भारत में औद्योगिक विकास और आर्थिक सुधार: औद्योगिक नीति में मुख्य परिवर्तन एवं उनका प्रभाव

स्वतंत्रता के बाद से ही भारत के औद्योगिक विकास का मार्ग उसकी औद्योगिक नीतियों द्वारा निर्धारित किया गया है। 1991 के आर्थिक सुधारों ने इस मार्ग में एक निर्णायक मोड़ लिया, जिससे देश की अर्थव्यवस्था का ढांचा मूलभूत रूप से बदल गया। यह टिप्पणी औद्योगिक नीति में हुए मुख्य परिवर्तनों और उनके औद्योगिक विकास पर पड़े प्रभाव का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है।

प्रथम चरण: समाजवादी झुकाव की नीतियाँ (1948-1990)

इस चरण की नीतियाँ मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल और ‘अनुज्ञप्ति-परमिट राज’ (Licence-Permit Raj) पर केंद्रित थीं।

    • औद्योगिक नीति संकल्प, 1948: इसने सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लिए उद्योगों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया।

    • औद्योगिक नीति संकल्प, 1956: यह नीति समाजवादी पैटर्न पर आधारित थी। इसने उद्योगों को तीन श्रेणियों में बांटा: श्रेणी A: सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित 17 उद्योग (जैसे रक्षा, परमाणु ऊर्जा, लौह इस्पात)। श्रेणी B: 12 उद्योग, जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र प्रमुख होगा लेकिन निजी क्षेत्र को भी सहायक के रूप में अनुमति थी। श्रेणी C: शेष सभी उद्योग, जो निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिए गए।

    • MRTP अधिनियम, 1969: एकाधिकारी और संपत्ति-संकेंद्रण (concentration of economic power) पर अंकुश लगाने के लिए बनाया गया।

प्रभाव:

    • सकारात्मक: भारी उद्योगों (जैसे BHEL, SAIL) की स्थापना, औद्योगिक आधार का निर्माण, आत्मनिर्भरता की भावना।

    • नकारात्मक: नौकरशाही की जटिलताएँ, उद्यमशीलता का दमन, प्रतिस्पर्धा का अभाव, निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद, विदेशी निवेश की कमी, धीमी विकास दर (‘हिंदू विकास दर’)।

द्वितीय चरण: उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) का युग (1991 और उसके बाद)

1991 के भुगतान संतुलन (BoP) के गंभीर संकट ने व्यापक आर्थिक सुधारों की नींव रखी। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नई औद्योगिक नीति (NIP), 1991 घोषित की गई।

मुख्य परिवर्तन:

    • अनुज्ञप्ति-परमिट राज का अंत: अधिकांश उद्योगों के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त।

    • विदेशी निवेश पर से प्रतिबंधों में ढील: स्वचालित मार्ग (Automatic Route) से FDI की अनुमति, विदेशी प्रौद्योगिकी समझौतों को प्रोत्साहन।

    • सार्वजनिक क्षेत्र का संकुचन: सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की संख्या 17 से घटाकर 8 (बाद में और कम) कर दी गई। निजीकरण (Disinvestment) की शुरुआत।

    • MRTP अधिनियम में सुधार: एकाधिकार विरोधी नीतियों को प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।

    • विदेश व्यापार उदारीकरण: आयात शुल्क (Import Duties) में कमी, मात्रात्मक प्रतिबंध (Quantitative Restrictions) हटाए गए।

    • वित्तीय क्षेत्र सुधार: बैंकिंग और पूंजी बाजारों का उदारीकरण।

प्रभाव:

    • सकारात्मक: तेज विकास दर: GDP विकास दर में उल्लेखनीय वृद्धि। FDI और FII का प्रवाह: विदेशी पूंजी निवेश में भारी वृद्धि। प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता कल्याण: उत्पादों की गुणवत्ता और variety में सुधार, कीमतों पर नियंत्रण। नवाचार और दक्षता: प्रौद्योगिकी अपग्रेडेशन और उत्पादकता में वृद्धि। वैश्विक एकीकरण: भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग बना। स्टार्ट-अप और उद्यमशीलता का उदय: नए व्यवसायों के लिए अनुकूल माहौल।

