा गया।
- सर्वप्रथम सी.एल. कार्लाइल ने विध्य क्षेत्र से लघु पाषाणोपकरण खोजे।
- इस काल के प्रमुख केंद्र हैं- बेतवा घाटी, सोन घाटी (मध्य प्रदेश), कृष्णा घाटी (कर्नाटक), बेलन घाटी (उत्तर प्रदेश), नेवासा (महाराष्ट्र) इत्यादि।
- आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) और बागोर (राजस्थान) से प्राप्त साक्ष्य पशुपालन को दर्शाते हैं।
- इस काल के लोगों ने सर्वप्रथम कुत्ते को पालतू पशु बनाया था।
- इस काल में मानव अस्थिपंजर का सबसे पहला अवशेष प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) के सराय नाहर राय तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।
- राजस्थान में स्थित सांभर झील निक्षेप के कई मध्य पाषाणिक स्थल प्राप्त हुए हैं। यहाँ से विश्व के सबसे पुराने वृक्षारोपण का साक्ष्य मिला है।
नवपाषाण काल
- भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम नवपाषाणिक बस्ती मेहरगढ़ (पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित) है, जिसकी तिथि 7000 ई. पू. मानी जाती है।
- इस काल के प्रमुख केंद्र हैं- बेलन घाटी (उत्तर प्रदेश), रेनीगुंटा (आंध्र प्रदेश), सोन घाटी (मध्य प्रदेश), सिंहभूमि (झारखंड) इत्यादि।
- नवपाषाणकालीन स्थल बुर्जहोम एवं गुफकराल से अनेक गावास, मृद्भांड एवं हड्डी के औजार प्राप्त हुए हैं।
- चिराँद (बिहार) से प्रचुर मात्रा में हड्डी के उपकरण पाये गए हैं जो मुख्य रूप से हिरण के सींगों के हैं।
- कोल्डिहवा (इलाहाबाद) से चावल का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
- नवपाषाणिक संस्कृति अपनी पूर्वगामी संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी। इस काल का मानव न केवल खाद्य पदार्थों का उपभोक्ता था, वरन् उत्पादक भी था। वह कृषि कर्म और पशुपालन से पूर्णतः परिचित हो चुका था।
- यहाँ पाये गए उपकरणों में कुल्हाड़ी, बँसुली, छेनी, खुरपी, कुदाल, हथौड़े आदि प्रमुख हैं।
आद्य ऐतिहासिक काल/धातु काल
- पाषाण युग की समाप्ति के बाद धातुओं के युग का प्रारम्भ हुआ।
- इसी युग को आद्य ऐतिहासिक काल या धातु काल कहा जाता है।
- हडप्पा संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति की गणना इस काल से की जाती है।
- गैरिक एवं कृष्ण लोहित मृद्भांड इस काल से संबंधित हैं।
ईसा पूर्व एवं ईसवी
- वर्तमान में प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेंडर (ईसाई कैलेंडर/जूलियन कैलेंडर) ईसाई धर्मगुरु ईसा मसीह के जन्म-वर्ष (कल्पित) पर आधारित है।
- ईसा मसीह के जन्म के पहले के समय को ईसा-पूर्व(B.C.-Before the birth of Jesus Christ) कहा जाता है। इसमें वर्षों की गिनती उल्टी दिशा में होती है।
- ईसा मसीह की जन्म-तिथि से आरंभ हुआ सन् ईसवी सन् कहलाता है, इसके लिये संक्षेप में ई. लिखा जाता है। ई. को लैटिन भाषा के शब्द A. D (Anno-Domini) में भी लिखा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- In the year of Lord (Jesus Christ)
ताम्रपाषाण काल(chalcolithic age)
- इस काल में मनुष्य पत्थर एवं तांबे के उपकरण/औज़ार प्रयोग करने लगा था, इसी कारण इस काल को ‘ताम्रपाषाण काल’ कहते हैं।
