सामान्य परिचय (General Introdluction)

  • मृदा (मिट्टी) पृथ्वी की ऊपरी परत है जो पौधों की वृद्धि के लिये प्राकृतिक स्रोत के रूप में पोषक तत्त्व, जल एवं अन्य खनिज लवण प्रदान करती है। पृथ्वी की यह ऊपरी परत खनिज कणों तथा जीवांश का एक मिश्रण है जो लाखों वर्षों में निर्मित हुई है। 
  • सामान्यतः मिट्टी की कई परतें होती हैं, जिसमें सबसे ऊपरी परत में छोटे मिट्टी के कण, सड़े-गले हुए पेड़-पौधों एवं जीवों के अवशेष होते हैं। यह परत फसलों की पैदावार के लिये बहुत उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण होती है। 

मृदा के संघटन में सम्मिलित पदार्थ 

  • ह्यूमस अथवा कार्बनिक पदार्थ-लगभग 5 से 10 प्रतिशत 
  • खनिज पदार्थ – लगभग 40 से 45 प्रतिशत 
  • मृदा जल – लगभग 25 प्रतिशत 
  • मृदा वायु – लगभग 25 प्रतिशत 
  • मृदा जीव 

 

  • दूसरी परत महीन कणों (जैसे-चिकनी मिट्टी) की होती है, जिसके नीचे विखंडित चट्टानें एवं मिट्टी का मिश्रण होता है तथा इसके नीचे अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं। यह कुछ सेमी. से लेकर. कई मीटर तक हो सकती हैं।
  • पौधों की वृद्धि सामान्यतः 6.0-7.0 pH मान वाले मृदा में होती है। इसी pH मान के मध्य पौधे अपनी सारी क्रियाएँ करते हैं। अधिक अम्लीय अथवा क्षारीय मृदा पौधों के लिये हानिकारक होती है।

मृदा परिच्छेदिका कई मृदा संस्तरों (Soil Horizons) से मिलकर बनती है

स्तर-O

  • ज़मीनी स्तर पर ह्यूमस, जैविक सामग्री की प्रचुरता। 

स्तर-A 

  • ऊपरी मृदा। 
  • आमतौर पर काले रंग की एवं कार्बनिक पदार्थों में समृद्ध। 
  • इस स्तर को निक्षालन का क्षेत्र भी कहा जाता है। 
  • खनिज पदार्थ और जैविक पदार्थ साथ-साथ मिलते हैं। 
  • पौधों की अधिकांश जड़ें इसी में पाई जाती हैं। 

स्तर-B

  • भूमि के नीचे की मृदा, चिकनी मृदा एवं गाद। 
  • इस स्तर को जल संचयन का क्षेत्र भी कहते हैं और साथ ही यह स्तर अपने से ऊपरी स्तर के सभी निक्षालित खनिज संगृहीत कर लेती है। 
  • यह स्तर घुलनशील खनिजों, जैसे-कैल्सिलाइट से मिलकर बना होता है। 
  • इस प्रकार इसमें लोहा, एल्युमीनियम व अन्य जैविक मिश्रण संगृहीत होते हैं। 

स्तर-C 

  • ऋतुक्षरित खराब चट्टान
  • ये चट्टान मृदा परिच्छेदिका के नीचे स्थित होते हैं।

मृदा का वर्गीकरण (Classification of Soil) 

  • मिट्टी में पौधे एवं जंतु निरंतर सक्रिय रहते हैं, जिससे मिट्टी में परिवर्तन होता रहता है इसलिये मिट्टी को गतिशील कार्बनिक एवं खनिज पदार्थों का प्राकृतिक समुच्चय भी कहते हैं। 
  • मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में उच्चावच, जनक सामग्री (चट्टानें), जलवायु, वनस्पति, तापमान, वर्षा तथा आर्द्रता, इत्यादि हैं। मानवीय क्रियाएँ भी मृदा को प्रभावित करती हैं। भिन्न-भिन्न भौगोलिक वातावरण में भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती है। 
  • भारत में मृदा की उत्पत्ति और भौगोलिक विस्तार के आधार पर इसका वर्गीकरण किया गया है, जो निम्न हैं

जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil)

