भारत की जलवायु (Climate of India)

सामान्य परिचय (General Introduction)

  •  भारत में ‘मानसूनी’ प्रकार की जलवायु पाई जाती है। ‘मानसून’ शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘मौसिम’ से हुई है, जिसका अर्थ है- ‘पवनों की दिशा का ऋतुवत (मौसम के अनुसार) प्रत्यावर्तन‘। 
  •  भारत में अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी से चलने वाली हवाओं की दिशा ऋतु परिवर्तन के साथ बदल जाती है, इसी कारण भारतीय जलवायु को ‘मानसूनी जलवायु’ की संज्ञा दी जाती है।

नोट: एक सीमित क्षेत्र के अंतर्गत समय विशेष में वायुमंडल की अवस्था (दशा) को ‘मौसम’ कहते हैं, जबकि विस्तृत क्षेत्र एवं लंबी समयावधि (30-35 वर्ष) में मौसम की अवस्थाओं एवं विविधताओं का कुल योग ‘जलवायु’ कहलाता है।

भारतीय मानसून (Indian Monsoon) 

  • भारत की जलवायु ‘उष्ण मानसूनी’ प्रकार की है। किंतु, ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि भारत का उत्तरी भाग जो कर्क रेखा के उत्तर में स्थित है शीतोष्ण कटिबंध में, तथा कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित भाग उष्ण कटिबंध के अंतर्गत आता है। 
  • भारतीय मानसून का संबंध मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में होने वाले वायुमंडलीय परिसंचरण में परिवर्तन से है। 
  • ग्रीष्म ऋतु के आरंभ होने से सूर्य का उत्तरायण होना आरंभ होता है। सूर्य के उत्तरायण के साथ-साथ अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) का भी उत्तरायण होना प्रारंभ हो जाता है। इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में प्रवाहित होने लगती है तथा भारतीय उपमहाद्वीप में तापमान की अधिकता से निम्न वायुदाब का विकास होता है। 
  • पश्चिमी जेट स्ट्रीम के हिमालय के उत्तर में विस्थापन के पश्चात् भारत में ‘पूर्वी जेट प्रवाह’ का विकास होता है। इसकी स्थिति लगभग 15°-30° उत्तरी अक्षांश में ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है, इसे ही भारतीय मानसून प्रस्फोट के लिये प्रमुख रूप से उत्तरदायी माना जाता है। 
  • पूर्वी जेट प्रवाह के प्रभाव से दक्षिणी हिंद महासागर में मेडागास्कर द्वीप के समीप उच्च वायुदाब का विकास होता है। इसी उच्च वायुदाब के केंद्र से दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है।

अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (Intertropical convergence zone- ITCZ) 

  • विषुवत वृत्त पर स्थित अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र एक निम्न वायुदाब वाला क्षेत्र है। 
  • इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनें मिलती हैं। 
  • जुलाई के महीने में ITCZ20° से 25° उ. अक्षांशों के आस-पास गंगा के मैदान में स्थित हो जाता है। इसे कभी-कभी मानसूनी गर्त भी कहते हैं। यह मानसूनी गर्त, उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत पर तापीय निम्न वायुदाब के विकास को प्रोत्साहित करता है। आई.टी.सी.जेड. के उत्तर की ओर खिसकने के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें 40° और 60° पूर्वी देशांतरों के बीच विषुवत वृत्त को पार कर जाती हैं। कोरियोलिस बल के प्रभाव से विषुवत वृत्त को पार करने वाली इन व्यापारिक पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर हो जाती है। यही दक्षिण-पश्चिम मानसून है। शीत ऋतु में आई.टी. सी.जेड. दक्षिण की ओर खिसक जाता है। इसी के अनुसार पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से बदलकर उत्तर-पूर्व हो जाती है, यही उत्तर-पूर्व

मानसून को समझना 

  • मानसून का स्वभाव एवं रचना-तंत्र संसार के विभिन्न भागों में स्थल, महासागरों तथा ऊपरी वायमंडल से एकत्रित मौसम संबंधी आँकड़ों के आधार पर समझा जाता है। पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित फ्रेंच पोलिनेशिया के ताहिती (लगभग 18° द. तथा 149° प.) तथा हिंद महासागर में ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग में स्थित पोर्ट डार्विन (12°30′ द. तथा 131° पू.) के बीच पाए जाने वाले वायुदाब का अंतर मापकर मानसून की तीव्रता के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। 
  • भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department) 16 कारकों (मापदंडों) के आधार पर मानसून के संभावित व्यवहार के बारे में लंबी अवधि का पूर्वानुमान लगाता है। 

भारत में मानसून का आगमन (Arrival of Monsoon in India) 

  • भारत में होने वाली मानसूनी वर्षा, ‘मौसमी’ होती है जो जून से सितंबर के दौरान होती है।
  • जून के प्रथम सप्ताह में मानसूनी हवाएँ केरल, कर्नाटक, गोवामहाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों तक पहुँच जाती हैं। सर्वप्रथम मानसूनी हवाएँ केरल के तट से टकराती हैं, जिसे ‘मानसून प्रस्फोट (Burst of Monsoon) की संज्ञा दी जाती है। 
  • भारत में होने वाली वर्षा मुख्य रूप से भूआकृतियों (उच्चावच) द्वारा नियंत्रित होती है, उदाहरण के रूप में पश्चिमी घाट के पवनाभिमुखी ढाल पर लगभग 250 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है। इसी प्रकार पूर्वी भारत में पहाड़ियों की विशेष स्थिति के कारण ही पूर्वी राज्यों में भारी वर्षा होती है।

