वैदिक साहित्य: पुरातनता, विभाजन और ऋग्वैदिक काल का समाज, अर्थव्यवस्था एवं धर्म

वैदिक साहित्य भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की आधारशिला है। यह न केवल धार्मिक ग्रन्थों का एक संग्रह है, बल्कि प्राचीन भारत के इतिहास, दर्शन, समाज और राजनीति को समझने का एक प्रमुख स्रोत भी है। सिविल सेवा परीक्षा की दृष्टि से यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है।

वैदिक साहित्य की पुरातनता (Antiquity)

वैदिक साहित्य की रचना एक लम्बे historical कालखंड में हुई। इसकी पुरातनता निर्धारित करने के लिए विद्वानों ने भाषाई एवं खगोलीय साक्ष्यों का सहारा लिया है।

    • भाषाई विश्लेषण: ऋग्वेद की भाषा संस्कृत के सबसे प्राचीन रूप वैदिक संस्कृत में है, जो इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है। इसकी तुलना अवेस्ता (प्राचीन ईरानी ग्रन्थ) की भाषा से की जाती है।

    • खगोलीय साक्ष्य: ऋग्वेद में उल्लिखित कुछ खगोलीय घटनाओं, जैसे उत्तरायण का प्रारम्भ, विषुवों की स्थिति आदि के आधार पर कुछ विद्वानों ने ऋग्वेद की रचना का काल 4000 ई.पू. से भी पहले माना है, हालाँकि यह मत सर्वमान्य नहीं है।

    • परम्परागत मत: सामान्यतः स्वीकृत मत के अनुसार ऋग्वेद की रचना लगभग 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के मध्य हुई मानी जाती है।

वैदिक साहित्य का विभाजन (Classification)

वैदिक साहित्य को मुख्य रूप से चार भागों में बाँटा जाता है:

    1. संहिताएँ (Samhitas): ये वैदिक साहित्य का मूल भाग हैं, जिनमें मन्त्रों का संकलन है।
      • ऋग्वेद: इसमें देवताओं की स्तुति के 1028 सूक्त हैं। यह सबसे प्राचीन है।
      • सामवेद: इसे संगीतशास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद से लिए गए हैं।
      • यजुर्वेद: यह गद्य और पद्य दोनों में है। इसमें यज्ञों के नियमों और विधि-विधानों का वर्णन है।
      • अथर्ववेद: इसमें जादू-टोने, रोग निवारण, शान्ति, समृद्धि आदि से सम्बन्धित मन्त्र हैं।

    1. ब्राह्मण ग्रन्थ (Brahmanas): ये गद्य रचनाएँ हैं जिनमें यज्ञों की विधि, उनके रहस्य और दार्शनिक व्याख्या की गई है। जैसे – ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण।

    1. आरण्यक (Aranyakas): ये ‘वन ग्रन्थ’ हैं जिनकी रचना वनों में रहने वाले ऋषियों द्वारा की गई। इनमें यज्ञों के प्रतीकात्मक और दार्शनिक अर्थ बताए गए हैं।

    1. उपनिषद (Upanishads): वैदिक साहित्य का चरम बिंदु। इन्हें ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है। इनमें ‘ब्रह्म’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘मोक्ष’ आदि गूढ़ दार्शनिक विषयों की चर्चा है।

इनके अतिरिक्त वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष) भी वैदिक साहित्य के सहायक ग्रन्थ हैं।

ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.) का समाज, अर्थव्यवस्था और धर्म

ऋग्वेद में वर्णित समाज को ही प्रारम्भिक वैदिक या ऋग्वैदिक समाज कहा जाता है।

1. सामाजिक संरचना

    • परिवार एवं कुल: समाज का आधार पितृसत्तात्मक परिवार (कुल) था। परिवार के सदस्य एक ही घर में रहते थे। गृहपति परिवार का मुखिया होता था।