  • नदियों के द्वारा लाए गए अवसादों के निक्षेपों से या सागर द्वारा पश्चगमन (पीछे हटने) के उपरांत छोड़े गए गाद से बनी है।
  • इसे ‘काँप मृदा’ या ‘कछारी मिट्टी’,लोम (loam) मिट्टी भी कहते हैं। 
  • भारत के उत्तरी मैदान में जलोढ़ मृदा का सर्वाधिक विकास हुआ है।
  • भारत का सबसे अधिक उपजाऊ मिट्टी है
    • 40% बालू के कण
    • 40% मृतिका (clay )
    • 20% गाद
  • इस मिट्टी का विस्तार लगभग 15 लाख वर्ग किलोमीटर तक है।
  • भारत में सबसे अधिक भू-भाग पर (33.5%) जलोढ़ मिट्टी ही पाई जाती है। 
  • कृषि के लिये अधिक उपयोगी होती है।
  • इस प्रकार की मृदा पर प्रायः गहन कृषि की जाती है। 
  • इसमें पोटाश (सर्वाधिक मात्रा) एवं चूने की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है
  • फॉस्फोरस, नाइट्रोजन तथा ह्यूमस की कमी होती है। 
  • बलुई दोमट मृदा की जलधारण क्षमता सबसे कम होती है, क्योंकि इसमें भारी मात्रा में रवे होते हैं
  • चिकनी जलोढ़ मिट्टी में जल धारण की क्षमता सबसे अधिक होती है। 
  • भारत में जलोढ़ मृदा के अधिकांश क्षेत्र का संबंध अर्द्ध शुष्क जलवायु प्रदेश से होने के कारण ही इनके ऊपर की परतों में क्षारीय तत्त्वों की अधिकता रहती है।
  • अम्लीय मिट्टी को स्थानीय रूप से रेह ,थुर , चोपन, ऊसर ,कल्लर जैसे नामों से भी जाना जाता है।
  • इसका रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है ।
  • प्राचीन जलोढ़ मिट्टी (बांगर)
    • सतलुज-यमुना का मैदान, पंजाब, हरियाणा तथा ऊपरी गंगा के मैदान में प्राचीन जलोढ़ मिट्टी (बांगर) पाई जाती है।
  • नवीन जलोढ़ मृदा’ अथवा ‘खादर’
    • मध्य एवं निम्न मदानी क्षेत्रों में बाढ़ के कारण मृदा का नवीनीकरण होता है। इसे ‘नवीन जलोढ़ मृदा’ अथवा ‘खादर’ कहते हैं।
    • गंगा के मैदानी भागों में इसकी गहराई लगभग 2,000 मीटर तक है। 
  • इस मिट्टी में मुख्यतः गेहूँ, गन्ना, जौ, दालें, तिलहन और गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी में जूट की फसलें उगाई जाती हैं। 
  • इस मृदा में सामान्यतः मृदा संस्तर (Soil Profile) नहीं पाया जाता है। 
  • जलोढ़ मृदा को सामान्यतः 4 वर्गों में विभाजित किया जाता है
    • 1. भाबर
    • 2. तराई
    • 3. बांगर
    • 4. खादर

प्राकृतिक वनस्पति के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व

  • नवीन अनुसंधान के अनुसार पौधों की वृद्धि तथा विकास के लिये 18 पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, इनको तीन भागों में बाँटा गया है
    • प्राथमिक पोषक तत्त्वः(PNKOCH) फास्फोरस, नाइट्रोजन, पोटाश, ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन 
    • द्वितीयक पोषक तत्त्वः (MgCaS) मैग्नीशियम, कैल्शियम, सल्फर 
    • सूक्ष्म पोषक तत्त्वः मैंगनीज़, बोरॉन, आयरन, तांबा, जिंक, मोलिब्डेनम, कोबाल्ट, क्लोरिन, सोडियम 
  • जिस मृदा में नाइट्रोजन की कमी रहती है उसमें कीटभक्षी पौधे,जैसे- ड्रोसेरा, घटपर्णी, विनस फ्लाईट्रेप इत्यादि उगते हैं तथा नाइट्रोजन की पूर्ति अन्य जीवों के भक्षण से करते हैं। 

लाल-पीली मृदा (Red-Yellow Soil)

  • यह भारत की दूसरी प्रमुख मृदा है, जिसका विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें (ग्रेनाइट तथा नीस) पाई जाती हैं। 
  • इसके अतिरिक्त पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्रों, ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों तथा मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में भी इस मृदा का विकास हुआ है।
  • प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश क्षेत्रों में इस मिट्टी का विकास होने के कारण इसे ‘मंडलीय मृदा’ भी कहते हैं। 
  • लोहे के ऑक्साइड (मुख्यतः फेरिक ऑक्साइड) की उपस्थिति के कारण ही इस मिट्टी का रंग लाल होता है। 
  • इस मृदा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश एवं ह्यूमस की कमी होती है। यह स्वभाव से अम्लीय प्रकृति की होती है। 
  • महीन कण वाली लाल व पीली मृदाएँ सामान्यतः उर्वर होती हैं, जबकि मोटे कणों वाली मृदाएँ अनुर्वर होती हैं। 
  • लाल मृदा ऊँची भूमियों पर बाजरा, मूंगफली और आलू की खेती के लिये उपयोगी है, जबकि निम्न भूमियों पर इसमें चावल, रागी, तंबाकू तथा सब्जियों आदि की खेती की जाती है। 

काली/रेगुर मृदा (Black/Regur Soil) 