भारत में वर्षा का अनुपात 

पश्चिमी विक्षोभ – लगभग 3 प्रतिशत 

मानसून पूर्व स्थानीय चक्रवाती वर्षा – लगभग 10 प्रतिशत 

दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी वर्षा – लगभग 74 प्रतिशत 

प्रत्यावर्तित मानसनी वर्षा – लगभग 13 प्रतिशत 

  • समुद्र से दूरी बढ़ने के साथ-साथ मानसूनी वर्षा घटती जाती है। यही कारण है कि भारत में मानसूनी वर्षा के द्वारा कोलकाता में 119 सेमी, पटना में 105 सेमी., इलाहाबाद में 76 सेमी. तथा दिल्ली में 56 सेमी. तक ही वर्षा होती है। 
  • भारत की कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था मानसूनी वर्षा पर अधिक निर्भर रहती है इसलिये जब वर्षा सामान्य समय से पहले समाप्त हो जाती है तो खड़ी फसलों को नुकसान तो होता ही है, साथ ही शीतकालीन फसलों की बुआई में भी कठिनाई आती है।

भारतीय मानसून की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत (Theories related to Origin of Indian Monsoon)

मानसून की उत्पत्ति से संबंधित अनेक सिद्धांत दिये गए हैं, जिनमें कुछ प्रमुख सिद्धांतों का विवरण निम्नलिखित है

तापीय सिद्धांत अथवा चिरसम्मत विचारधारा (Thermal Theory or the Classical theory)

  • इस सिद्धांत को ‘एडमंड हैली’ ने सन् 1656 में ‘एशियाई मानसून की उत्पत्ति की व्याख्या’ हेतु प्रतिपादित किया था। 
  • इस सिद्धांत के अनुसार ‘मानसून’, महाद्वीपों एवं महासागरों के उष्मण में अंतर के कारण इनमें उत्पन्न तापीय विरोधाभास का परिणाम है।
  •  ग्रीष्म काल में सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंबवत् पड़ती हैं, जिसके कारण यहाँ निम्न वायुदाब केंद्र का विकास हो जाता है तथा ‘तापीय विषुवत रेखा’ का उत्तर की ओर खिसकाव हो जाता है। इसके कारण दक्षिण-पूर्व व्यापारिक पवनें, निम्न वायुदाब केंद्र की ओर खिंची चली आती हैं और जब ये हवाएँ भूमध्य रेखा को पार करती हैं तो ‘कोरियोलिस बलके प्रभाव के कारण दाहिनी ओर मुड़ जाती हैं, जहाँ इनकी दिशा ‘दक्षिण-पश्चिम’ हो जाती है।
  • चूँकि ये पवनें समुद्र में लंबी दूरी तय करके आती हैं, अतः अपने साथ आर्द्रता भी पर्याप्त मात्रा में लाती हैं। जिसके कारण ही इसके द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा होती है। इसे ही ‘दक्षिण-पश्चिम मानसूनी वर्षा’ के नाम से जाना जाता है। 
  • ग्रीष्मकाल के विपरीत शीतकाल में जब सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पडती हैं तो एशिया का स्थलीय भाग महासागरों की तुलना में अधिक ठंडा हो जाता है, जिसके कारण स्थल पर उच्च वायुदाब का केंद्र निर्मित हो जाता है तथा दक्षिणी हिंद महासागर के क्षेत्र में निम्न वायुदाब का केंद्र विकसित हो जाता है- फलतः हवाएँ स्थल से महासागर की ओर बहने लगती हैं। 
  • स्थल से आने के कारण इन हवाओं में आर्द्रता की कमी होती है, जिसके कारण वर्षा का अभाव पाया जाता है। लेकिन कोरियोलिस बल के कारण जब ये हवाएँ अपने दाहिनी ओर मुड़कर बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती हैं तो वहाँ से आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं और इनकी दिशा ‘उत्तर-पूर्व’ हो जाती है, जिसके कारण तमिलनाडु के तट (कोरोमंडल तट) पर वर्षा होती है। इसे ‘उत्तर-पूर्वी मानसूनी वर्षा’ कहते हैं। 
  • आलोचकों के अनुसार, यह मानसून की एक सरलीकृत व्याख्या है, क्योंकि सूर्य की उत्तरायण एवं दक्षिणायन की स्थिति प्रत्येक वर्ष निश्चित रहती है, जबकि मानसून के आगमन में अनिश्चितता विद्यमान रहती है।

गतिक संकल्पना या विषुवतीय पछुआ पवन सिद्धांत (Dynamic Concept or The Equatorial Westerlies Theory) 

