पृथ्वी की उत्पत्ति एवं क्रमिक विकास (Origin and Evolution of Earth)
पृथ्वी, सौरमंडल का एकमात्र ग्रह है जहाँ जीवन की उपस्थिति है। इसकी उत्पत्ति एवं विकास की प्रक्रिया अत्यंत जटिल एवं दीर्घकालिक रही है।
उत्पत्ति के प्रमुख सिद्धांत
- नेबुलर परिकल्पना (काण्ट एवं लाप्लास): इस सिद्धांत के अनुसार, सूर्य और ग्रहों की उत्पत्ति एक धीमी गति से घूमने वाली गैसीय बादल (नेबुला) से हुई। शीतलन एवं संकुचन के कारण इसने वलयों का रूप ले लिया, जिनसे ग्रहों का निर्माण हुआ।
- ग्रहाणु सिद्धांत (चेम्बरलेन एवं मोल्टन): इसके अनुसार, एक अन्य तारे के सूर्य के निकट से गुजरने पर उसके गुरुत्वाकर्षण बल के कारण सूर्य से पदार्थ उखड़कर बाहर निकला। इस ‘ग्रहाणु’ पदार्थ के ठंडे होकर संघनित होने से ग्रहों का निर्माण हुआ।
- द्विकांतरित तारा सिद्धांत (जेम्स जीन्स एवं जेफरीज): इसमें भी माना गया कि सूर्य के पास से गुजरने वाले एक विशालकाय तारे के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव के कारण सूर्य से सिगार के आकार का पदार्थ निकला, जिससे ग्रह बने।
- आधुनिक सिद्धांत (हॉयल, ओटो श्मिट): वर्तमान में स्वीकृत सिद्धांत के अनुसार, सौरमंडल की उत्पत्ति एक घूमते हुए गैस एवं धूल के बादल (सौर निहारिका) से हुई। गुरुत्वाकर्षण के कारण इसके केंद्र में संपीडन हुआ जहाँ सूर्य बना और चारों ओर घूमती हुई एक चक्रिका (डिस्क) से संघनन द्वारा ग्रहों का निर्माण हुआ।
पृथ्वी का क्रमिक विकास
प्रारंभ में पृथ्वी एक गर्म, गैसीय एवं चट्टानी पिंड थी। समय के साथ रेडियोसक्रियता के कारण आंतरिक भाग गर्म हुआ और पृथ्वी पिघलकर एक तरल अवस्था में आ गई। भारी पदार्थ (लोहा, निकेल) केंद्र में डूबकर कोर का निर्माण किया और हल्के पदार्थ (सिलिका, एल्युमिनियम) ऊपर आकर क्रस्ट का निर्माण किया। धीरे-धीरे शीतलन के कारण पृथ्वी की सतह ठोस हुई, वायुमंडल का विकास हुआ और जलवाष्प के संघनन से महासागरों का निर्माण हुआ, जिससे जीवन की उत्पत्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनीं।
पृथ्वी का आंतरिक भाग (Earth’s Interior)
पृथ्वी के आंतरिक भाग का सीधा अवलोकन संभव नहीं है। भूकंपीय तरंगों (सीस्मिक वेव्स) के अध्ययन, ज्वालामुखी उद्गार, उल्कापिंडों के विश्लेषण एवं गुरुत्वाकर्षण बल आदि के आधार पर इसकी आंतरिक संरचना के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा गया है:
1. भूपर्पटी (Crust)
- यह पृथ्वी का सबसे बाहरी, ठोस एवं पतला आवरण है।
- महाद्वीपीय भूपर्पटी (सियाल – SiAl: सिलिका एवं एल्युमिनियम) मोटी (लगभग 30-35 किमी, पर्वतों के नीचे 70 किमी तक) लेकिन कम घनत्व वाली है।
- महासागरीय भूपर्पटी (सीमा – SiMa: सिलिका एवं मैग्नीशियम) पतली (लगभग 5-10 किमी) लेकिन अधिक घनत्व वाली है।
- भूपर्पटी और मेंटल के बीच की सीमा को ‘मोहो असंबद्धता’ (Moho Discontinuity) कहते हैं।
2. प्रावार (Mantle)
- क्रस्ट के नीचे कोर तक फैला हुआ भाग है, जो लगभग 2900 किमी मोटा है।