  • निर्माण द- लावा पदार्थो (बेसाल्ट चट्टान) के विखंडन से हुआ है। 
  • यह भारत की तीसरी प्रमुख मृदा है।
    • भारत के 5 .46 लाख वर्ग किलोमीटर में
  • इसका सर्वाधिक विकास महाराष्ट्र के ‘दक्कन ट्रैप’ के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में पाई जाती है। ।
    • मध्य प्रदेश के मालवा पठार
    • गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप
    • कर्नाटक के बंगलूरू-मैसूर पठार
    • तमिलनाडु के कोयंबटूर-मदुरै पठार
    • आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना के पठार और
    • छोटानागपुर के राजमहल पर्वतीय क्षेत्र में
  • यह मिट्टी कपास की खेती के लिये अधिक उपयोगी एवं विख्यात है ।
    • कपास के अतिरिक्त यह मृदा गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है। 
  • अन्य नाम
    • ‘काली कपासी मिट्टी’ या ‘रेगुर’
    • ‘उष्ण कटिबंधीय चेरनोज़म’
    • ‘ट्रॉपिकल ब्लैक अर्थ’
    • करेल’ – उत्तर प्रदेश में
    • स्वतः जुताई वाली मृदा’
    • लावा मिट्टी 
  • काली मृदा गीली होने पर चिपचिपी हो जाती है तथा शुष्क होने पर इसमें बड़ी-बड़ी दरारें बन जाती हैं, जिससे इनकी स्वतः जुताई हो जाती है इसलिये इसे ‘स्वतः जुताई वाली मृदा’ के नाम से भी जाना जाता है। 
  • इस मृदा की जलधारण क्षमता अत्यधिक होती है, जिसके कारण सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है।
  • शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाए रखती है।
  • ह्यूमस, एल्युमीनियम एवं लोहा के टाइटेनीफेरस मैग्नेटाइट (Titaniferous Magnetite) इस मिट्टी का रंग ‘काला’ होता है। 
  • इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व जैव तत्त्वों की मात्रा कम होती है। 
  • लोहा,चुना , पोटाश, एल्युमीनियम, मैग्नीशियम कार्बोनेट की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। 
  • क्रेब्स के अनुसार , काली मृदा एक परिपक्व मृदा है।
  • भारत के 1.80 लाख वर्ग किलोमीटर में है।

लैटेराइट मृदा (Laterite Soil) 

  • लेटराइट मिट्टी का सर्वप्रथम अध्ययन 1905 में बुकानन द्वारा किया गया
  • इस मृदा उच्च तापमान एवं भारी वर्षा क्षेत्रों में पाई जाती है। 
    • केरल (मालाबार प्रदेश)
    • महाराष्ट्र,
    • कर्नाटक
    • ओडिशा के पठारी क्षेत्रों
    • राजमहल पहाड़ी क्षेत्रों
    • छोटानागपुर के पठार
    • असम के पहाड़ी क्षेत्रों
    • मेघालय के पठार में
  • अधिक वर्षा के कारण जल के साथ चूना और सिलिका का निक्षालन हो जाता है तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्युमीनियम के यौगिक मृदा में शेष बचे रहते हैं। 
    • प्रारूप लोहे का अतिरेक होने के कारण अनुर्वर हो रहा है।
  • यह साधारणतः लाल रंग की होती है
  • इसमें चूना ,जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फेट और कैल्शियम की कमी होती है। 
  • कम उपजाऊ मृदा मानी जाती है।
    • रबड़ और कॉफी की फसल के लिये सबसे अच्छी मानी जाती है।
    • चाय, कहवा, रबड़, सिनकोना, काजू,टैपियोका मोटे अनाजों एवं मसालों की कृषि की जाती है
  • आद्र अपछालित प्रदेश की मिटटी है।
  • यह मृदा सूखने के बाद बहुत कड़ी हो जाती है
    • लैटेराइट मृदा का प्रयोग ‘ईटों’ के निर्माण में भी किया जाता है।

मृदा के पोषक तत्त्व एवं पौधे में उनके कार्य

तत्त्व

कार्य

फॉस्फोरस (P)

जड़ों का विकास, 

ऊर्जा संग्रहण, शीघ्र फल पकाने में 

नाइट्रोजन (N)

वृद्धि एवं प्रोटीन उत्पादन

पोटेशियम (K)

रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने

पानी का उचितअवशोषण

कैल्शियम (Ca)

कोशिका संरचना एवं विभाजन

सल्फर (S)

प्रोटीन एवं तेल निर्माण में सहायक

मैग्नीशियम (Mg) 

पौधे में लोहे के अवशोषण में सहायक, क्लोरोफिल का मुख्य तत्त्व

आयरन (Fe)

श्वसन एवं क्लोरोफिल उत्पादन 

मोलिब्डेनम (Mo)

दलहनों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण

कोबाल्ट (Co)

नाइट्रोजन स्थिरीकरण

विटामिन B12  का निर्माण

सोडियम (Na)