    • नकारात्मक/चुनौतियाँ: क्षेत्रीय असमानता: विकास कुछ क्षेत्रों (जैसे महानगर) और क्षेत्रों (जैसे सेवा क्षेत्र) तक केंद्रित। कृषि की उपेक्षा: औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के मुकाबले कृषि क्षेत्र पिछड़ता रहा। रोजगार में अनियमितता: सेवा क्षेत्र में रोजगार बढ़ा, लेकिन विनिर्माण क्षेत्र (जो अधिक रोजगार देता) का अपेक्षित विकास नहीं हुआ (‘जॉबलेस ग्रोथ’ की चिंता)। आय असमानता: समाज में आर्थिक असमानता बढ़ी। पर्यावरणीय क्षरण: तीव्र औद्योगीकरण के कारण पर्यावरण पर दबाव।

हाल के पहलू और भविष्य की दिशा

    • मेक इन इंडिया (2014): भारत को वैश्विक विनिर्माण हब बनाने की पहल।

    • स्टार्ट-अप इंडिया और स्टैंड-अप इंडिया: उद्यमशीलता और नवाचार को बढ़ावा।

    • उत्पादन संबंधित प्रोत्साहन (PLI) योजना: निर्माताओं को Incentive देकर घरेलू और निर्यात-उन्मुख उत्पादन को बढ़ावा देना।

    • ईज ऑफ डूइंग बिजनेस: नियामक प्रक्रियाओं को सरल बनाने पर जोर।

    • एम्स फॉर माइक्रो, स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज (MSMEs): छोटे और मध्यम उद्यमों को सशक्त बनाना।

निष्कर्ष

1991 के आर्थिक सुधार भारतीय औद्योगिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुए हैं। इन्होंने एक संरक्षित, अवरुद्ध अर्थव्यवस्था को एक गतिशील, प्रतिस्पर्धी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में बदल दिया। हालाँकि, इसने नई चुनौतियाँ भी पैदा की हैं, जैसे कि असमानता, पर्यावरणीय चिंताएँ और संतुलित क्षेत्रीय विकास की आवश्यकता। भविष्य का मार्ग एक समावेशी और टिकाऊ औद्योगिक विकास मॉडल अपनाने में निहित है, जो ‘आत्मनिर्भर भारत’ (Self-Reliant India) की दृष्टि से प्रेरित हो और साथ ही वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में एकीकृत रहे।

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME) क्षेत्र: समस्याएँ एवं चुनौतियाँ

भारतीय अर्थव्यवस्था में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME) क्षेत्र को रोजगार सृजन, निर्यात प्रोत्साहन और आर्थिक विकास के लिए एक प्रमुख स्तंभ माना जाता है। यह क्षेत्र ‘भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़’ है। हालाँकि, यह क्षेत्र अपने संचालन और विकास के पथ पर अनेक गंभीर समस्याओं का सामना करता है:

  • वित्तीय पहुँच की कमी: MSMEs के सामने सबसे बड़ी बाधा पर्याप्त और सस्ती दरों पर ऋण उपलब्धता का अभाव है। जोखिम प्रोफाइल उच्च होने और संपार्श्विक (Collateral) की कमी के कारण बैंक अक्सर इन्हें ऋण देने में हिचकिचाते हैं।
  • अनौपचारिकता और विनियामक दबाव: बड़ी संख्या में MSME अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, जिसके कारण उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। साथ ही, कई तरह के सरकारी नियमों और कर अनुपालन का दबाव इन छोटे उद्यमों के लिए बोझिल साबित होता है।
  • अवसंरचनात्मक चुनौतियाँ: बिजली, पानी, परिवहन और डिजिटल कनेक्टिविटी जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच का अभाव इनकी उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित करता है।
  • प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन: अधिकांश MSMEs पारंपरिक तकनीकों पर निर्भर हैं, जिसके कारण उनकी दक्षता और उत्पाद की गुणवत्ता वैश्विक मानकों पर खरी नहीं उतर पाती। आधुनिक तकनीकों में निवेश की सीमित क्षमता एक प्रमुख चुनौती है।
  • बाजार पहुँच और विपणन: बड़े बाजारों और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से जुड़ने में इन उद्यमों को कठिनाई होती है। ब्रांडिंग और मार्केटिंग के सीमित संसाधन इनकी बाजार हिस्सेदारी को सीमित कर देते हैं।
  • कुशल श्रमशक्ति की कमी: प्रशिक्षित और कुशल कामगारों का पलायन बड़े उद्योगों की ओर होता है, जिससे MSMEs को सही प्रतिभा नहीं मिल पाती।

उदारीकरण के बाद के दौर में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (PSUs) की भूमिका में परिवर्तन

