राष्ट्रीय आंदोलन (1885-1947 ई.)
भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना (दिसंबर 1885 में)
- एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए.ओ. ह्यूम) द्वारा
- प्रारंभ में इसका नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय संघ’ रखा गया था
- दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर इसका नाम बदलकर ‘भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस‘ कर दिया गया।
- कॉन्ग्रेस की स्थापना के समय भारत का वायसराय- लॉर्ड डफरिन
- प्रथम अधिवेशन – पुणे में प्रस्तावित
- उस समय पुणे में प्लेग फैल जाने के कारण यह अधिवेशन बंबई में आयोजित
- प्रथम अधिवेशन – 28 दिसंबर, 1885 को
- बंबई के ग्वालिया टैंक में स्थित ‘गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज‘ में हुआ।
- सम्मेलन में भाग लेने वाले सदस्यों की संख्या – 72
- सर्वाधिक सदस्य- बबई प्रांत से (38 सदस्य)
- अधिवेशन के प्रथम अध्यक्ष- व्योमेश चंद्र बनर्जी
- अधिवेशन के प्रथम सचिव – ए.ओ. ह्यूम
राष्ट्रीय आंदोलन का प्रथम चरण
उदारवादी चरण (1885-1905)
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस में 1885 से लेकर 1905 तक उदारवादियों का वर्चस्व रहा।
- शुरुआत में इस संगठन का प्रभाव सिर्फ शहरी शिक्षित भारतीयों तक ही था।
- इस दौर के कॉन्ग्रेसी नेताओं को उदारवादी अथवा नरमपंथी कहा जाता था ।
- इनका लक्ष्य अनुनय-विनय, प्रतिवेदनों, भाषणों तथा लेखों आदि माध्यमों से अपनी मांगें प्रस्तुत करना था।
- इन्हें ब्रिटिश सरकार की न्याय पर पूरा विश्वास था।
- इस काल में कॉन्ग्रेस पर वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर, लेखक, पत्रकार और साहित्यकार आदि शामिल थे।
- इस समय कॉन्ग्रेस भारत की आम जनता (जिसमें किसान, मजदूर, महिलाएँ आदि शामिल थे) की आवाज़ नहीं बन पाई।
- नरमपंथी या उदारवादी नेता – दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, मदन मोहन मालवीय, डब्ल्यू.सी. बनर्जी आदि
- उदारवादी, कॉन्ग्रेस का अधिवेशन बुलाकर प्रस्ताव पारित करते थे।
- ब्रिटेन में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में 1887 में भारतीय सुधार समिति’ की स्थापना की।
- 1892 के भारतीय परिषद् अधिनियम का पारित होना उदारवादी नेताओं की मांग का एक परिणाम था।
- सरकार द्वारा भारतीय व्यय की समीक्षा हेतु वेल्वी आयोग का गठन किया गया।
- राष्ट्रीय आंदोलन के प्रथम चरण में कॉन्ग्रेस का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष रहा
- प्रथम पारसी अध्यक्ष – दादाभाई नौरोजी (1886)
- प्रथम मुस्लिम अध्यक्ष – बदरुद्दीन तैय्यबजी (1887)
- प्रथम ईसाई अध्यक्ष- जॉर्ज यूले (1888)
- लंदन में 1889 में ‘ब्रिटिश कमेटी ऑफ इंडिया’ बनी। इसका सचिव विलियम डिग्बी था।
- इसी संस्था ने लंदन में भारतीय मसलों से अंग्रेजों को अवगत कराने के लिये ‘इंडिया’ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया।
- इस दौर को ‘आर्थिक राष्ट्रवादी युग’ के नाम से भी जाना जाता है।
- ‘धन के निष्कासन का सिद्धांत’- नौरोजी द्वारा प्रस्तुत
- रानाडे द्वारा भारतीयों को आधुनिक औद्योगिक विकास के महत्त्व को समझाने का प्रयास
- ‘भारत का आर्थिक इतिहास’पुस्तक के लेखक – रमेश चंद्र दत्त (आर.सी. दत्त)
- कॉन्ग्रेस को ‘राष्ट्रद्रोहियों की संस्था’ कहकर पुकारा- डफरिन ने
