भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ (Geomorphic Processes)

पृथ्वी की सतह पर विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियाँ (Landforms) पायी जाती हैं, जैसे- पर्वत, पठार, मैदान, घाटियाँ, रेगिस्तान आदि। इन स्थलाकृतियों का निर्माण एवं विकास विभिन्न प्रकार की शक्तियों द्वारा होता है, जिन्हें भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ कहा जाता है। ये प्रक्रियाएँ दो प्रकार की शक्तियों से उत्पन्न होती हैं:

    • अंतर्जात शक्तियाँ (Endogenic Forces): ये पृथ्वी के आंतरिक भाग से उत्पन्न होती हैं, जैसे- ज्वालामुखी, भूसंचलन, भ्रंशन, वलन आदि। ये शक्तियाँ स्थलाकृतियों का निर्माण करती हैं।

    • बहिर्जात शक्तियाँ (Exogenic Forces): ये शक्तियाँ पृथ्वी के बाह्य भाग (सौर्य ऊर्जा, गुरुत्वाकर्षण) से प्राप्त होती हैं। इनका कार्य अंतर्जात शक्तियों द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का विघटन (Denudation) एवं पुनर्निर्माण करना है। विघटन की यह प्रक्रिया मुख्यतः तीन चरणों में पूरी होती है: अपक्षयण, परिवहन और निक्षेपण

1. अपक्षयण (Weathering)

अपक्षयण वह प्रक्रिया है जिसमें चट्टानें अपने स्थान पर ही यांत्रिक, रासायनिक या जैविक विधियों द्वारा टूटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में परिवर्तित हो जाती हैं, लेकिन उनका स्थानान्तरण नहीं होता। यह क्षरण (Erosion) से पहले की प्रक्रिया है।

अपक्षयण के प्रकार:

    1. यांत्रिक या भौतिक अपक्षयण (Mechanical or Physical Weathering):
        • तापीय प्रसार एवं संकुचन (Thermal Expansion & Contraction): दैनिक तापान्तर के कारण चट्टानों के खनिजों का लगातार प्रसार एवं संकुचन होता रहता है, जिससे चट्टानों में दरारें पड़ जाती हैं और वे टूट जाती हैं। (उदाहरण: शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्र)
        • हिम का विवर्तनिक दबाव (Frost Action): चट्टानों की दरारों में जमा हुआ जल जमकर बर्फ में परिवर्तित हो जाता है। जमने पर जल का आयतन बढ़ जाता है, जिससे दरारों पर प्रसार का दबाव पड़ता है और चट्टानें टूट जाती हैं। (उदाहरण: उच्च पर्वतीय क्षेत्र)
        • लवणों का क्रिस्टलीकरण (Crystallization of Salts): चट्टानों की दरारों में रिसकर आया खारा पानी सूख जाता है और लवण क्रिस्टल के रूप में जमा हो जाते हैं। इन क्रिस्टलों के दबाव से चट्टानें टूटने लगती हैं। (उदाहरण: तटीय क्षेत्र)
        • शैल विश्लेषण (Exfoliation): चट्टानों के ऊपरी स्तर के लगातार प्रसार और संकुचन के कारण, वे प्याज के छिलके की तरह परत-दर-परत उतरने लगती हैं। इससे गुंबदाकार चट्टानों (Dome Hills) का निर्माण होता है।

    1. रासायनिक अपक्षयण (Chemical Weathering): इस प्रक्रिया में चट्टानों का रासायनिक संगठन बदल जाता है। यह प्रक्रिया आर्द्र एवं उष्ण क्षेत्रों में अधिक सक्रिय होती है।
        • ऑक्सीकरण (Oxidation): ऑक्सीजन और जल की उपस्थिति में चट्टानों में उपस्थित लोहा जंगयुक्त (Rust) हो जाता है, जिससे चट्टान नर्म पड़कर टूट जाती है।
        • जलयोजन (Hydration): चट्टानों के खनिज जल को अवशोषित करके अपना आयतन बढ़ा लेते हैं, जिससे चट्टानों में दबाव उत्पन्न होता है और वे टूट जाती हैं।
        • कार्बोनेशन (Carbonation): वर्षा के जल में घुली CO2 कमजोर कार्बोनिक अम्ल (H2CO3) बनाती है। यह अम्ल चूना-पत्थर, संगमरमर जैसी चट्टानों को घोल देता है, जिससे कार्स्ट स्थलाकृति (गुफाएँ, स्टैलेक्टाइट, स्टैलेग्माइट) का निर्माण होता है।
        • अपघटन (Solution): कुछ चट्टानें (जैसे रॉक साल्ट, जिप्सम) सीधे पानी में घुल जाती हैं।