- इसमें आयरन और मैग्नीशियम की प्रधानता है।
- यह अर्ध-तरल (semi-solid, प्लास्टिक जैसी) अवस्था में है, जहाँ संवहन धाराएँ (Convection Currents) प्रवाहित होती हैं। ये धाराएँ ही प्लेट विवर्तनिकी के लिए उत्तरदायी हैं।
- मैंटल के ऊपरी भाग (लगभग 100-200 किमी) को, जो भूपर्पटी के साथ मिलकर स्थलमंडल (Lithosphere) बनाता है, और निचले भाग को दुर्बलता मंडल (Asthenosphere) कहते हैं।
3. क्रोड (Core)
- पृथ्वी का सबसे आंतरिक भाग, लोहे और निकेल (निफे – NiFe) से बना है।
- बाह्य क्रोड (Outer Core) तरल अवस्था में है और यही पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के लिए उत्तरदायी है।
- आंतरिक क्रोड (Inner Core) ठोस अवस्था में है, जिसका कारण अत्यधिक दबाव है।
- मैंटल और कोर के बीच की सीमा को ‘गुटेनबर्ग असंबद्धता’ (Gutenberg Discontinuity) कहा जाता है।
वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Wegener’s Continental Drift Theory)
जर्मन भू-वैज्ञानिक अल्फ्रेड वेगनर ने 1912 में अपनी पुस्तक ‘The Origin of Continents and Oceans‘ में इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
मुख्य बिंदु:
- महाद्वीपों का एकीकृत रूप: कार्बोनिफेरस युग (लगभग 30 करोड़ वर्ष पूर्व) में पृथ्वी के सभी महाद्वीप एक विशालकाय सुपरकॉन्टिनेंट ‘पैंजिया’ (Pangea) के रूप में जुड़े हुए थे, जो चारों ओर से ‘पैंथालासा’ महासागर से घिरा हुआ था।
- विस्थापन: बाद में पैंजिया दो भागों में टूट गया: उत्तरी भाग लॉरेशिया (उत्तरी अमेरिका, यूरोप, एशिया) और दक्षिणी भाग गोंडवानालैंड (दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, भारत, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका)।
- विस्थापन का कारण: वेगनर ने महाद्वीपों के खिसकने का कारण ध्रुवांतरण बल (Polar Fleeing Force) और ज्वारीय बल (Tidal Force) बताया।
साक्ष्य:
- जिग-सॉ like फिट: दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के तट रेखाओं का मिलान।
- भू-वैज्ञानिक समानता: दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के पर्वतों (कैलेडोनियन एवं एप्पेलेशियन) की चट्टानों की आयु एवं संरचना में समानता।
- जीवाश्मिक साक्ष्य: मेसोसॉरस (सरीसृप) के जीवाश्म केवल दक्षिणी ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में मिलते हैं। ग्लॉसोप्टेरिस (फर्न) के जीवाश्म भारत, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि में मिलते हैं।
- पुरा-जलवायविक साक्ष्य: अंटार्कटिका में कोयले के भंडार, जो गर्म एवं आर्द्र जलवायु में बनते हैं, यह सिद्ध करते हैं कि यह महाद्वीप कभी विषुवत रेखा के पास था।
सीमाएँ:
- वेगनर महाद्वीपों के विस्थापन के लिए उत्तरदायी बलों की सही व्याख्या नहीं कर सका। ज्वारीय बल और ध्रुवांतरण बल इतने दुर्बल हैं कि विशालकाय महाद्वीपों को हिलाने में असमर्थ हैं।
- उसने महासागरीय भूपर्पटी की भूमिका की उपेक्षा की।