सूखा प्रतिरोध में वृद्धि

स्टोमेटा के खोलने में सहायक

जिंक (Zn)

एंजाइम सक्रियता एवं प्रोटीन संश्लेषण

पर्वतीय मृदा (Hilly Soil) 

  • हिमालय पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी भाग तथा प्रायद्वीपीय भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में यह मिट्टी पाई जाती है। 
  • इस मृदा के निर्माण पर पर्वतीय पर्यावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है। पर्वतीय पर्यावरण में परिवर्तन के अनुरूप मृदा की संरचना व संघटन में भी परिवर्तन होता है। घाटियों में प्रायः यह दुमटी तथा ऊपरी ढालों पर इनकी प्रकृति मोटे कणों वाली होती है। साथ ही ऊपरी ढालों की अपेक्षा निचली घाटियों में ये मृदाएँ अधिक उर्वर होती हैं।
  • पर्वतीय मृदा का विकास सामान्यतः पर्वतों के दालों पर होता है तथा मृदा अपरदन की समस्या से प्रभावित होने के कारण यह पतली परतों के रूप में पाई जाती है। अतः साधारणतया यह अप्रौढ़ (Immature) मृदा है।
  • पर्वतीय मृदा अम्लीय प्रकृति की होती है, क्योंकि यहाँ जीवाश्मों की अधिकता होने के बावजूद भी जीवाश्मों का अपघटन नहीं हो पाता है। इसमें पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है। 
  • इस मृदा में गहराई कम होती है तथा यह संरध्रयुक्त होती है। 
  • पहाड़ी ढालों पर विकसित होने के कारण यह मृदा बागानी कृषि, जैसे-चाय, कहवा, मसालों एवं फलों की खेती के लिये बहुत उपयोगी होती है। 

शुष्क अथवा मरुस्थलीय मृदा (Arid or Desert Soil) 

  • शुष्क मृदा का विकास अत्यधिक तापमान वाले शुष्क जलवायवीय क्षेत्रों में हुआ है। इन क्षेत्रों में नगण्य वर्षा व अत्यधिक वाष्पीकरण के कारण मृदा में कम नमी तथा कार्बनिक तत्त्वों की अल्पता होने से ह्यूमस का अभाव पाया जाता है। अतः इसे कृषि के दृष्टिकोण से अनुर्वर मृदा के अंतर्गत रखा जाता है।
  • यह मृदा देश की कुल मृदाओं का लगभग 4.32 प्रतिशत है। 
  • पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, पश्चिमी हरियाणा व उत्तरी गुजरात के शुष्क प्रदेशों में यह मिट्टी पाई जाती है। 
  • इस मृदा में रेत सर्वाधिक मात्रा में पाई जाती है। इसमें कैल्शियम, लोहा और फॉस्फोरस भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं किंतु नाइट्रोजन एवं ह्यूमस का अभाव होता है, जिसके कारण यह संरचना के दृष्टिकोण से बलुई तथा प्रकृति के दृष्टिकोण से क्षारीय/लवणीय मृदा होती है, जो फसलों के लिये अनुपजाऊ होती है। 
  • इस मृदा में सामान्यतः कम जल की आवश्यकता वाली फसलों को उगाया जाता है, जैसे-ज्वार, बाजरा, रागी, तिलहन आदि।

लवणीय मृदा (Saline Soil)

  • लवणीय मृदा का विकास शुष्क व अर्द्धशुष्क जलवायु तथा जलाक्रांत व अनूप क्षेत्रों में होता है। ये मृदा संरचना की दृष्टि से बलुई से लेकर दोमट तक हो सकती है। चूंकि इनमें लवणों की अधिकता होती है, अतः इनमें सोडियम, पोटैशियम व मैग्नीशियम के अनुपात का अधिकता तथा नाइट्रोजन व चूने की अल्पता पाई जाती है। 
  •  लवणीय मृदा को कृषि के दृष्टिकोण से अनुर्वर मृदा के अंतर्गत रखा जाता है, साथ ही इनमें वनस्पतियों का अभाव भी पाया जाता है। 
  • लवणीय मृदा का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं व सुंदरबन क्षेत्रों में पाया जाता है। इसके अलावा कच्छ के रन में भी लवणीय मृदा का प्रसार पाया जाता है, जिसके लिये दक्षिणी-पश्चिमी मानसून प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। 
  • शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में गहन कृषि के कारण सिंचाई के अतिरेक से केशिकत्व क्रिया को बढ़ावा मिलता है, जिसमें मृदा के ऊपरी परत पर सोडियम, पोटैशियम एवं कैल्शियम के लवणों एवं क्षारों का जमाव हो जाता  है बल्कि इसकी उर्वरता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 
  • पंजाब व हरियाणा के क्षेत्रों में अतिरेक सिंचाई के कारण लवणीय मृदा के प्रसार में वृद्धि हो रही है। जिससे उपजाऊ जलोढ़ मृदा अनुर्वर मृदा में परिवर्तित होती जा रही है। यहाँ इस प्रकार की मृदा को रेह, ऊसर एवं कल्लर कहते हैं। 
  • जिप्सम तथा पाइराइट का प्रयोग कर लवणीय मिट्टियों को कृषि योग्य बनाया जा सकता है। 
  • भारत के हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में नहरों के आस-पास लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी में अधिक तेजी से वृद्धि हुई है, जिसके कारण बंजर भूमि की समस्या उत्पन्न हुई है। 
  •  इस प्रकार की मृदाओं में बरसीम, धान, गन्ना, अमरूद, आँवला, फालसा तथा जामुन जैसी लवण प्रतिरोधी फसलें व फल वृक्ष लगाये जाते हैं।

