झारखण्ड में पर्यावरण संबंधी तथ्य Environmental facts in Jharkhand : SARKARI LIBRARY
जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को देखते हुए वैश्विक स्तर पर निम्न प्रयास किए गए हैं
सन 1979 में पहली बार स्वीट्जरलैंड के जेनेवा में जलवायु सम्मेलन का आयोजन किया गया।
वर्ष 1990 में दूसरी बार जलवायु सम्मेलन का आयोजन किया गया।
सन् 1985 में आस्ट्रिया के वियना में वियना कन्वेंशन का आयोजन किया गया जिसमें ओजोन क्षरण हेतु उत्तरदायी पदार्थो (क्लोरोफ्लोरो कार्बन एवं मिथाइल ब्रोमाइड) के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने का विचार किया गया।
16 सितम्बर, 1987 को कनाडा के मांट्रियल में क्लोरोफ्लोरो कार्बन पर प्रतिबंध लगाने हेत एक बाध्यकारी समझौता किया गया ताकि ओजोन क्षरण को रोका जा सके।
इसी कारण 16 सितंबर को प्रतिवर्ष ओजोन संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है।
वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन किया गया इसमें ‘यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज‘ का गठन किया गया।
वर्ष 1994 से वैश्विक स्तर पर कोप सम्मेलन का आयोजन प्रारंभ किया गया।
वर्ष 1997 में जापान के क्योटो में कार्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर एक बाध्यकारी समझौता किया गया जिसे ‘क्योटो प्रोटोकॉल‘ के नाम से जाना जाता है।
झारखण्ड राज्य में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) की सहायता से एक राज्य जलवायु केन्द्र की स्थापना की गयी है।
वर्ष 2013 मेंराज्य में ‘जलवायु परिवर्तन पर झारखण्ड कार्य योजना’ (SAPCC) का प्रकाशन किया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार राज्य का सरायकेला-खरसावां जिला सर्वाधिक संवेदनशील जिलाहै।
CCKN-IA
भारतीय कृषि में जलवायु परिवर्तन नॉलेज नेटवर्क (CCKN-IA) की शुरूआत वर्ष 2013 मेंकी गई
इस पहल का प्रमुख उद्देश्य नवोन्मेष सूचना एवं संचार तकनीक आधारित प्लेटफार्म का प्रयोग करने की कृषि मंत्रालय के साथ सहयोग करना है।
भारत में इसे झारखण्ड, महाराष्ट्र तथा ओडिसा तीन राज्यों में प्रारंभ किया गया है।
राज्य की कुल भूमि के 23 प्रतिशत भाग पर कृषि कार्य किया जाता है। राज्य की कृषि मूलतः मानसूनी जलवायु पर आधारित है।
भारत के 15 कृषि जलवायु प्रदेशों में तीन कृषि जलवायु प्रदेश झारखण्ड राज्य में स्थित हैं।
मध्य एवं उत्तरी-पूर्वी पठारी उप-कृषि जलवायु प्रदेश,
पश्चिमी पठारी उप-कृषि जलवायु प्रदेश तथा
दक्षिणी-पूर्वी पठारी उप-कृषि जलवायु प्रदेश
झारखण्ड राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान लगभग 17 प्रतिशत है तथा राज्य की 70 प्रतिशत जनसंख्या अपनी आजीविका हेतु कृषि पर निर्भर है।
राज्य में औसत वार्षिक वर्षा 1149.3 मिमी. है जिसका 83 प्रतिशत दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से प्राप्त होता है।
6.5 प्रतिशत वर्षा की प्राप्ति लौटते हुए मानसून से, 4 प्रतिशत पश्चिमी विक्षोभ के कारण तथा शेष 6.5 प्रतिशत मानसून पूर्व की वर्षा द्वारा प्राप्त होती है।
पिछले 100 वर्षों में झारखण्ड क्षेत्र में 150 मिमी. वर्षा की मात्रा में कमी आयी है जो जलवायु परिवर्तन का परिणाम है।
झारखण्ड में पर्यावरण संरक्षण
झारखण्ड राज्य अपनी जलवायु तथा जैव-विविधता हेतु राष्ट्रीय स्तर पर प्रख्यात है। राज्य के जंगलों में विभिन्न प्रकार के पेड़, औषधीय पौधे, जड़ी-बूटी तथा फल-फूल के वृक्ष-पौधे पाये जाते हैं।
राज्य के नेतरहाट, पिठोरिया घाटी, सारंडा के जंगल, पारसनाथ पहाड़ी, दालमा पहाड़ी, हजारीबाग के वन, पलामू के वन आदि जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत संपन्न हैं।