उग्रवादी चरण (1905-1919)
- इस गुट को ‘गरम दल’ के नाम से जाना गया।
- कॉन्ग्रेस के उग्रवादी अथवा अतिवादी नेता– लाल (लाला लाजपत राय), बाल (बाल गंगाधर तिलक), पाल (विपिन चंद्र पाल) तथा अरविंद घोष आदि
- इन नेताओं ने स्वराज प्राप्ति को ही अपना प्रमुख लक्ष्य एवं उद्देश्य बनाया। ‘स्वराज मांगने से नहीं अपितु संघर्ष से प्राप्त होगा’।
उग्रवाद को जन्म देने वाले कारण
- अंग्रेजों द्वारा कॉन्ग्रेस के अनुनय-विनय एवं मांगों पर ध्यान न देना
- सरकार द्वारा जनता को भड़काने वाली नीतियाँ
- वर्नाकुलर प्रेस एक्ट (1878)
- विश्वविद्यालय अधिनियम (1904)
- इंडियन ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट (1904)
- बंगाल विभाजन (1905) आदि।
- विभिन्न सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का प्रभाव।
- तात्कालिक अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम का प्रभाव
- 1896 से 1900 के बीच का भयंकर अकाल
- दूसरे दिल्ली दरबार (1903) का आयोजन में भारी व्यय
- तिलक व राष्ट्रवादी नेताओं पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर लंबे कारावास की सज़ा दिया जाना
उग्रवादी की विचारधारा एवं कार्यपद्धति
- अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकालने की बात करते थे।
- तिलक ने कहा कि “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा।” ।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार
- स्वदेशी अपनाने पर बल दिया
- राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया।
- बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रवाद की पहचान हिंदुत्व की भावना से की।
- तिलक ने 1893 में ‘गणपति महोत्सव’ तथा 1895 में ‘शिवाजी महोत्सव’ की शुरुआत की
- उग्रवादियों ने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की नीति अपनाई – असहयोग, हड़ताल, बहिष्कार, धरना प्रदर्शन, अन्यायपूर्ण कानूनों के उल्लंघन की।
- राष्ट्रीय शिक्षा योजना के तहत सर गुरुदास बनर्जी ने ‘बंगाल राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्’ बनाई।
- इसी समय पंजाब का ‘डी.ए.वी.’ आंदोलन भी तेजी से फैला।
बंगाल विभाजन (1905)
- गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन के काल (1899-1905) में
- बंगाल प्रेसिडेंसी में शामिल – बंगाल, बिहार व उड़ीसा शामिल थे।
- अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन का मुख्य कारण प्रशासनिक असुविधा बताया।
- यह विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया था।
- पश्चिमी बंगाल – हिंदू बहुल क्षेत्र था।
- पूर्वी बंगाल – मुस्लिम बहुल क्षेत्र था।
- बंगाल विभाजन की घोषणा – 20 जुलाई, 1905 (कुछ स्रोतों में 19 जुलाई, 1905) को
- बंगाल विभाजन के विरोध में ‘स्वदेशी आंदोलन’ की घोषणा तथा बहिष्कार प्रस्ताव पारित – 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल में संपन्न एक बैठक में
- बंगाल विभाजन की घोषणा प्रभावी– 16 अक्तूबर, 1905 से
- पूरा बंगाल पूर्वी तथा पश्चिमी बंगाल में बँट गया।
- पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक नया प्रांत बनाया गया, जिसमें राजशाही, चटगाँव व ढाका आदि सम्मिलित थे। पूर्वी बंगाल की राजधानी – ढाका
- पश्चिम बंगाल, में बिहार व उड़ीसा शामिल थे।
- 16 अक्तूबर, 1905 –बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया।