इन सीमाओं के बावजूद, वेगनर का सिद्धांत आधुनिक प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत की नींव रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत (Plate Tectonics Theory)
1960 के दशक में प्रस्तुत यह सिद्धांत वेगनर के सिद्धांत की कमियों को दूर करता है। यह सिद्धांत बताता है कि पृथ्वी की स्थलमंडलीय प्लेटें (Lithospheric Plates) गतिशील हैं और इनकी गति का कारण मैंटल में संवहन धाराएँ (Convection Currents) हैं।
प्लेटों की सीमाएँ एवं उनसे संबंधित भू-आकृतियाँ:
- अभिसारी सीमा (Convergent Boundary): जब दो प्लेटें एक-दूसरे की ओर गति करती हैं और टकराती हैं।
- विषमदेशीय अभिसरण (Oceanic-Continental): भारी महासागरीय प्लेट हल्की महाद्वीपीय प्लेट के नीचे धँस जाती है (अधःशीलन – Subduction)। इससे गहरी समुद्री खाइयाँ, पर्वत श्रृंखलाएँ एवं ज्वालामुखी बनते हैं। उदाहरण: एंडीज पर्वत, पेरू-चिली खाई।
- समदेशीय अभिसरण (Continental-Continental): दोनों हल्की प्लेटें टकराकर मोड़दार पर्वतों का निर्माण करती हैं। उदाहरण: हिमालय पर्वत (भारतीय और यूरेशियन प्लेट का टकराव)।
- महासागरीय-महासागरीय अभिसरण (Oceanic-Oceanic): एक प्लेट दूसरे के नीचे धँसती है, जिससे द्वीप चाप (Island Arcs) एवं खाइयाँ बनती हैं। उदाहरण: जापान द्वीप, फिलिपींस द्वीप समूह।
- अपसारी सीमा (Divergent Boundary): जब दो प्लेटें एक-दूससे से दूर हटती हैं। इससे मैग्मा ऊपर उठता है और नई भूपर्पटी का निर्माण होता है। उदाहरण: मध्य-अटलांटिक कटक, जहाँ अमेरिकन और यूरेशियन/अफ्रीकन प्लेटें अलग हो रही हैं।
- रूपांतर सीमा (Transform Boundary): जब दो प्लेटें एक-दूसरे के सापेक्ष क्षैतिज रूप से फिसलती हैं। इनमें न तो निर्माण होता है और न ही विनाश, लेकिन भूकंप अवश्य आते हैं। उदाहरण: सैन एंड्रियास फॉल्ट (उत्तरी अमेरिकी और प्रशांत प्लेट), अल्पाइन फॉल्ट (न्यूजीलैंड)।
ज्वालामुखी (Volcanoes)
पृथ्वी की सतह पर वह छिद्र या दरार जिससे होकर गर्म मैग्मा, गैसें, राख एवं अन्य पदार्थ बाहर निकलते हैं, ज्वालामुखी कहलाता है।
प्रकार:
- सक्रिय ज्वालामुखी (Active): जो नियमित रूप से फटते रहते हैं। उदा.: माउंट एटना (इटली), स्ट्रॉम्बोली (इटली), किलाउए (हवाई)।
- प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant): जो लंबे समय से शांत हैं लेकिन भविष्य में फट सकते हैं। उदा.: माउंट फ़ूजी (जापान), माउंट किलिमंजारो (तंजानिया)।
- मृत ज्वालामुखी (Extinct): जिनके फटने की कोई संभावना नहीं है। उदा.: डेविल्स टावर (USA), महाबलेश्वर (भारत)।
वितरण:
- परिप्रशांत मेखला (Ring of Fire): प्रशांत महासागर के चारों ओर का क्षेत्र, जहाँ विश्व के लगभग 2/3 ज्वालामुखी स्थित हैं। यह अभिसारी प्लेट सीमाओं पर स्थित है।
- मध्य-महासागरीय कटक: अटलांटिक महासागर में अपसारी सीमा पर।
- महाद्वीपीय रिफ्ट घाटियाँ: जैसे पूर्वी अफ्रीका की रिफ्ट घाटी।
- हॉटस्पॉट: प्लेटों के आंतरिक भाग में स्थित, जहाँ मैंटल में गहराई से मैग्मा ऊपर उठता है। उदा.: हवाई द्वीप।