पीट एवं जैव मृदा (Peat and Biotic Soil) 

  • इस मृदा का निर्माण नदियों के द्वारा निर्मित डेल्टाई क्षेत्रों में जल का भराव होने के कारण हुआ है। 
  • इस मृदा में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन नगण्य होने के कारण अविघटित कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है, जिसके कारण मृदा की अम्लीयता अधिक हो जाती है। 
  • यह उच्च लवणीय मृदा है, लेकिन इसमें पोटाश तथा फॉस्फेट की कमी होती है।
  • ये अम्लीय स्वभाव की होती है तथा फेरस आयरन होने से प्रायः इनका रंग नीला होता है। 
  • भारत में पीट मृदा वाले क्षेत्रों में ही ‘मैंग्रोव वनस्पति’ का अधिक विकास हुआ है। 
  •  यह भारत में मुख्यतः केरल के अलप्पुझा ज़िला, उत्तराखंड के अल्मोड़ा एवं सुंदरबन डेल्टा में पाई जाती है। 
  • यह हल्की उर्वरता वाली फसलों हेतु उपयुक्त मृदा है। 
  • उपयुक्त दशा में वनस्पति की संवृद्धि के कारण इसमें जीवाश्म के अंश एवं ह्यूमस अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, जिस कारण यह मृदा गहरे काले रंग की होती है।

मृदा गठन के वर्ग एवं व्यास

कण का नाम

व्यास 

(मिलीमीटर)

मृत्तिका (Clay)

0.002 से कम

गाद (Silt)

0.002-0.050

बहुत बारीक बालू

0.05-0.10

महीन/बारीक बालू

0.10 – 0.25

मोटी बालू

0.25 – 0.5

बहुत मोटी बालू

0.5- 1.0

बालू

1.0 – 2.0

मृदा स्वास्थ्य कार्ड (Soil Health Card) 

  • इस योजना की शुरुआत फरवरी 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सूरतगढ़, राजस्थान से की गई। 
  • इसका उद्देश्य तीन साल में 11 करोड से अधिक किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराना है। 
  • यह कार्ड किसी खेत विशेष की मृदा के पोषक तत्त्वों की स्थिति बताता है और उसकी उर्वरता में सुधार के लिये ज़रूरी पोषक की उचित मात्रा की सिफारिश भी करता है।

मृदा से संबंधित अन्य तथ्य 

मृदा अवकर्षण (Degradation) 

  • मृदा में उर्वरता के ह्रास को ही ‘मृदा अवकर्षण’ कहते हैं। 
  • इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है तथा मृदा के दुरुपयोग एवं अपरदन के कारण मृदा की गहराई या परत की मोटाई कम हो जाती है। 
  • मृदा अवकर्षण की दर भू-आकृतिक संरचना, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न भिन्न होती है। 

मृदा अपरदन (Soil Erosion) . 

  • ‘मृदा अपरदन’ का तात्पर्य मृदा के ऊपरी संस्तरों का विनाश है। प्राकृतिक व मानवीय गतिविधियों से अपरदनात्मक प्रक्रियाओं द्वारा मृदा की ऊपरी परत का क्षरण होता है, जिसे ‘मृदा अपरदन’ की संज्ञा दी जाती है।
  •  प्राकृतिक रूप से होने वाले मृदा अपरदन व मृदा निर्माण प्रक्रिया में एक प्रकार का संतुलन पाया जाता है किंतु मानवीय हस्तक्षेप द्वारा इस संतुलन में अव्यवस्था उत्पन्न होने से मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होती है। 
  • मृदा अपरदन के लिये उत्तरदायी अपरदनात्मक कारकों में परिवहित जल, प्रवाहित पवन, कृषि व पशुचारण की अवैज्ञानिक पद्धतियाँ, मानव बस्तियों का निर्माण, खनन व अन्य मानवीय गतिविधियों को शामिल किया जाता है।

मृदा अपरदन के कारण (Causes of Soil Erosion) 