  • इस सिद्धांत का प्रतिपादन ‘फ्लोन‘ ने किया। इनके अनुसार, मानसून ‘पछुआ पवनों’ का सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायन के अनुसार सामान्य मौसमी स्थानांतरण है।
  • इसके अनुसार, ग्रीष्म ऋतु में तापीय विषुवत रेखा के उत्तर की ओर खिसकाव के कारण ‘अंत: उष्ण अभिसरण क्षेत्र’ (ITCZ) का भी उत्तर की ओर खिसकाव हो जाता है। फलतः (विषुवतीय) पछुआ पवनों का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप पर बने निम्नदाब क्षेत्रों की ओर होने लगता है और अंततः दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है। 
  • उत्तरी अन्त: उष्ण अभिसरण क्षेत्र (NITCZ) के सहारे उष्ण  कटिबंधीय विक्षोभ सक्रिय देखे जाते हैं। क्षेत्रीय मौसम को प्रभावित करने में इनकी अहम भूमिका होती है। 
  • शीत ऋतु में सूर्य के दक्षिणायन होने पर निम्न वायुदाब क्षेत्र उच्च वायुदाब में बदल जाता है। फलतः उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें पुनः प्रभावी रूप में गतिशील हो जाती हैं।

जेट स्ट्रीम सिद्धांत (Jet Stream Theory) 

  • यह ऊपरी वायुमंडल में अति तीव्र गति से चलने वाली वायु-प्रवाह प्रणाली है, जो निम्न वायुमंडल के मौसम को भी प्रभावित करती है। 
  • इस सिद्धांत के अनुसार, ‘उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम’ के द्वारा भारत में ‘दक्षिण-पश्चिम मानसून’ की उत्पत्ति होती है तथा ‘उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ के द्वारा ‘उत्तर-पूर्वी मानसन’ (शीतकालीन मानसून) की उत्पत्ति में मदद मिलती है। 
  • शीतकाल में पूरे पश्चिमी तथा मध्य एशिया में उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम, पश्चिम से पूर्व दिशा में प्रवाहित होती रहती है और जब यह तिब्बत के पठार में पहुँचती है तो अवरोध के कारण  दो शाखाओं में बँट जाती है। 
    • एक शाखा तिब्बत के पठार के उत्तर से पठार के समान बहने लगती है तथा 
    • दूसरी शाखा हिमालय के दक्षिण में की ओर चली जाती है जो शीत ऋतु में भारतीय उप पर ‘पश्चिमी विक्षोभ‘ लाती है। 
  • गर्मी में (सूर्य के उत्तरायण के समय) सभी ताप कटिबंधों का उत्तर की ओर विस्थापन हो जाता है, जिसके कारण ‘उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ का भी तिब्बत के पठार के उत्तर में विस्थापन हो जाता है। इसके कारण भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपरी वायुमंडल में ‘उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम’ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। 
  • उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम एक प्रकार की क्षेत्रीय एवं मौसमी जेट स्ट्रीम है। इसकी उत्पत्ति ग्रीष्म ऋतु के समय तिब्बत के पठार पर अधिक तापमान के कारण गर्म वायु के आरोहण (वायु का गर्म होकर ऊपर उठना) से क्षोभमंडल के ऊपर की परतों में विकसित उच्च वायुदाब के केंद्र से होती है।
  • उच्च वायुदाब के केंद्र से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से होते हुए दक्षिणी हिंद महासागर की ओर चलने वाली हवा को ही ‘उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम’ कहते हैं। 
  • इस जेट स्ट्रीम के कारण मेडागास्कर द्वीप के समीप वायु के अवरोहण से उच्च वायुदाब का विकास होता है। यहाँ से चलने वाली दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें जब विषुवत रेखा को पार करती हैं तो कोरियोलिस बल के कारण दाईं ओर मुड़ जाती हैं तथा भारतीय उपमहाद्वीप के तट से टकराकर वर्षा करती हैं। इन्हें ‘दक्षिण-पश्चिम मानसून’ के नाम से जाना जाता है।

एल-नीनो और भारतीय मानसून (El Nino and Indian Monsoon) 

  • एल-नीनो एक जटिल मौसम तंत्र है, जो हर पाँच या दस साल बाद प्रकट होता रहता है। इसके कारण संसार के विभिन्न भागों में सूखा, बाढ़ और मौसम की चरम अवस्थाएँ आती हैं। 
  • एल-नीनो का शाब्दिक अर्थ ‘बालक ईसा‘ है, क्योंकि यह जलधारा दिसंबर के महीने में क्रिसमस के आस-पास नज़र आती है। पेरू (दक्षिणी गोलार्द्ध) में दिसंबर गर्मी का महीना होता है। 
  • भारत में मानसून की लंबी अवधि के पूर्वानुमान के लिये एल-नीनो  का उपयोग होता है। सन् 1990-91 में एल-नीनो का प्रचंड रूप देखने को मिला था। इसके कारण देश के अधिकतर भागों में मानसून के आगमन में 5 से 12 दिनों की देरी हो गई थी।
  • इस तंत्र में महासागरीय और वायुमंडलीय परिघटनाएँ शामिल होती हैं। पूर्वी प्रशांत महासागर में, यह पेरू के तट के निकट उष्ण समुद्री धारा के रूप में प्रकट होता है। इससे भारत सहित अनेक स्थानों का मौसम प्रभावित होता है। एल-नीनो भूमध्यरेखीय उष्ण समुद्री धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थायी रूप से ठंडी पेरूवियन अथवा हम्बोल्ट धारा पर प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू तट के जल का तापमान 10° सेल्सियस तक बढ़ा देती है। 

इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं

  • भूमध्यरेखीय वायुमंडलीय परिसंचरण में विकृति; 
  • समुद्री जल के वाष्पन में अनियमितता; 
  • प्लवक (Plankton) की मात्रा में कमी, जिससे समुद्र में मछलियों की संख्या का घट जाना।

हिंद महासागरीय डायपोल एवं भारतीय मानसून (Indian Ocean Dipole and Indian Monsoon) 

  • गर्मी के दिनों में हिंद महासागर की जलीय सतह पर दो भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग तापीय स्थिति उत्पन्न होती है, जिसे हिंद महासागरीय डायपोल की संज्ञा दी जाती है। हिंद महासागरीय डायपोल को ‘भारतीय नीनो’ के नाम से भी जाना जाता है। यह एल-नीनो को प्रभावित करता है, जिससे भारतीय मानसून प्रभावित होता है। 
  • हिंद महासागरीय डायपोल मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- सकारात्मक हिंद महासागरीय डायपोल तथा नकारात्मक हिंद महासागरीय डायपोल। 
  • सकारात्मक हिंद महासागरीय डायपोल की स्थिति में उष्ण कटिबंधीय पश्चिमी हिंद महासागर (अरब सागर) का तापमान पूर्वी हिंद महासागर के सामान्य तापमान से अधिक होता है। सकारात्मक हिंद महासागरीय डायपोल भारतीय मानसून के लिये अनुकूल परिस्थिति का निर्माण करता है।
  • नकारात्मक हिंद महासागरीय डायपोल की स्थिति में उष्णकटिबंधीय पश्चिमी हिंद महासागर का तापमान सामान्य तापमान से कम तथा उष्णकटिबंधीय पूर्वी हिंद महासागर का तापमान सामान्य तापमान से अधिक होता है। नकारात्मक हिंद महासागरीय डायपोल भारतीय मानसून के लिये प्रतिकूल स्थिति का निर्माण करता है।

मानसून विच्छेद (Gap of Monsoon)

मानसून अवधि के दौरान लगातार वर्षा होने के बाद कुछ सप्ताह के लिये वर्षा रुक जाती है तो ऐसी स्थिति को ‘मानसून विच्छेद’ की संज्ञा दी जाती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले इस विच्छेद के पीछे अलग-अलग कारक उत्तरदायी हैं, जैसे

  • पश्चिमी तट पर- आर्द्र पवनों का तट के समानांतर प्रवाहित होना। 
  • उत्तर भारत के मैदानों में अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र में परिवर्तन व उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की संख्या में कमी। 
  • राजस्थान में वायुमंडल की निचली परतों में तापीय विलोमता के प्रभाव से आर्द्र वायु के आरोहण में बाधा उत्पन्न होने से।

 मानसून निवर्तन (Retreating Monsoon) 

  • अक्तूबर एवं नवंबर में मानसून के पीछे हटने या लौटने को सामान्यतः ‘मानसून का निवर्तन’ कहा जाता है।
  • सितंबर के अंत में सूर्य का दक्षिणायन होना प्रारंभ हो जाता है फलतः गंगा के मैदान पर निर्मित निम्न वायुदाब की पेटी भी दक्षिण की ओर खिसकना आरंभ कर देती है, जिसके कारण ‘दक्षिण-पश्चिम मानसून’ कमजोर पड़ने लगता है और दिसंबर के मध्य तक आते-आते निम्न वायुदाब का केंद्र भारतीय उपमहाद्वीप से पूरी तरह हट चुका होता है।
  • मानसून निवर्तन के समय आकाश स्वच्छ हो जाता है और तापमान बढ़ने लगता है लेकिन ज़मीन अभी भी नमी धारण किये रहती है। इस प्रकार उच्च तापमान एवं उच्च आर्द्रता के कारण मौसम कष्टकारी (उमस भरी गर्मी) हो जाता है। इसे ‘कार्तिक मास की ऊष्मा’ कहा जाता है। 
  • मानसून के निवर्तन के समय उत्तर भारत में मौसम शुष्क रहता है जबकि प्रायद्वीपीय भारत के पूर्वी भागों में वर्षा होती रहती है जो अंडमान समुद्र में उत्पन्न चक्रवाती अवदाबों एवं उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के द्वारा होती है। कुछ चक्रवाती तूफान पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्यांमार के तट से भी टकराते हैं। कोरोमंडल तट पर होने वाली अधिकांश वर्षा इन्हीं अवदाबों और चक्रवातों से प्राप्त होती है। ऐसे चक्रवातीय तूफान अरब सागर में कम उठते हैं। 

भारतीय मानसून को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Indian Monsoon) 