    1. जैविक अपक्षयण (Biological Weathering): पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं एवं मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाला अपक्षयण।
        • पेड़ों की जड़ें चट्टानों की दरारों में घुसकर उन्हें तोड़ देती हैं।
        • कीड़े-मकोड़े, चूहे, बिच्छू आदि भूमि को खोदकर अपक्षयण में सहायता करते हैं।
        • मानव की खनन, निर्माण, विस्फोट आदि गतिविधियाँ चट्टानों को तोड़ती हैं।

2. क्षरण (Erosion) एवं अपरदन (Abrasion/Corrasion)

अपक्षयण द्वारा टूटी हुई चट्टानों के टुकड़ों को हटाने की क्रिया को क्षरण (Erosion) कहते हैं। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जिसमें हवा, बहता हुआ जल, हिमनद, समुद्री लहरें आदि कारक काम करते हैं।

अपरदन (Abrasion/Corrasion):

अपरदन, क्षरण की एक विशिष्ट विधि है। इसमें हवा, जल या बर्फ द्वारा बहाकर लाये गए चट्टानी कण/टुकड़े, स्वयं अपने मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों से टकराकर उन्हें घिसते और छीलते हैं। यह एक ‘सैंडपेपर’ की तरह काम करती है।

    • नदी अपरदन से गॉर्ज, कैन्यन, विसर्प, ऑक्सबो झील आदि का निर्माण।

    • हवा का अपरदन से यारडांग, ज्युगेन, इन्सेलबर्ग आदि का निर्माण।

    • हिमनद अपरदन से यू-आकार की घाटी, सर्क, अरेट्स, फ्जॉर्ड आदि का निर्मान।

    • समुद्री तरंगों का अपरदन से समुद्री तट, स्टैक, स्टम्प, गुफाएँ आदि का निर्माण।

3. निक्षेपण (Deposition)

जब क्षरण करने वाले एजेंट (नदी, हवा, हिमनद) की ऊर्जा कम हो जाती है, तो वह अपने साथ लाए हुए पदार्थों (गाद, बजरी, रेत आदि) को जमा कर देता है। इस प्रक्रिया को निक्षेपण कहते हैं। यह क्षरण की विपरीत प्रक्रिया है।

    • नदी द्वारा निक्षेपण: डेल्टा, बाढ़ के मैदान, प्राकृतिक तटबंध, विसर्प-अवरोधी झीलें।

    • हवा द्वारा निक्षेपण: बालुका-स्तूप (Sand Dunes), लोएस के मैदान।

    • हिमनद द्वारा निक्षेपण: मोरेन, एस्कर, ड्रमलिन, आउटवाश प्लेन।

    • समुद्री तरंगों द्वारा निक्षेपण: बीच, स्पिट, बार, लैगून।

4. मृदा निर्माण (Pedogenesis)

मृदा निर्माण एक जटिल जैव-भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया है। अपक्षयण द्वारा टूटी हुई चट्टानों के छोटे-छोटे कणों (मूल पदार्थ) में जैविक पदार्थों (जीवांश), जल, वायु और सूक्ष्मजीवों के मिश्रण से मृदा का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया में जलवायु, जैविक कारक, मूल पदार्थ, स्थलाकृति और समय प्रमुख नियंत्रक कारक हैं।

5. भू-चक्र (Geomorphic Cycle) या भू-आकृतिक चक्र

भू-चक्र या ‘स्थलाकृतिक विकास का चक्र’ एक सैद्धांतिक मॉडल है जो यह बताता है कि किस प्रकार एक स्थलाकृति समय के साथ अपनी आकृति बदलती है। यह मानता है कि स्थलाकृतियाँ एक जन्म, परिपक्वता और वृद्धावस्था के चक्र से गुजरती हैं। इस सिद्धांत के प्रमुख प्रतिपादक विलियम मॉरिस डेविस थे।