    • वर्ण व्यवस्था: यह व्यवस्था कर्म आधारित थी, जन्म आधारित नहीं। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.90) में चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का उल्लेख है, किन्तु यह सामाजिक गतिशीलता को दर्शाता है, कठोर जाति व्यवस्था को नहीं।

    • समाज की इकाइयाँ: परिवारों का समूह ग्राम, ग्रामों का समूह विश और विशों का समूह जन कहलाता था। जन का प्रमुख राजन (राजा) होता था।

    • स्त्रियों की स्थिति: स्त्रियों का सम्मान था। उन्हें शिक्षा ग्रहण करने और यज्ञों में भाग लेने का अधिकार था। अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा जैसी विदुषी महिलाओं का ऋग्वेद में उल्लेख है। बाल विवाह और पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।

2. आर्थिक जीवन

    • कृषि: कृषि एक प्रमुख Occupation थी। यव (जौ) मुख्य फसल थी। गेहूँ, चावल (तंदुल) का उल्लेख भी मिलता है। हल को ‘सीरा’ कहा जाता था।

    • पशुपालन: अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पशुपालन था। गाय सम्पदा का प्रमुख स्रोत और विनिमय का माध्यम थी। गाय के लिए ‘गविष्टि’ (गायों की खोज में युद्ध) शब्द का प्रयोग हुआ है। घोड़ा, बैल, भेड़, बकरी आदि पाले जाते थे।

    • व्यापार एवं वाणिज्य: व्यापार वस्तु-विनिमय (Barter System) पर आधारित था। गाय और ‘निष्क’ (सोने के आभूषण) मूल्य के मापक थे। भूमि और समुद्र दोनों मार्गों से व्यापार होता था।

    • धातुकर्म: लोग ताँबे (अयस) का प्रयोग करते थे। लोहे का प्रयोग इस काल में ज्ञात नहीं था।

3. धार्मिक जीवन

ऋग्वैदिक धर्म प्रकृति की शक्तियों की पूजा पर केन्द्रित था। यह बहुदेववादी था।

    • प्रमुख देवता: देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण माना जाता था।
      • इन्द्र: युद्ध और वर्षा के देवता (सबसे अधिक 250 सूक्त)
      • अग्नि: यज्ञों का मध्यस्थ और घरेलू देवता (दूसरे स्थान पर 200 सूक्त)
      • वरुण: नैतिकता, cosmic order (ऋत) और जल के देवता
      • सोम: एक औषधि/पौधा और देवता दोनों
      • उषा: प्रभात की देवी
      • सूर्य, मित्र, अदिति, मरुत आदि अन्य प्रमुख देवता।

    • यज्ञ (Sacrifices): देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों का आयोजन किया जाता था। देवताओं को घी, मिष्ठान्न, सोमरस आदि की आहुति दी जाती थी। यज्ञों में पशुबलि का भी प्रचलन था।

    • कोई मूर्तिपूजा या मन्दिर नहीं: इस काल में मूर्तिपूजा या मन्दिर निर्माण का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। पूजा का केन्द्र यज्ञवेदी थी।

    • अमूर्त अवधारणाएँ: ऋत (ब्रह्माण्ड का नैतिक और प्राकृतिक नियम), श्रद्धा (विश्वास) जैसी अमूर्त अवधारणाओं का भी उल्लेख मिलता है।

निष्कर्ष

ऋग्वैदिक काल एक गतिशील, पशुपालन प्रधान और योद्धा समाज का द्योतक था, जहाँ सामाजिक संरचना लचीली थी और धर्म प्रकृति-केन्द्रित था। उत्तर वैदिक काल में आकर ही समाज में जटिलता आई, वर्ण व्यवस्था कठोर हुई और धार्मिक कर्मकाण्डों का विस्तार हुआ। वैदिक साहित्य न केवल एक धार्मिक विरासत है बल्कि भारतीय दर्शन, साहित्य और संस्कृति का मूल आधार भी है।

JPSC MAINS PAPER 3/History Chapter – 3