- कॉन्ग्रेस ने 1905 के बनारस अधिवेशन में स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन का अनुमोदन किया।
बंगाल विभाजन के उपरांत होने वाली विभिन्न गतिविधियाँ व स्वदेशी आंदोलन
- समूचे देश में स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का प्रचार किया
- बाल गंगाधर तिलक/लोकमान्य तिलक – बंबई और पुणे में
- ‘भारतीय अशांति का जनक’ – तिलक को (अंग्रेज़ अधिकारी वेलेन्टाइन शिरोल (चिरोल) ने)
- बाल गंगाधर तिलक/लोकमान्य तिलक – बंबई और पुणे में
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- अजीत सिंह एवं लाला लाजपत राय – पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में
- सैय्यद हैदर रज़ा – दिल्ली में
- चिदंबरम पिल्लै, सुब्रह्मण्यम अय्यर, पी. आनंद चार्ल व टी.एम. नायक आदि ने – मद्रास प्रेसिडेंसी में
- बहिष्कार आंदोलन के अंतर्गत विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया
- स्कूलों, अदालतों, उपाधियों, सरकारी नौकरियों आदि का भी बहिष्कार किया गया।
- पहली क्रांतिकारी संस्था – बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’
- स्थापित- बारींद्र कुमार घोष एवं भूपेंद्र नाथ दत्त (अन्य स्रोतों में पी. मित्रा) के नेतृत्व में
- संगठन का प्रमुख पत्र – ‘युगांतर’
- ‘स्वदेश बांधव समिति’ की स्थापना– बारीसाल के अध्यापक अश्विनी कुमार दत्त ने
- टैगोर ने इसी समय ‘आमार सोनार बांग्ला’ नामक गीत लिखा
- यही गीत 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना।
- अगस्त 1906 में एक राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् की स्थापना की गई।
- आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय ने ‘बंगाल कैमिकल्स स्वदेशी स्टोर्स’ की स्थापना की।
- स्वदेशी आंदोलन के समय पहली बार महिलाओं ने घर से बाहर निकलकर आंदोलन में भागीदारी दिखाई।
- स्त्रियों के अलावा बंगाल के युवाओं ने स्वदेशी आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई।
- यह आंदोलन किसानों व मुस्लिमों की भागीदारी से वंचित रह गया।
मुस्लिम लीग की स्थापना (1906)
- अक्तूबर 1906 में शिमला में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो से मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल आगा खाँ के नेतृत्व में मिला।
- प्रतिनिधि मंडल ने मुसलमानों के लिये विशिष्ट स्थिति प्रदान करने का आग्रह किया।
- वायसराय मिंटो से आश्वासन प्राप्त करने के पश्चात् पूर्वी बंगाल में मुसलमानों द्वारा बंगाल विभाजन के समर्थन में सभाओं का आयोजन किया गया।
- मुस्लिम लीग की स्थापना – 30 दिसंबर, 1906 को
- आगा खाँ, ढाका के नवाब सलीमुल्लाह तथा मोहसिन-उल-मुल्क के नेतृत्व में
- संस्थापक – सलीमुल्लाह
- मुस्लिम लीग के प्रथम अध्यक्ष – आगा खाँ
- मुस्लिम लीग की की स्थापना के उद्देश्य
- 1. मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा बढ़ाना।
- 2. मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करते हुए इसका का विस्तार करना।
- 3. मुसलमानों में अन्य संप्रदायों के प्रति उत्पन्न होने वाली असहिष्णुता व कटुता की भावना के प्रसार को रोकना।
- मुस्लिम लीग ने पृथक् निर्वाचक मंडल की मांग की – 1908 के, अमृतसर अधिवेशन में
- 1909 के ‘मॉर्ले-मिंटो सधार’ में मान लिया गया।