  • हिंद महासागर के ऊपर करीब 20° दक्षिणी अक्षांश पर अर्थात् मेडागास्कर के पूर्व में उच्च वायु दाब वाले क्षेत्र की उपस्थिति पाई जाती है। इस उच्चवायुदाब क्षेत्र की तीव्रता और स्थिति भारतीय मानसून को प्रभावित करती है। 
  • तिब्बत के पठार गर्मियों में बहुत गर्म हो जाते हैं, जिसकी वजह से पवन की प्रबल ऊर्ध्वाधर धाराएँ पैदा होती हैं और तिब्बत के पठार के सतह पर निम्न वायु दाब का क्षेत्र बन जाता है। 
  • पश्चिमी जेट धारा का हिमालय के उत्तर की ओर विस्थापित होना और गर्मियों के दौरान भारतीय प्रायद्वीप पर उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम की उपस्थिति भी भारतीय मानसून को प्रभावित करती है। 
  • दक्षिणी महासागरों पर दाब की स्थितियों में परिवर्तन भी मानसून को प्रभावित करता है। 
  • एल-नीनो दक्षिणी दोलन (ENSO) के कारण मानसून सकारात्मक नकारात्मक रूप में प्रभावित होता है। 

ऋतुएँ (Seasons)

भारत की जलवायु को मुख्यतः 4 ऋतुओं में विभाजित किया जाता है

1. ग्रीष्म ऋतु (15 मार्च से 15 जून) 

2. वर्षा ऋतु (15 जून से 15 सितंबर

3. शरद ऋतु (15 सितंबर से 15 दिसंबर) 

4. शीत ऋतु (15 दिसंबर से 15 मार्च)

भारत की परंपरागत ऋतुएँ

ऋतु

भारतीय कैलेंडर के अनुसार महीने

अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार महीने

बसंत

चैत्र-बैशाख

मार्च-अप्रैल 

ग्रीष्म 

ज्येष्ठ-आषाढ़

मई-जून

वर्षा

श्रावण-भाद्र

जुलाई-अगस्त

शरद

आश्विन-कार्तिक

सितंबर-अक्तूबर

हेमंत

मार्गशीष-पौष

नवंबर-दिसंबर

शिशिर 

माघ-फाल्गुन

जनवरी-फरवरी

ग्रीष्म ऋतु (Summer Season)

  • मार्च में सूर्य की किरणों का कर्क रेखा की ओर विस्थापन के साथ ही उत्तर भारत में तापमान बढ़ने लगता है, जिसके कारण अप्रैल, मई एवं जून माह में उत्तर भारत में ग्रीष्म ऋतु का स्पष्ट रूप से अनभव किया जाता है। ग्रीष्म ऋतु के समय भारत के अधिकांश भागों में तापमान लगभग 30° से 32° सेल्सियस तक पाया जाता है, जबकि मई माह में ताप पेटी का उत्तर की ओर खिसकाव के कारण उत्तर-पश्चिम भागों का तापमान 48° सेल्सियस तक पहुँच जाना एक सामान्य बात है। 
  • प्रायद्वीपीय भारत पर समुद्र के समकारी प्रभाव के कारण ग्रीष्म ऋतु में भी दक्षिण भारत का तापमान, उत्तर भारत में प्रचलित तापमानों से नीचे ही रहता है। इस प्रकार, दक्षिण भारत में ग्रीष्म ऋतु मृदु होती हैं, जिसका तापमान लगभग 26° से 32° सेल्सियस के बीच रहता है। 
  • भारत में ग्रीष्म ऋतु में सबसे गर्म स्थान ‘ब्रियावली’ (बीकानेर राजस्थान) है। 
  • भारत में मार्च से जून के मध्य सूर्य की लंबवत् किरणों का उत्तरायण होने के कारण तापमान में वृद्धि तथा दाब में कमी के साथ ताप कटिबंधों का भी भारतीय उपमहाद्वीप की ओर विस्थापन होता है जिसके कारण ‘उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्टीम’ का भी भारत के उत्तरी मैदान से हिमालय पर्वत की ओर विस्थापन हो जाता है फलतः भारत के उत्तर-पश्चिम राज्यों में अधिक तापमान होने के कारण निम्न वायुदाब के केंद्र का विकास होता है। दक्षिण-पश्चिम मानसूनी पवनों के आगमन के पूर्व इस निम्न वायुदाब के केंद्र में चलने वाली गर्म या शुष्क हवाओं को राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार में ‘लू’ कहते हैं। इसी दौरान पश्चिम बंगाल, असम व उड़ीसा में क्रमशः काल बैसाखी, बोर्डाईचिला व नॉर्वेस्टर नाम से वर्षायुक्त प्रचंड तूफान चलती है।
  • जब कभी भी क्षेत्रीय प्रभाव के कारण निम्न वायुदाब के केंद्र में आर्द्र वायु का आरोहण होता है तब विद्युत गर्जन के साथ तीव्र गति से कम समय के लिये तथा सीमित क्षेत्र में ‘संवहनीय वर्षा/’convective rain” होती है। इस प्रकार की वर्षा को ही केरल में ‘आम्र वर्षा’ (आम के जल्दी पकने में सहायक) तथा कर्नाटक में ‘चेरी ब्लॉसम’ कहते हैं। यह ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति के समय घटित होती है।

ग्रीष्म ऋतु में आने वाले कुछ प्रसिद्ध स्थानीय तूफान 

आम्न वर्षा 

  • ग्रीष्म ऋतु के खत्म होते-होते पूर्व मानसून बौछारें पड़ती हैं, जो केरल व तटीय कर्नाटक में एक आम बात है। स्थानीय तौर पर इस तूफानी वर्षा को ‘आम्र वर्षा’ कहा जाता है, क्योंकि यह आमों को जल्दी पकने में सहायता देती है। 