भूकंप (Earthquakes)
पृथ्वी की सतह का अचानक कंपन या हिलना भूकंप कहलाता है। यह पृथ्वी के भीतर चट्टानों के अचानक टूटने और उर्जा के मुक्त होने के कारण आता है।
मुख्य शब्दावली:
- उद्गम केंद्र (Focus): पृथ्वी के आंतरिक भाग में वह स्थान जहाँ भूकंप की उत्पत्ति होती है।
- अधिकेंद्र (Epicenter): उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर पृथ्वी की सतह पर स्थित बिंदु। यहाँ सबसे अधिक तीव्रता का कंपन होता है।
- भूकंपीय तरंगें (Seismic Waves): उद्गम केंद्र से निकलने वाली ऊर्जा तरंगों के रूप में फैलती है। P (प्राथमिक), S (द्वितीयक) और L (धरातलीय) तरंगें मुख्य हैं।
- रिक्टर पैमाना: भूकंप की तीव्रता मापने का पैमाना। यह लघुगणकीय है, अर्थात 1 अंक की वृद्धि का मतलब है तरंगों का आयाम 10 गुना बढ़ना और ऊर्जा में लगभग 32 गुना वृद्धि।
कारण:
- विवर्तनिक भूकंप: प्लेटों की गति के कारण, सबसे अधिक विनाशकारी। (भारत में अधिकांश भूकंप इसी श्रेणी में आते हैं)
- ज्वालामुखीय भूकंप: ज्वालामुखी उद्गार से संबंधित।
- भारमुक्ति भूकंप (Isostatic): पृथ्वी की सतह पर भार में असंतुलन के कारण।
- मानवजनित भूकंप: बड़े बांधों के निर्माण, खनन आदि के कारण।
भारत में भूकंपीय क्षेत्र:
- जोन-V (अत्यधिक खतरा): अंडमान-निकोबार, कश्मीर, उत्तराखंड का कुछ भाग, उत्तरी बिहार।
- जोन-IV (उच्च खतरा): दिल्ली, जम्मू, सिक्किम, उत्तरी UP, गुजरात का कच्छ क्षेत्र।
- जोन-III (मध्यम खतरा): मध्य भारत, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान।
- जोन-II (कम खतरा): प्रायद्वीपीय भारत का स्थिर भाग।
सुनामी (Tsunami)
सुनामी जापानी शब्द है (Tsu = बंदरगाह, Nami = लहर)। ये लंबी तरंगदैर्ध्य वाली विशाल समुद्री लहरें हैं, जो महासागर के तल में हलचल (जैसे भूकंप, ज्वालामुखी, भूस्खलन) के कारण उत्पन्न होती हैं।
निर्माण तंत्र:
जब समुद्र तल में अधिकेंद्र के साथ उथला भूकंप ( shallow focus earthquake) आता है, तो यह समुद्र तल को अचानक ऊपर-नीचे कर देता है। इससे ऊपर के जलस्तंभ में असंतुलन पैदा होता है और ऊर्जा तरंगों के रूप में सभी दिशाओं में फैल जाती है। खुले समुद्र में इनकी ऊँचाई कम (लगभग 1 मीटर) लेकिन गति बहुत अधिक (500-800 km/h) होती है। जैसे ही ये लहरें तट के उथले पानी की ओर आती हैं, इनकी गति कम हो जाती है लेकिन ऊर्जा संरक्षित रहने के कारण इनकी ऊँचाई बहुत अधिक (10-30 मीटर तक) हो जाती है, जो तटीय क्षेत्रों में भारी विनाश करती है।
2004 की सुनामी:
26 दिसंबर 2004 को इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप के तट पर 9.1 की तीव्रता के भूकंप के कारण आई सुनामी ने हिंद महासागर के तटीय देशों (इंडोनेशिया, श्रीलंका, भारत, थाईलैंड) में भारी तबाही मचाई। भारत में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुए। इसी घटना के बाद भारत में आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 बना और इंडियन ओशन सुनामी वार्निंग सिस्टम (IOTWMS) की स्थापना की गई।