  • निर्वनीकरण: वन, पानी के बहाव तथा वायु की गति को कम करता है। वृक्षों की जड़ें मिट्टी को जकड़कर रखती हैं किंतु वृक्षों के अविवेकपूर्ण दोहन तथा कटाई से अपरदन की तीव्रता बढ़ती है। 
  • अत्यधिक पशुचारणः इससे मिट्टी का गठन ढीला हो जाता है। फलतः जलीय एवं वायु अपरदन तीव्र हो जाता है। कि
  • जलीय अपरदनः जल द्वारा मिट्टी के घुलनशील पदार्थों को घुलाकर एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये परिवहित करना जलीय अपरदन कहलाता है। जल के भार/चोट से उत्पन्न दबाव के कारण मिट्टी का स्थानांतरण ‘जलगति क्रिया’ कहलाती है। इसमें वर्षा की प्रमुख भूमिका होती है, क्योंकि अत्यधिक वर्षा वाले स्थानों में वर्षा के जल तथा बाढ़ से समस्याग्रस्त होने के बाद मृदा अपरदन की संभावना सर्वाधिक होती है। 
  • वायु अपरदनः तीव्र पवनों द्वारा सूक्ष्म कणों को अपने साथ उड़ाकर ले जाना ‘अपवहन’ कहलाता है। मृदा अपरदन चक्रवातों द्वारा भी होता है, जिसमें चक्रवात मिट्टी को उड़ाकर छोटे गर्त बना देते हैं। 
    • भारत में मई तथा जून माह में रबी की फसलों की कटाई के पश्चात् सतलुज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान की उपजाऊ मिट्टी का भी पवन द्वारा पर्याप्त मात्रा में दोहन/अपरदन होता है। 
  • हिमानी अपरदनः हिमालय में हिमरेखा के नीचे बहने वाले बर्फ तथा जल को हिमनद कहा जाता है। ये चट्टानों एवं मिट्टी को काटकर निचली घाटी में जमा कर देते हैं, जिन्हें ‘हिमोढ़’ कहते हैं। 
  • झूम कृषिः झूम कृषि के दौरान जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर कृषि करने के लिये वृक्षों का कटाव किया जाता है तो वनों के कटाव से अपरदन की दर में वृद्धि हो जाती है तथा मिट्टी के पोषक तत्त्व बह जाते हैं। 
  • भूस्खलन अपरदनः भूस्खलन अपरदन पहाड़ी सतह या पर्वतीय ढाल के नीचे धसने के कारण होता है। सामान्यतः भूस्खलन, ढालों पर कटाई, खुदाई या कमजोर भूगर्भ ढाल होने के कारण होता है।

नोट: वनों में आग लगाने, भूमि को बंजर/खाली छोड़ने, त्रुटिपूर्ण फसल चक्र अपनाने, सिंचाई की त्रुटिपूर्ण विधियाँ अपनाने से भी मृदा अपरदन होता है।

मृदा अपरदन के चरण/प्रकार 

बूंद अपरदन (Splash Erosion): 

यह मृदा अपरदन का प्रथम चरण है। इसके अंतर्गत सूखी मिट्टी पर बारिश की बूंदों के प्रतिघात से मृदा कण वियोजित हो जाते हैं, जिससे मृदा की ऊपरी परत विघटित हो जाती है। 

परत अपरदन (Sheet Erosion): 

अपरदन के अगले चरण में बूंदों के निरतंर प्रहार के कारण पतली परतों के रूप में मृदा का कटाव होने लगता है। यह सामान्यतः समतल भूमियों पर मूसलाधार वर्षा के पश्चात् होता है। यद्यपि यह अतिसूक्ष्म प्रक्रिया है किंतु अधिक हानिकारक होती है क्योंकि मृदा की सूक्ष्म और अति उर्वर परत का अपरदन हो जाता है। 

रिल अपरदन (Rill Erosion): 

अपरदन के इस प्रकार के अंतर्गत तेज गति से बहता हुआ जल छोटी एवं कम गहरी नालियाँ बनाकर बहने लगता है। यह आमतौर पर कृषि भूमि और अतिचारित भूमियों पर देखने को मिलता है। 

अवनालिका अपरदन (Gully Erosion): 

जब रिल अपरदन की नालियाँ बड़ी और विस्तृत हो जाती हैं तो कृषि भूमियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित कर देती हैं, जिससे वे कृषि हेतु अनुपयुक्त हो जाते हैं। जिस प्रदेश में इनकी संख्या अधिक होती है उसे ‘उत्खात भूमि’ कहा जाता है, उदाहरण-चंबल का बीहड़ प्रदेश। 

धारा चैनल अपरदन (Stream Channel Erosion): 

जब जल एक मोटी धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है और चैनल को तब तक अपरदित करता है जब तक कि वह स्थिर ढाल प्राप्त नहीं कर लेता है।