6. डेविस एवं पेंक के विचार

(क) डेविस का ‘भू-आकृतिक चक्र’ सिद्धांत (Geographical Cycle of Davis)

डेविस ने अपना सिद्धांत 1899 में प्रस्तुत किया। उन्होंने नदी घाटी के विकास को आधार बनाया। उनके अनुसार, स्थलाकृतिक विकास तीन कारकों पर निर्भर करता है: संरचना (Structure), प्रक्रिया (Process) और अवस्था (Stage) (समय)।

    1. युवावस्था (Youthful Stage):
        • भू-भाग में अचानक उत्थान होता है।
        • नदियाँ तीव्र गति से V-आकार की गहरी घाटियाँ बनाती हैं।
        • अपवाह प्रणाली का विकास होना शुरू होता है।
        • जल-विभाजक चौड़े और सपाट होते हैं।

    1. परिपक्वावस्था (Mature Stage):
        • नदियों की गति धीमी हो जाती है, पार्श्व अपरदन बढ़ जाता है।
        • घाटियाँ चौड़ी हो जाती हैं, नदी विसर्प (Meanders) बनाने लगती है।
        • जल-विभाजक संकीर्ण और तीक्ष्ण हो जाते हैं।
        • विशाल और परिपक्व भू-दृश्य दिखाई देता है।

    1. वृद्धावस्था (Old Stage):
        • अपरदन के कारण भू-भाग लगभग समतल हो जाता है, जिसे अपरदन का समप्राय मैदान (Peneplain) कहते हैं।
        • नदियाँ अत्यधिक विसर्पित हो जाती हैं, गति बहुत धीमी।
        • इस मैदान पर कुछ कठोर चट्टानों के छोटे-छोटे टीले बचे रह जाते हैं, जिन्हें एक्सhumed-पहाड़ियाँ (Monadnocks) कहा जाता है।

आलोचना: डेविस का सिद्धांत स्थैतिक (Static) था। इसमें यह माना गया कि उत्थान के बाद भू-भाग स्थिर रहता है और केवल अपरदन होता रहता है, जबकि वास्तव में उत्थान और अपरदन एक साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं।

(ख) वाल्थर पेंक का ‘स्कार्प-स retreat सिद्धांत’ (Slope Replacement Theory of Penck)

पेंक (1924) ने डेविस के सिद्धांत की आलोचना करते हुए एक नया मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने ढाल (Slope) के विकास पर जोर दिया। उनके अनुसार, स्थलाकृतियाँ उत्थान और अपरदन की सापेक्ष दरों पर निर्भर करती हैं।

    • उत्थान की दर > अपरदन की दर (उत्तल ढाल): यदि भू-भाग का उत्थान तीव्र गति से हो रहा है और अपरदन धीमा है, तो ढालों का आकार उत्तल (Convex) होगा।

    • उत्थान की दर = अपरदन की दर (सीधी ढाल): यदि उत्थान और अपरदन की दरें लगभग बराबर हैं, तो ढाल सीधे (Straight) बने रहते हैं।

    • उत्थान की दर < अपरदन की दर (अवतल ढाल): जब उत्थान धीमा हो जाता है और अपरदन तीव्र, तो ढालों का आकार अवतल (Concave) हो जाता है।

पेंक के अनुसार, ढालों का विकास नीचे से ऊपर की ओर होता है (Replacement from below), न कि ऊपर से नीचे की ओर जैसा कि डेविस मानते थे। पेंक का सिद्धांत डेविस की तुलना में अधिक गतिशील और यथार्थवादी माना जाता है।

निष्कर्ष

भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ पृथ्वी के धरातल को निरंतर परिवर्तित करने वाली शक्तियाँ हैं। अपक्षयण, क्षरण और निक्षेपण जैसी बहिर्जात प्रक्रियाएँ अंतर्जात शक्तियों द्वारा निर्मित संरचनाओं को समतल करके एक गतिशील संतुलन बनाए रखने का प्रयास करती हैं। डेविस और पेंक के सिद्धांत इन जटिल प्रक्रियाओं को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास थे, जो आज भी भौगोलिक अध्ययन की आधारशिला हैं।

JPSC MAINS PAPER 3/Geography Chapter – 3