कॉन्ग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन (1906) –कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर विवाद उत्पन्न
- अध्यक्ष – दादाभाई नौरोजी की
- कलकत्ता के कॉन्ग्रेस अधिवेशन में उग्रवादियों ने चार प्रस्ताव पारित करवाए।
- ‘स्वदेशी आंदोलन’
- ‘बहिष्कार आंदोलन’
- ‘राष्ट्रीय शिक्षा’
- ‘स्वशासन’
- राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के इस अधिवेशन में ही दादाभाई नौरोजी ने ‘स्वराज’ की मांग प्रस्तुत की।
सूरत विभाजन (1907) –कॉन्ग्रेस का पहला विभाजन
- सूरत विभाजन के कारन
- पहला – उदारवादियों और उग्रवादियों में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद
- उग्रवादी का पसंद – लाला लाजपत राय (कुछ स्रोतों – के अनुसार बाल गंगाधर तिलक) को कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष बनाना – चाहते थे
- उदारवादी रास बिहारी घोष को अध्यक्ष बनाना चाहते थे।
- अंततः इस अधिवेशन की अध्यक्षता रास बिहारी घोष ने की।
- दूसरा – बंगाल विभाजन के संबंध में स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन का प्रसार को लेकर
- उदारवादी केवल बंगाल तक सीमित रखना चाहते थे
- उग्रवादी इस आंदोलन को भारत के अन्य हिस्सों में भी फैलाना चाहते थे।
- तीसरा- 1905 में भारत में आएं प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत समारोह को लेकर
- उग्रवादियों ने इसका विरोध किया था।
- चौथा – अधिवेशन के स्थान को लेकर
- उग्रवादी चाहते थे कि 1907 का वार्षिक अधिवेशन नागपुर में हो
- उदारवादी चाहते थे कि 1907 का अधिवेशन सूरत में हो।
- पहला – उदारवादियों और उग्रवादियों में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद
- अप्रैल 1908 में इलाहाबाद में एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें कॉन्ग्रेस हेतु एक नवीन संविधान व नियमावली तैयार की गई।
- इस नवीन संविधान को 1908 में मद्रास अधिवेशन में अनुमोदित किया गया।
दिल्ली दरबार का आयोजन (1911)
- 12 दिसंबर, 1911 को, दिल्ली में
- इंग्लैंड के सम्राट जॉर्ज पंचम एवं महारानी मैरी के स्वागत में दिल्ली दरबार का आयोजन
- इस समय भारत का वायसराय लॉर्ड हार्डिंग था।
- इस आयोजन में 1905 में हुए ‘बंगाल विभाजन को रद्द किया गया
- कलकत्ता की जगह दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया।
दिल्ली दरबार का आयोजन – तीन बार
- प्रथम दिल्ली दरबारः 1877
- लॉर्ड लिटन के कार्यकाल में , सन् 1877 में
- इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया , भारत की साम्राज्ञी घोषित
- ‘केसर-ए-हिंद’ की उपाधि दी गई।
- इसी समय दक्षिण भारत में भयंकर अकाल से हजारों व्यक्तियों को अपनी जान गयी
- लॉर्ड लिटन द्वारा इस दरबार को आयोजित करने में बेशुमार धन की बर्बादी की गई।
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द्वितीय दिल्ली दरबार: 1903
- लॉर्ड कर्जन के कार्यकाल में, सन् 1903
- इसके आयोजन पर पहले से कहीं अधिक भारतीय धन की बर्बादी हुई।
- इंग्लैंड के सम्राट एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी की घोषणा की गई।
- तृतीय दिल्ली दरबारः 1911
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियाँ
- भारत को ब्रिटिश-मुक्त कराने के उद्देश्य से, ब्रिटेन के शत्रु जर्मनी व तुर्की से आर्थिक व सैन्य सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया।