अवनालिका अपरदन से प्रभावित चार वृहद् क्षेत्र  

  • पंजाब में शिवालिक के दक्षिणी ढाल 
  • चंबल तथा उसकी सहायक नदियों के मध्यवर्ती एवं निचले मार्ग तथा चंबल-यमुना दोआब 
  • छोटानागपुर प्रदेश एवं राजमहल पहाड़ियों के कुछ भाग
  • गुजरात में खंभात की खाड़ी के पूर्व तथा उत्तर-पूर्व में स्थित क्षेत्र  

मृदा संरक्षण के उपाय (Methods for Soil Conservation) 

  • मृदा संरक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत न केवल मृदा की गुणवत्ता को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है बल्कि उसमें सुधार की भी कोशिश की जाती है। 
  • देश में मृदा अपरदन व उसके दुष्परिणामों पर नियंत्रण के लिये 1953 में ‘केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड’ का गठन किया गया जिसका कार्य राष्ट्रीय स्तर पर मृदा संरक्षण के कार्यक्रमों का संचालन करना है।

यांत्रिक उपाय (Engineering Method) 

  • मेड़बंदी के अंतर्गत बड़े-बड़े जोत के खेतों में मेड बनाकर जल के प्रवाह को कम किया जा सकता है तथा वायु के तेज़ प्रवाह से होने वाले अपरदन को रोकने में भी यह सहायक होता है। 
  • मृदा समतलीकरण से जल के बहाव तथा वायु के तेज गति का प्रभाव कम पड़ता है। 
  • सम्मोच्च रेखीय जुताई पहाड़ों के सबसे ऊँचे ढाल पर की जाती है। इस पद्धति में पहाड़ों से बहने वाले जल को रोकने के लिये समान ऊँचाई वाली रेखाओं से एक प्राकृतिक रूकावट बनाई जाती है, जिससे मृदा का संरक्षण होता है। 
  • पत्थर के मेड/चट्टान बांध के अंतर्गत पानी को तेज़ी से बहने से रोकने के लिये चट्टानों के द्वारा अवरोधक बनाए जाते हैं। चट्टानी बांध बनाने से नालियों की रक्षा होती है तथा मृदा का क्षय भी नहीं होता है। 
  • बेसिन लिस्टिंग के अंतर्गत ढालों पर एक नियमित अंतराल के बाद लघु बेसिन या गर्त का निर्माण किया जाता है, जो जल प्रवाह को नियंत्रित रखने तथा जल को संरक्षित करने में सहायक होते हैं। 

जैविक उपाय (Biological Method) 

  • फसल चक्र के अंतर्गत अपरदन को कम करने वाली फसलों का अन्य फसल के साथ चक्रीकरण कर अपरदन को रोका जा सकता है। इससे मृदा की उर्वरता भी बढ़ती है। 
  • पट्टीदार खेती के अंतर्गत इसमें बड़े जोतों के खेतों में पट्टी बनाकर जल प्रवाह के वेग को कम किया जाता है, जिससे मृदा अपरदन कम-से-कम हो। 
  • पलवार या मल्चिंग के अंतर्गत खेतों में फसल अवशेष की 10-15 सेमी. पतली परत बिछाकर अपरदन तथा वाष्पीकरण को रोका जा सकता है। इससे मृदा का संस्तर सुरक्षित रहता है।
  • वर्मी कम्पोस्ट प्राचीन काल से ही किसानों का सबसे हितकारी प्रयोग रहा है क्योंकि यह पूरी तरह से केंचुए पर आधारित है। केंचुए को ‘किसानों का मित्र’ कहा जाता है। ये केंचुए मिट्टी में मौजूद घासफुस और अन्य खरपतवार को खाकर उन्हें खाद बनाते हैं तथा साथ ही मिट्टी को मुलायम और उपजाऊ भी बनाते हैं। 
  • हरी एवं जैविक खाद के अंतर्गत मृदा संरक्षण को बनाए रखने के लिये खेत में हरी खाद का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जाता है। परंपरागत रूप में प्रचलित उड़द, सैजी, सनई, लैंचा, मूंग, लोबिया आदि को खेत में बोया जाता है और खड़ी फसल के बीच खेत की जुताई की जाती है। इससे खेत में विभिन्न प्रकार के जैविक तत्त्वों का समावेश हो जाता है, जिससे फसलों की उत्पादकता बढ़ती है। सैजी और सनई की फसल का हरी खाद के रूप में प्रयोग करने से सर्वाधिक मात्रा में नाइट्रोजन प्राप्त होता है। 
  • कृषि वानिकी के अंतर्गत खेत के चारों तरफ मेड़ों पर दो या तीन पंक्तियों में एक निश्चित दूरी में फसलों के साथ वृक्षों को रोपित किया जाता है। इससे भी मृदा अपरदन को रोकने में सहायता मिलती है। 
  • वृक्षों की जड़ें मृदा पदार्थों को बांधे रखती है, जो मृदा संरक्षण में सहायक है । अतः सरकार द्वारा सार्वजनिक मार्गों, नहरों, रेल पटरियों इत्यादि के दोनों और तीव्र गति से बढ़ने वाली प्रजातियों के वृक्षों को रेखीय पट्टियो के रूप में रोपित कर वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है।