फूलों वाली बौछारः 

  • इस वर्षा से केरल व निकटवर्ती कहवा उत्पादक क्षेत्रों में कहवा के फूल खिलने लगते हैं। 

काल बैसाखी: 

  • असम और पश्चिम बंगाल में बैशाख के महीने में शाम को चलने वाली ये भयंकर व विनाशकारी वर्षायुक्त पवनें हैं। इनकी कुख्यात प्रकृति का अंदाज़ा इनके स्थानीय नाम काल बैसाखी से लगाया जा सकता है, जिसका अर्थ है- बैशाख के महीने में आने वाली तबाही। चाय, पटसन व चावल के लिये ये पवनें अच्छी हैं। असम में इन तूफानों को ‘बोर्डाईचिला’ (Bordoichila) कहा जाता है। 

लू 

  • उत्तरी मैदान में पंजाब से बिहार तक चलने वाली ये शुष्क, गर्म व पीड़ादायक पवनें हैं। दिल्ली और पटना के बीच इनकी तीव्रता अधिक होती है।

वर्षा ऋतु (Rainy Season)

  • जून से सितंबर के मध्य भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी पवनों के द्वारामानसूनी वर्षा‘ होती है। 
  • दक्षिण-पश्चिम मानसूनी पवनें प्रायद्वीपीय भारत के दक्षिणी छोर से टकराकर दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं, जिन्हें ‘अरब सागर की शाखा’ और ‘बंगाल की खाड़ी की शाखा’ के नाम से जाना जाता है। 
  • अरब सागर की शाखा आगे जाकर तीन उपशाखाओं में विभाजित हो जाती है। पहली उपशाखा पश्चिमी घाट के तटवर्ती ढाल से टकराने के बाद पर्वतीय वर्षा करती हुई प्रायद्वीपीय भारत में प्रवेश करती है। 
    • दूसरी उपशाखा नर्मदा, तापी नदी घाटी से होते हुए छोटानागपुर पठार की ओर जाती है 
    • तीसरी उपशाखा अरावली पर्वत के समानांतर बिना वर्षा किये या बहुत कम मात्रा में वर्षा करते हुए सीधे पंजाब और हरियाणा के निम्न केंद्र वाले मैदान की ओर चली जाती है। 
  • बंगाल की खाड़ी की शाखा भी आगे दो उपशाखाओं में बँट जाती है। 
    • पहली उपशाखा, अरब सागर की दूसरी उपशाखा से छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में मिल जाती है, 
    • दूसरी उपशाखा उत्तर-पूर्वी राज्यों के पर्वतीय क्षेत्रों से टकराते और वर्षा करते हुए ‘सिंटेक्सियल बेंड’ (पूर्वी हिमालय) से टकराकर पश्चिम की ओर मुड़ जाती है तथा हिमालय के पर्वत पदीय क्षेत्रों में वर्षा करते हुए पंजाब के मैदान में प्रवेश कर जाती है। 
  • अरावली पर्वतीय क्षेत्र और तमिलनाडु के कोरोमंडल तटीय क्षेत्र में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी पवन के समानांतर प्रवाह के कारण ग्रीष्म ऋतु के समय मानसूनी वर्षा नहीं होती है। 
  • खासी पहाड़ी के दक्षिण में स्थित ‘मॉसिनराम’ (मेघालय) विश्व का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान है। 
  • भारत में सबसे कम वर्षा ‘लेह’ (लद्दाख ) में होती है। 

वर्षा का वितरण (Distribution of Rain) 

  • भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 125 सेमी. होती है परंतु इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। 
  • अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्व के उप-हिमालयी क्षेत्र, मेघालय की पहाड़ियाँ, जैसे खासी और जयंतिया पहाड़ियों के कुछ भाग (200 सेमी. से अधिक), ब्रह्मपुत्र घाटी तथा समीपवर्ती पहाड़ियाँ (200 सेमी. से कम) हैं। 
  • मध्यम वर्षा वाले क्षेत्रों में पूर्वी तमिलनाडु, गुजरात का दक्षिणी भाग, उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप (ओडिशा सहित), बिहार, झारखंड, गंगा का उत्तरी मैदान, कछार घाटी, मणिपुर शामिल हैं। यहाँ वर्षा 100 से 200 सेमी. के बीच होती है। 
  • न्यून वर्षा वाले क्षेत्रों में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू और कश्मीर, पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं दक्कन का पठार हैं। यहाँ वर्षा 50 से 100 सेमी. के बीच होती है। 
  • आंध प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्र तथा लद्दाख और पश्चिमी राजस्थान के अधिकांश भागों में 50 सेमी. से कम वर्षा (अपर्याप्त वर्षा) होती है।

शरद ऋतु (Autumn Season)

  • सितंबर से दिसंबर के मध्य सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण भारतीय उपमहाद्वीप के तापमान में कमी के साथ दाब में वृद्धि होती रहती है, जिसके कारण सितंबर माह के मध्य से ही पंजाब, हरियाणा के जैं पवनें लौटना प्रारंभ कर देती हैं। इसे ही ‘मानसून का लौटना’ या ‘मानसून का निवर्तन’ कहते हैं। 
  • इस समय ताप कटिबंधों के साथ-साथ ‘मानसून द्रोणी’ (ITCZ) का भी दक्षिण की ओर विस्थापन हो जाता है, जिसके कारण ‘उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ का तिब्बत के पठार से हिमालय पर्वत की ओर विस्थापन प्रारंभ हो जाता है तथा ‘उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम’ का भारतीय प्रायद्वीप से प्रभाव कम होने लगता है, जिसके कारण बंगाल की खाड़ी में उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति के लिये अनुकूल दशाएँ बन जाती हैं। 