- बर्लिन (जर्मनी) इस समय भारतीय क्रांतिकारियों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था।
- वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय ने 1909 के बाद बर्लिन से ही अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखा।
- लाला हरदयाल ने बर्लिन में ‘भारतीय स्वतंत्रता समिति’ का गठन किया।
- इसका उद्देश्य विदेशों में रह रहे भारतीयों को भारत की स्वतंत्रता के लिये प्रेरित करना था।
- काबुल (अफगानिस्तान) में महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में दिसंबर 1915 में एक अस्थाई सरकार का गठन किया गया।
गदर आंदोलन/गदर पार्टी (1913)
- गदर पार्टी की स्थापना = 1 नवंबर, 1913 को, सैन फ्रांसिस्को (अमेरिका ) में, लाला हरदयाल द्वारा
- पार्टी के अन्य प्रमुख नेता– रामचंद्र, बरकतुल्ला, रामदास पुरी, सोहन सिंह भाखना, करतार सिंह सराबा, भाई परमानंद, भगवान सिंह आदि
- पार्टी की मुख्य पत्रिका – ‘गदर’ (साप्ताहिक पत्रिका)
- 1 नवंबर 1913 को इस पत्रिका का पहला अंक उर्दू में प्रकाशित
- आगे चलकर अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित
- इसके कार्यकर्ताओं में मुख्यतया पंजाब के किसान एवं भूतपूर्व सैनिक थे, जो रोज़गार की तलाश में कनाडा एवं अमेरिका के विभिन्न भागों में बसे हुए थे।
- गदर पार्टी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये गुरिल्ला युद्ध तकनीकी का प्रयोग किया।
कामागाटामारू प्रकरण (1914)
- कनाडा में भारतीयों के प्रवेश से संबंधित था।
- कनाडा में ऐसे भारतीय का प्रवेश वर्जित ,जो सीधे भारत से नहीं आए थे।
- भारतीय मूल के व्यापारी गुरुदत्त सिंह द्वारा कामागाटामारू जापानी जहाज़ में दक्षिण-पूर्वी एशिया के करीब 376 यात्रियों को बैठाकर वैंकूवर ले गए ,जिनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया।
- कनाडा में यात्रियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने हेतु हुसैन रहीम, बलवंत सिंह, सोहनलाल पाठक की अगुवाई में ‘शोर कमेटी’ (तटीय कमेटी) का गठन हुआ।
- अमेरिका में रह रहे भारतीय भगवान सिंह, बरकतुल्ला, रामचंद्र तथा सोहन सिंह ने भी यात्रियों के समर्थन में आंदोलन चलाया।
- कामागाटामारू जहाज़ को वैंकूवर की जल सीमा को छोड़कर , कलकत्ता पहुँचते ही कुछ यात्रियों और पुलिस के मध्य झड़पें हुई, जिसमें करीब 18 यात्री मारे गए। शेष यात्रियों को जेल में डाल दिया गया
होमरूल लीग आंदोलन (1916)
- भारत में होमरूल लीग की स्थापना – आयरलैंड की तर्ज पर ,
- बाल गंगाधर तिलक एवं एनी बेसेंट ने
- इस आंदोलन के दौरान तिलक ने नारा दिया- “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और इसे मैं लेकर रहूंगा।”
- बाल गंगाधर तिलक का कार्यक्षेत्र – कर्नाटक, महाराष्ट्र (बंबई को छोड़कर) मध्य प्रांत व बरार था।
- अप्रैल 1916 में तिलक ने बेलगाँव में हुए प्रांतीय सम्मेलन में होमरूल के गठन की घोषणा की
- पूना में तिलक द्वारा होमरूल आंदोलन प्रारंभ किया गया।
- तिलक की पत्रिका – ‘मराठा’ (अंग्रेज़ी भाषा में), ‘केसरी’ (मराठी भाषा में) थी।
- एनी बेसेंट का कार्यक्षेत्र – अड्यार (मद्रास) में,तिलक के कार्यक्षेत्र के अलावा शेष भारत
- एनी बेसेंट द्वारा सितंबर 1916 में, अड्यार (मद्रास) में होमरूल आंदोलन प्रारंभ
- सहयोगी – जॉर्ज अरुंडेल, सी.पी. रामास्वामी अय्यर