सामाजिक उपाय (Social Method) 

  • अत्यधिक चराई से पहाड़ी ढालों की मृदा ढीली पड़ जाती है और पानी का बहाव इस ढीली मृदा को बड़ी आसानी से बहा ले जाती है। मृदा अपरदन को रोकने के लिये इन क्षेत्रों में नियोजित चराई से वनस्पति के आवरण को बचाया जा सकता है, जिससे मृदा संरक्षण में सकारात्मक सहयोग हो सके। 
  • हमारे सामाजिक परिवेश में वृक्षों का कटाव व अत्यधिक दोहन भी मृदा अपरदन का एक कारक है। वनों के कटाव व दोहन का निम्नीकरण करके मृदा संरक्षण में सहयोग किया जा सकता है। 
  • झूम खेती में जंगलों को काटकर व जलाकर खेती की जाती है, जिससे मृदा की बहुत हानि होती है। इस पर पूर्णतया रोक लगायी जानी चाहिये, जिससे मृदा संरक्षण हो सके। 
  • लोक सहभागिता के माध्यम से ग्राम पंचायतों से लेकर शहरों तक वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता बढ़ानी होगी। गैर सरकारी संस्थाओं को भी इस अभियान से जोड़ना होगा व मृदा संरक्षण के प्रति सराहनीय कार्य करने वाले व्यक्तियों को पुरस्कृत किया जाना चाहिये, जिससे मृदा संरक्षण को प्रोत्साहन मिल सके। 

नोट: मृदा के अध्ययन के विज्ञान को ‘पेडोलॉजी‘ कहा जाता है। 

भारतीय मृदाएँ : एक नजर में ( Indian Soils : At a Glance) 

मृदा- जलोढ़ मृदा (देश के लगभग 40% भू-क्षेत्र पर)

  • क्षेत्र –  सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का दोआब तथा समुद्रतटीय क्षेत्र
  • मुख्य फसलें-धान, गेहूँ, गन्ना, आलू, तिलहनी एवं दलहनी फसलें।
  • पोषक तत्त्वों की प्रचुरता – पोटाश व चूना की प्रचुरता
  • पोषक तत्त्वों का अभाव – नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा जीवांश पदार्थ का अभाव

मृदा- लाल मिट्टी (देश के लगभग 18% भू-क्षेत्र पर)

  • क्षेत्र –  संपूर्ण तमिलनाडु, कर्नाटक, दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र, ओडिशा, एवं मध्य प्रदेश का दक्षिण-पूर्वी भाग 
  • मुख्य फसलें – मूंगफली, केला, तंबाकू, रागी, ज्वार, तीसी, कपास गेहूँ, मक्का आदि।
  • पोषक तत्त्वों की प्रचुरता – लोहे की प्रचुरता
  • पोषक तत्त्वों का अभाव – नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व जीवांश की कमी

मृदा- काली मृदा (देश के लगभग 15% भू-क्षेत्र पर)

  • क्षेत्र – महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु का पठारी क्षेत्र
  • मुख्य फसलें -कपास, सोयाबीन, चना, ज्वार, गेहूँ आदि।
  • पोषक तत्त्वों की प्रचुरता – पोटाश, चूना, मैग्नीशियम व एल्युमीनियम की प्रचुरता
  • पोषक तत्त्वों का अभाव – नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व जीवांश की कमी

मृदा- लैटेराइट मृदा (देश के लगभग 3.7% भू-क्षेत्र पर)

  • क्षेत्र – कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, असम, महाराष्ट्र, ओडिशा के पर्वतीय पाद क्षेत्र
  • मुख्य फसलें -चाय, कॉफी, रबर, |सिनकोना, काजू आदि।
  • पोषक तत्त्वों की प्रचुरता – लोहा व एल्युमीनियम की प्रचुरता
  • पोषक तत्त्वों का अभाव – नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश व चूने की कमी

मृदा- मरुस्थलीय मृदा

  • क्षेत्र –  दक्षिणी पंजाब, पश्चिमी हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश
  • मुख्य फसलें -बाजरा, ज्वार, मोटे अनाज, सरसों, जौ आदि।
  • पोषक तत्त्वों की प्रचुरता – लवण व फाँस्फोरस की प्रचुरता
  • पोषक तत्त्वों का अभाव – जीवांश व नाइट्रोजन का अभाव

मृदा- पर्वतीय मृदा

  • क्षेत्र – कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश (पर्वतीय भाग)
  • मुख्य फसलें -सेब, नाशपाती, आलू आदि।
  • पोषक तत्त्वों का अभाव – पोटाश, चूना व फॉस्फोरस का अभाव तथा जीवांश की अल्पता

 

भारत की मृदा Soil of india