शीत ऋतु (Winter Season) 

  • उत्तर भारत में शीत ऋतु का आरंभ सामान्यतः नवंबर माह के मध्य से होता है तथा जनवरी एवं फरवरी सर्वाधिक ठण्डे महीने होते हैं। इस समय उत्तर भारत के अधिकांश भागों से औसत दैनिक तापमान 21° सेल्सियस से भी कम रहता है। दिन की अपेक्षा, रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है तथा पंजाब और राजस्थान में हिमांक (शून्य डिग्री सेल्सियस) से भी नीचे हो जाता है। 
  • शीत ऋतु में भारत का सबसे ठंडा स्थान ‘द्रास’ (जम्मू-कश्मीर) है। 
  • शीत ऋतु में उत्तर भारत में अधिक ठंड पड़ने के मुख्य रूप से तीन कारण हैं 
    • राजस्थान, पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्य समुद्र के समकारी प्रभाव से दूर स्थित होने के कारण महाद्वीपीय जलवायु से प्रभावित रहते हैं। 
    • हिमालय से निकटता तथा उसकी श्रेणियों में हिमपात के कारण शीतलहर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 
    •  कैस्पियन सागर और तुर्कमेनिस्तान की ठंडी पवनें शीतलहर लाती हैं फलतः उत्तर-पश्चिम भागों में तापमान में कमी के साथ-साथ पाला व कोहरा भी उत्पन्न होता है।
  • समुद्र के समकारी प्रभाव तथा भूमध्यरेखा से निकटता के कारण प्रायद्वीपीय भारत में कोई निश्चित शीत ऋतु नहीं होती है जैसा कि उत्तर भारत में देखने को मिलता है। 
  • शीतकाल में पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं, जिसके कारण भारत के अधिकांश भागों में वर्षा नहीं करती हैं क्योंकि उनमें नमी की कमी होती है एवं स्थल पर घर्षण के कारण इन पवनों का तापमान बढ़ जाता है। 
  • दिसंबर से मार्च के बीच सूर्य दक्षिणायन की स्थिति में रहता है, जिसके कारण उत्तर-पश्चिम भारत में उच्च वायुदाब के क्षेत्र का विकास हो जाता है तथा ‘उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ का भारत के उत्तरी मैदान में विस्तार हो जाता है, जिसके प्रभाव से ही ‘पश्चिमी विक्षोभ’ के रूप में भारत के उत्तर-पश्चिम के राज्यों में तीव्र गति, कम समय तथा सीमित क्षेत्रों में वाताग्री वर्षा होती है। शीतकाल में होने वाली इस वर्षा को ‘मावठ‘ कहते हैं तथा यह रबी की फसल के लिये लाभदायक होती है। 
  • दूसरी तरफ, लौटते मानसूनी पवनों के द्वारा बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण करने के बाद तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों (कोरोमंडल) में वर्षा की जाती है।

पश्चिमी विक्षोभ 

  • पश्चिमी विक्षोभ, भारतीय उपमहाद्वीप में जाड़े के मौसम में पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम दिशा से प्रवेश करते हैं। यह भूमध्य सागर पर उत्पन्न होते हैं तथा भारत में इनका प्रवेश पश्चिमी जेट प्रवाह द्वारा होता है। 
  • यह विक्षोभ भारत के उत्तरी तथा उत्तरी-पश्चिमी भागों में शीतकालीन वर्षा के लिये ज़िम्मेदार होते हैं। 
  • शीतकाल में रात्रि के तापमान में वृद्धि इन विक्षोभों के आने का पूर्व संकेत माना जाता है। अपने प्रवाह क्रम में ये भूमध्य सागर के अतिरिक्त कैस्पियन सागर से भी आर्द्रता ग्रहण करते हैं। 
  • पश्चिमी विक्षोभ रबी की फसलों के लिये अत्यधिक लाभदायक होते हैं तथा हिमालय के अधिकांश भागों में इनके कारण ही हिमपात होता है। 

जलवायु का वर्गीकरण (Classification of Climate) 

  • भारत की जलवायु मानसूनी प्रकार की है। एक जलवायु प्रदेश में जलवायवी दशाओं में समरूपता होती है, जो जलवायु के कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है। तापमान तथा वर्षा जलवायु के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिन्हें जलवायु वर्गीकरण की सभी पद्धतियों में निर्णायक माना जाता है। 
  • जलवायु वर्गीकरण की अनेक पद्धतियाँ हैं, जिसमें कोपेन का जलवायवी वर्गीकरण सर्वाधिक मान्य है। इन्होंने जलवायु वर्गीकरण हेतु तापमान व वर्षा को प्रमुख आधार बनाया। 
  • कोपेन की पद्धति पर आधारित भारत की जलवायु के प्रमुख प्रकारों का वर्गीकरण निम्नलिखित हैं