- एनी बेसेंट के लीग की सदस्य – मोतीलाल नेहरू, भूला भाई देसाई, चित्तरंजन दास, तेजबहादुर सप्रू, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, मुहम्मद अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू, बी. चक्रवर्ती, जे. बनर्जी
- बेसेंट , 1917 में, कॉन्ग्रेस के अधिवेशन की प्रथम महिला अध्यक्ष बनाया गया।
- एनी बेसेंट ने अपने दैनिक पत्र ‘न्यू इंडिया’ तथा साप्ताहिक पत्र ‘कॉमनवील’ के माध्यम से स्वशासन की मांग की ।
आंदोलन की उपलब्धियाँ
- आंदोलन ने शिक्षित वर्ग के साथ-साथ जनसामान्य की महत्ता को भी प्रतिपादित किया तथा सुधारवादियों द्वारा तय किये गए स्वतंत्रता आंदोलन की मानचित्रावली को स्थायी तौर पर परिवर्तित कर दिया।
- आंदोलन ने जुझारू राष्ट्रवादियों की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया।
- अगस्त 1917 में मॉण्टेग्यू घोषणा पत्र जिसमें ‘उत्तरदायी सरकार’ का वादा किया गया तथा 1919 में मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार’ काफी हद तक होमरूल लीग आंदोलन का परिणाम थे।
- तिलक एवं एनी बेसेंट के प्रयासों से कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन . (1916) में नरम दल एवं गरम दल के राष्ट्रवादियों के मध्य समझौता होने में सहायता मिली। लीग के नेताओं का यह योगदान राष्ट्रीय आंदोलन की प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित हुआ।
- संगठनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो इस. आंदोलन ने पहली बार अखिल भारतीय आंदोलन के लिये स्थानीय कमेटियों की महत्ता को प्रतिस्थापित किया। इसके पूर्व स्वदेशी आंदोलन के दिनों में सिर्फ बंगाल में ही स्थानीय कमेटियाँ स्थापित की गईं थीं।
- होमरूल लीग आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा व नया आयाम प्रदान किया।
नोटः
- जून 1917 में होमरूल लीग के मख्य नेताओं- एनी बेसेंट, जॉर्ज अरंडेल, वी.पी. वाडिया को गिरफ्तार कर लिया।
- इसके विरोध में सुब्रह्मण्यम अय्यर ने ‘सर की उपाधि’ वापस कर दी।
- ऑल इंडिया होमरूल लीग ने 1920 में अपना नाम परिवर्तित कर ‘स्वराज्य सभा’ रख लिया था।
लखनऊ समझौता/ ‘कॉन्ग्रेस लीग योजना’ (1916)
- 1916 में लखनऊ में हुए कॉन्ग्रेस के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्ष- अंबिका चरण मजूमदार
- यह सम्मेलन दो घटनाओं की दृष्टि से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण रहा।
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- उग्रवादियों की 9 वर्ष उपरांत कॉन्ग्रेस में पुनः वापसी
- 1907 के सूरत अधिवेशन में कॉन्ग्रेस से निष्कासित
- कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच ‘लखनऊ समझौता‘।
- उग्रवादियों की 9 वर्ष उपरांत कॉन्ग्रेस में पुनः वापसी
- कॉन्ग्रेस ने मुस्लिमों की पृथक् सांप्रदायिक निर्वाचन मंडल की मांग को स्वीकार कर लिया।
- लखनऊ समझौते के अंतर्गत उन्नीस स्मरण पत्र (Nineteen Memorandum) में ब्रिटिश सरकार मांग की गई।
- अविलंब स्वशासन प्रदान करने की
- प्रांतीय विधान परिषदों में भारतीयों की संख्या बढ़ाया जाये
- वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् में आधे से ज्यादा भारतीय सदस्यों को शामिल करने की
- असहयोग आंदोलन के स्थगन के साथ ही लखनऊ समझौता भंग हो गया।
- मदन मोहन मालवीय ने कॉन्ग्रेस व लीग के मध्य होने वाले इस समझौते का विरोध किया था।