1991 के आर्थिक सुधारों से पहले, भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम (Public Sector Undertakings – PSUs) ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ मॉडल के प्रमुख अंग थे। इन्हें “कमांडिंग हाइट्स” (आधारभूत और रणनीतिक उद्योगों पर नियंत्रण) की नीति के तहत प्राथमिकता दी गई थी। 1991 के बाद, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) के नए युग में PSUs की भूमिका में महत्वपूर्ण बदलाव आया:

  • प्रतिस्पर्धी बाजार में खिलाड़ी: PSUs को अब एक संरक्षित वातावरण नहीं मिला। उन्हें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निजी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। इसने उन्हें अधिक दक्षतापूर्ण, लाभप्रद और ग्राहक-केंद्रित बनने के लिए मजबूर किया।
  • आर्थिक स्थिरता का स्तंभ: रणनीतिक क्षेत्रों जैसे ऊर्जा, रक्षा, कोयला और दूरसंचार में PSUs का महत्व बना रहा। उन्होंने देश की ऊर्जा सुरक्षा और अवसंरचना विकास सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • राजस्व सृजन और लाभांश: कई लाभकारी PSUs सरकार के लिए राजस्व का एक स्थिर स्रोत बने हुए हैं, जो वित्तीय समावेशन और सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए धन जुटाने में मदद करते हैं।
  • सामाजिक दायित्वों का निर्वहन: PSUs अब भी दूरदराज के इलाकों में विकासात्मक परियोजनाओं, CSR ( cooperate social responsibility) गतिविधियों और राष्ट्रीय महत्व के प्रोजेक्ट्स को चलाने में अग्रणी हैं।

सार्वजनिक उद्यमों का विनिवेश और निजीकरण: अर्थ, उद्देश्य और बहस

1991 के संकट के बाद, सार्वजनिक उद्यमों में सरकारी हिस्सेदारी की बिक्री (विनिवेश) और उनका पूर्ण निजीकरण सरकार की एक प्रमुख नीति बन गई।

विनिवेश (Disinvestment) और निजीकरण (Privatization) में अंतर:

  • विनिवेश: इसमें सरकार PSUs में अपनी कुछ हिस्सेदारी (शेयर) बेचती है, लेकिन प्रबंधनिक नियंत्रण उसके पास बना रह सकता है। उदाहरण: 5% या 10% शेयरों की बिक्री।
  • निजीकरण: इसमें सरकार PSU में अपनी 51% से अधिक हिस्सेदारी बेच देती है, जिससे प्रबंधन और नियंत्रण पूरी तरह से निजी हाथों में चला जाता है। उदाहरण: VSNL, BALCO, Air India का निजीकरण।

विनिवेश/NITI के प्रमुख उद्देश्य:

  • सरकारी राजस्व बढ़ाना और राजकोषीय घाटे को कम करना।
  • PSUs की दक्षता, पेशेवर प्रबंधन और प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार लाना।
  • आर्थिक गतिविधियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी और निवेश को बढ़ावा देना।
  • सार्वजनिक संसाधनों को केवल रणनीतिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में केंद्रित करना।

विनिवेश नीति पर बहस:

समर्थन में तर्क:

  • निजी प्रबंधन से दक्षता, नवाचार और लाभप्रदता बढ़ती है।
  • सरकार बेचे गए शेयरों से प्राप्त धन को स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों में निवेश कर सकती है।
  • यह बाजार अनुशासन लाता है और भ्रष्टाचार तथा नौकरशाही को कम करता है।

विरोध में तर्क:

  • इससे ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ की कम कीमत पर बिक्री होने और ‘पूंजीपतियों’ को लाभ होने का खतरा रहता है।
  • रोजगार सुरक्षा को खतरा हो सकता है और सेवा शर्तें खराब हो सकती हैं।
  • लाभ का मकसद सामाजिक कल्याण (जैसे ग्रामीण इलाकों में सस्ती बिजली) से ऊपर हो सकता है।
  • रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों (जैसे रक्षा, ऊर्जा) पर विदेशी स्वामित्व की आशंका हो सकती है।

निष्कर्षतः, भारत का आर्थिक सफर MSMEs के विकास, PSUs की बदलती भूमिका और एक संतुलित विनिवेश नीति के बीच तालमेल बिठाने की चुनौती को दर्शाता है। एक मजबूत MSME क्षेत्र उद्यमशीलता को बढ़ावा देता है, जबकि सुशासन और दक्षता पर जोर देने वाली एक सुविचारित विनिवेश नीति PSUs को वैश्विक दिग्गज बनने में मदद कर सकती है, जो भारत को एक $5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य की ओर ले जाती है।

JPSC MAINS PAPER 5/Chapter – 28