जलवायु के प्रकार

Amw 

लघु शुष्क ऋतु वाला मानसून प्रकार 

गोवा के दक्षिण में भारत का पश्चिमी तट 

As 

शुष्क ग्रीष्म ऋतु वाला मानसून प्रकार

तमिलनाडु का कोरोमंडल तट

Aw 

उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार

कर्क वृत्त के दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार का अधिकतर भाग 

BShw  

अर्द्ध शुष्क  स्टेपी जलवायु

उत्तर-पश्चिमी गुजरात, पश्चिमी राजस्थान और पंजाब के कुछ भाग

BWhw 

गर्म मरुस्थल

राजस्थान का सबसे पश्चिमी भाग

Cwg  

शुष्क शीत ऋतु वाला मानसून प्रकार

गंगा का मैदान, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य

प्रदेश, उत्तर-पूर्वी भारत का अधिकतर प्रदेश

Dfc  

लघु ग्रीष्म तथा ठंडी आर्द्र शीत ऋतु वाला जलवायु प्रदेश

अरुणाचल प्रदेश

E  

ध्रुवीय प्रकार

जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड

 

type of climate

  • मानसून संबंधी अनुसंधान कार्य में लगे प्रमुख संस्थान 
    • भारतीय मौसम विभाग – नई दिल्ली 
    • भारतीय उष्ण कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे 
    • मध्यम दर्जे के राष्ट्रीय मौसम भविष्यवाणी केंद्र, नोएडा 
    • भारतीय राष्ट्रीय समुद्र सूचना सेवा केंद्र, हैदराबाद 
    • अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र, अहमदाबाद 
    • सेंटर फॉर मैथमेटिकल मॉडलिंग एंड कंप्यूटर सिमुलेशन, बंगलूरू 
    • राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रयोगशाला, बंगलूरू 
    • सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ट कम्प्यूटिंग(CDAC), पुणे 

जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

स्थिति एवं उच्चावच संबंधित कारक

वायुदाब तथा पवनों से जुड़े कारक

1.अक्षांश

2.हिमालय पर्वत की अवस्थिति

3.जल तथा स्थल का वितरण

4.समुद्र तट से दूरी

5.समुद्र तल से ऊँचाई

6.उच्चावच

 

अक्षांश

  • कर्क रेखा के उत्तर में भारत का उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में तथा दक्षिणी भाग उष्ण कटिबंध में पड़ता है। भूमध्य रेखा के निकट होने के कारण उष्ण कटिबंध में पूरे वर्ष ऊँचे तापमान तथा कम दैनिक एवं वार्षिक तापांतर पाया जाता है। कर्क रेखा के उत्तरी भागों में भूमध्य रेखा से दूरी होने के कारण उच्च दैनिक तथा वार्षिक तापांतर के साथ विषम जलवायु पाई जाती है। 

हिमालय पर्वत की अवस्थिति

  • हिमालय पर्वत अपने विस्तार एवं ऊँचाई के कारण एक प्रभावी जलवायु विभाजक का कार्य करता है। यह पर्वत श्रृंखला भारतीय उपमहाद्वीप को साइबेरिया से आने वाली ठंडी पवनों से बचाती है तथा मानसूनी पवनों को रोककर वर्षा का कारण बनता है। 

जल तथा स्थल का वितरण

  • भारतीय भूभाग तीन तरफ सागरों से घिरा है तथा इसके उत्तर की ओर अविच्छिन्न पर्वत श्रेणी है। स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म व देर से ठंडा होता है। जल एवं स्थल के इस विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब प्रदेश विकसित होते हैं। ये वायुदाब प्रदेश मानसूनी पवनों के उत्क्रमण के कारण बनते हैं। 

समुद्र तट से दूरी

  • लंबी तटीय रेखा के कारण भारत के विस्तृत तटीय प्रदेशों में समकारी जलवायु पाई जाती है जबकि आंतरिक भाग समुद्र के समकारी प्रभाव से वंचित रह जाते हैं तथा यहाँ पर विषमकारी जलवायु पाई जाती है। 

समुद्र तल से ऊँचाई

  • ऊँचाई के साथ तापमान में कमी आती है। विरल वायु के कारण पर्वतीय प्रदेश मैदानों की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं। एक ही अक्षांश पर अवस्थित आगरा (16° सेल्सियस) एवं दार्जिलिंग (4° सेल्सियस) के शीतऋतु के तापमान में पर्याप्त अंतर पाया जाता है।

उच्चावच

  • भारत के भौतिक स्वरूप तथा उच्चावच में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है, जो तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा तथा ढाल की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है। 

वायुदाब तथा पवनों से जुड़े कारक 

  • वायुदाब तथा पवनों का धरातल पर वितरण। 
  • भूमंडलीय मौसम को नियंत्रित करने वाले कारकों एवं विभिन्न वायुसंहतियों एवं जेट प्रवाह के अंतर्वाह द्वारा उत्पन्न ऊपरी वायुसंचरण। 
  • शीतकाल में पश्चिमी विक्षोभों तथा दक्षिण-पश्चिम मानसून काल में उष्ण कटिबंधीय अवदाबों के भारत में अंतर्वहन के कारण उत्पन्न वर्षा की अनुकूल दशाएँ।