अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts)
- राज्य की न्यायपालिका में उच्च न्यायालय के अधीन अधीनस्थ न्यायालय होते हैं, जिन्हें निम्न न्यायालयों के नाम से भी जाना जाता है।
- ये उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार जिला और निम्न स्तरों पर कार्य करते हैं।
संवैधानिक उपबंध
- संविधान के भाग VI में अनुच्छेद 233 से 237 तक इन न्यायालयों के संगठन के बारे में वर्णन किया गया है।
1. जिला न्यायाधीश की नियुक्ति
- जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापना एवं पदोन्नति राज्यपाल द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है।
- वह व्यक्ति जिसे जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाता है, उसमें निम्न योग्यतायें होनी चाहिये:
- (क) वह केंद्र या राज्य सरकार में किसी सरकारी सेवा में कार्यरत न हो।
- (ख) उसे कम से कम सात वर्ष का अधिवक्ता का अनुभव हो।
- (ग) उच्च न्यायालय ने उसकी नियुक्ति की सिफारिश की हो।
2. अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति
- राज्यपाल, जिला न्यायाधीश से भिन्न व्यक्ति को भी न्यायिक सेवा में नियुक्त कर सकता है किन्तु वैसे व्यक्ति को, राज्य लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय के परामर्श के बाद ही नियुक्त किया जा सकता है।
3. अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण
- जिला न्यायालयों एवं अन्य न्यायालयों में न्यायिक सेवा से संबद्ध व्यक्ति की पदस्थापना, पदोन्नति एवं अन्य मामलों पर नियंत्रण का अधिकार राज्य के उच्च न्यायालय को होता है।
सरंचना एवं अधिकार क्षेत्र
- उच्च न्यायालय से नीचे के दीवानी एवं फौजदारी न्यायालयों के तीन स्तर होते हैं। इन्हें नीचे दर्शाया गया है:
- जिला एवं सत्र न्यायाधीश का न्यायालय
- (दीवानी पक्ष)
- (फौजदारी पक्ष)
- मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय
- मुंसिफ अदालत का न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय
- जिला न्यायाधीश, जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है। उसे सिविल और अपराधिक मामलों में मूल और अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
- दीवानी मामलों की सुनवाई-जिला न्यायाधीश करता है
- फौजदारी मामलों की सुनवाई – सत्र न्यायाधीश कहा जाता है।
- जिला न्यायाधीश के पास न्यायिक एवं प्रशासनिक दोनों प्रकार की शक्तियां होती हैं।
- उसके पास जिले के अन्य सभी अधीनस्थ न्यायालयों का निरीक्षण करने की शक्ति भी होती है।
- उसके फैसले के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
- जिला न्यायाधीश को किसी अपराधी को उम्रकैद से लेकर मृत्युदंड देने तक का अधिकार होता है।
- उसके द्वारा दिये गये मृत्युदंड पर तभी अमल किया जाता है, जब राज्य का उच्च न्यायालय उसका अनुमोदन कर दे।
जिला एवं सत्र न्यायाधीश से नीचे की अदालते
- दीवानी मामलों के लिये -अधीनस्थ न्यायाधीश का न्यायालय होता है।
- फौजदारी मामलों के लिये -मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय होता है।
- मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी फौजदारी मामले की सुनवाई करता है तथा सात वर्ष तक के कारावास की सजा दे सकता है।
सबसे निचले स्तर की अदालते
- दीवानी मामलों के लिये – मुंसिफ न्यायाधीश का न्यायालय होता है।
- फौजदारी मामलों के लिये – सत्र न्यायाधीश का न्यायालय होता है।
- सत्र न्यायाधीश ऐसे फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है, जिसमें तीन वर्ष के कारावास की सजा दी जा सकती है।
कुछ महानगरों में
दीवानी मामलों के लिये – नगर सिविल न्यायालय होता है।
फौजदारी मामलों के लिय – महानगर न्यायाधीश का न्यायालय होता है।
- कुछ राज्यों में पंचायत न्यायालय भी छोटे दीवानी ए फौजदारी मामलों की सुनवाई करते हैं।
- इन्हें कई नामा जाना जाता है, जैसे-न्याय पंचायत, ग्राम कचहरी, अदा पंचायत, पंचायत अदालत आदि।
राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority )
- अनुच्छेद 39A-भारत के संविधान का अनुच्छेद 39A समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता का प्रावधान करता है और सबके लिए न्याय सुनिश्चित करता है।
- अनुच्छेद 14 एवं 22(1)– संविधान का अनुच्छेद 14 एवं 22(1) राज्य के लिए यह बाध्यकारी बनाता है कि वह कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित करने के साथ ही एक ऐसी कानूनी प्रणाली स्थापित करे जो सबके लिए समान अवसर के आधार पर न्याय का संवर्धन करे।
- 1987 में काननी सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 संसद द्वारा अधिनियमित किया गया, जो कि 9 नवंबर, 1995 से लागू हुआ
- अवसर की समानता के आधार पर समाज के कमजोर वर्गों को मुफ्त कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए
लोक अदालत
- लोक अदालत एक मंच (फोरम) है जहां वे मामले जो न्यायालय में लंबित हैं अथवा अभी मुकदमे के रूप में दाखिल नहीं हुए हैं (यानी न्यायालय के समक्ष अभी नहीं लाए गए हैं), सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाए जाते हैं, यानी दोनों पक्षों के बीच विवाद का समाधान लोक अदालतों में कराया जाता है।
- स्वतंत्र भारत का पहला लोक अदालत शिविर 1982 में गुजरात में आयोजित किया गया था।
स्थाई लोक अदालतें
- कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 को 2012 में संशोधित कर सार्वजनिक उपयोगी सेवाओं से जुड़े मामलों के लिए स्थाई लोक अदालतों का प्रावधान किया गया।
परिवार न्यायालय
- परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984 विवाह एवं पारिवारिक मामलों से सम्बन्धित विवादों में मध्यस्थता व बातचीत को प्रोत्साहित करने एवं त्वरित समाधान सुनिश्चित करने के लिए अधिनियमित किया गया।
- यह राज्य सरकारों द्वारा उच्च न्यायालय की सहमति से परिवार न्यायालय की स्थापना का प्रावधान करता है
- यह राज्य सरकारों के लिए एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर में एक परिवार न्यायालय की स्थापना को प्राधिकारी बनाता है
ग्राम न्यायालय
- ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 को निचले स्तर पर यानी तृणमूल स्तर पर ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए अधि नियमित किया गया है।