- लगभग 5000 ई.पू. में मनुष्य ने सर्वप्रथम जिस धातु का प्रयोग किया, वह तांबा था।
- ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ कृषक ग्रामीण संस्कृतियाँ थीं। इस काल की प्रमुख संस्कृतियाँ हैं
बनास/अहाड़ संस्कृति (राजस्थान)
- प्रमुख स्थल –अहाड़, बालाथल तथा गिलुंद।
- ‘अहाड़ को ‘ताम्बवती’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ बड़े पैमाने तांबा मिलता था।
- इस संस्कृति का कालक्रम 2100-1500 ई. पू. के बीच रखा गया है।
- अहाड़ के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे।
- गिलुंद इस संस्कृति का स्थानीय केंद्र माना गया है। यहाँ से पकी ईंटों के निर्माण के साक्ष्य मिले हैं।
- यहाँ से तांबे की बनी कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ तथा चादरें प्राप्त हुई हैं।
कायथा संस्कृति (मध्य प्रदेश)
- प्रमुख स्थल – कायथा तथा एरण।
- कायथा के मृदभांडों पर प्राक्-हड़प्पन, हड़प्पन और हड़प्पोत्तर संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है।
- यहाँ से स्टेटाइट और कॉर्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों के हार प्राप्त हुए हैं।
- नोट: एरण अभिलेख से सती प्रथा के प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य मिले हैं।
मालवा संस्कृति
- प्रमुख स्थल – कायथा, एरण तथा नवदाटोली।
- मालवा मृद्भांड अपनी उत्कृष्टता के लिये जाने जाते हैं।
- नवदाटोली से विभिन्न कृषि फसलों के साक्ष्य मिले हैं।
जोरवे संस्कृति (महाराष्ट्र)
- प्रमुख स्थल – जोरवे, नेवासा, दैमाबाद तथा इनामगाँव।
- दैमाबाद से भारी मात्रा में काँसे की वस्तुएँ मिली हैं। यह हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव दिखलाती है। यहीं से गैंडा, हाथी, भैंसा तथा रथ चलाते हुए मनुष्य की आकृति मिली है।
- इनामगाँव ताम्रपाषाण युग की एक बड़ी बस्ती थी। यह बस्ती किला बंद और खाई से घिरी हुई थी।
- 1200 ई. पू. के लगभग ताम्र पाषाणिक संस्कृति का लोप हो गया, केवल जोरवे संस्कृति 700 ई. पू. तक जीवित रही। ।
- ताम्र पाषाण संस्कृति के विलुप्त होने का कारण बहुत कम वर्षा या सूखा था।
महापाषाण काल
- नवपाषाण युग की समाप्ति के बाद दक्षिण में जिस संस्कृति का उदय हुआ, उसे महापाषाण काल कहा जाता है।
- इतिहासकारों ने महापाषाण काल का निर्धारण 1000 ई. पू . से लेकर प्रथम शताब्दी ई. पू. के बीच किया है।
- पत्थर की कब्रों को महापाषाण कहा जाता था। इन कब्रों में मानवों को दफनाया जाता था।
- यहाँ की कब्रों में लोहे के औज़ार, घोड़े के कंकाल तथा पत्थर एवं सोने के गहने भी प्राप्त हुए हैं।
- महापाषाण काल से संबद्ध लोग साधारणतः पहाड़ों की ढलान पर रहते थे।
- दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्वी भारत तथा कश्मीर में यह प्रथा प्रचलित थी।
- महापाषाण काल में आंशिक शवाधान की पद्धति भी प्रचलित थी जिसके तहत शवों को जंगली जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था।
- ब्रह्मगिरि, आदिचन्नलूर, मास्की, चिंगलपत्तु, नागार्जुनकोंडा आदि इसके प्रमुख शवाधान केंद्र हैं।
- महापाषाणकालीन लोग धान के अतिरिक्त रागी की खेती भी करते थे।