पिछले वर्षों में लगातार बढ़ते प्रदूषण ने राज्य की जैव विविधता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। राज्य में जानवरों की विलुप्त होती प्रजातियाँ तथा महत्वपूर्ण पेड़-पौधों की संख्या में कमी इसके उदाहरण हैं।
राज्य में विकास कार्यक्रमों को गति देने हेतु उद्योगों की स्थापना, सड़कों का निर्माण, कृषि कार्य का विस्तार आदि के कारण वृक्षों की व्यापक पैमाने पर कटाई की जा रही है। परिणामतः पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ जैव विविधता का भी हास हुआ है। राज्य में वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग द्वारा प्राकृतिक संसाधनों, वन्य-जीव तथा जैव विविधता के संरक्षण हेतु तमाम प्रयास किए जा रहे हैं।
विभाग द्वारा इस हेतु व्यापक पैमाने पर वनरोपण, वन संरक्षण हेतु जागरूकता अभियान तथा प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु विधिक उपाय किए जा रहे हैं। पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होने के कारण विलुप्त होने वाले जीव-जंतुओं में गिद्धों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है।
राज्य में गिद्ध की तीन प्रजातियाँ
जिप्स बेंगलेंसिस,
जिप्स इंडिकस तथा
आजिप्शियन पायी जाती है।
इनकी विलुप्ति का प्रमुख कारण डाईक्लोफेनेक नामक दर्द निवारक दवा है, जिसका प्रयोग पशुओं के इलाज में किया जाता है। साथ ही गिद्धों के प्राकृतिक आवास मुख्यतः पेड़ों की कटाई भी इनकी संख्या में कमी का एक महत्वपूर्ण कारक है।
राज्य में वनाच्छादित क्षेत्रों की वृद्धि हेतु वर्ष 2015 मे ‘मुख्यमंत्री जन वन योजना‘ की शुरूआत की गई है। इसके माध्यम से निजी भूमि पर वृक्षारोपण हेतु लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है। इस योजना के तहत लोगों को प्रोत्साहन राशि के रूप में वृक्षारोपण एवं उसके रख-रखाव पर हुए व्यय का 50 प्रतिशत हिस्से की प्रतिपूर्ति वन विभागद्वारा की जाती है।
राज्य सरकार द्वारा इको-फ्रेंडली तरीकों को प्रोत्साहित करने हेतु ‘इको-टूरिज्म नीति‘ को अधिसूचित किया गया है। इसके तहत राज्य सरकार द्वारा प्रथम चरण में साहेबगंज में फॉसिल पार्क, गिरिडीह में पारसनाथ, हजारीबाग में कैनहरी हिल, देवघर में त्रिकुट पर्वत, कोडरमा में तिलैया डैम, पलामू में व्याघ्र परियोजना, लातेहार में नेतरहाट तथा जमशेदपुर में दालमा गज अभ्यारण्य को विकसित किया जा रहा है।
साथ ही राज्य में इको-टूरिज्म को बढ़ावा देने हेतु स्थानीय गाँवों में लोगों को ‘नेचर गाइड‘ के रूप में प्रशिक्षित किया जाएगा ताकि पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ-साथ स्थानीय लोगों की आय में भी वृद्धि की जा सके।
राज्य सरकार ने सूखे की समस्या से निपटने हेतु मनरेगा के तहत डोभा निर्माण कार्य प्रारंभ किया है, जिसमें वर्षा जल को संचित किया जा सकेगा। इस कार्य हेतु वर्ष 2016-17 के बजट में 200 करोड़ रूपये का विशेष प्रावधान किया गया है। पूरे राज्य में इस वित्तीय वर्ष में 6 लाख डोभा निर्माण का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
राज्य सरकार द्वारा ठोस कचरा प्रबंधन हेतु राँची, पाकुड़, धनबाद तथा चाकुलिया में पीपीपी मोड पर सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट योजना को मंजूरी प्रदान की गई है।
वन अधिकार अधिनियम के तहत वनों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति तथा वनवासी को वन भूमि का पट्टावितरित किया जा रहा है। यह पट्टा 2006 से पूर्व से वनों में रह रहे वनवासियों को प्रदान किया जाएगा।
राज्य के शहरी क्षेत्रों में मनोरंजन पार्क का निर्माण कराया जा रहा है तथा इसके माध्यम से शहरी क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं से लोगों को परिचित कराकर उनमें इन विषयों के प्रति जागरूकता का प्रसार किया जा रहा है।
राज्य में अधिकाधिक लोगों को लाह की खेती से संबद्ध करने की सरकार की योजना है। इसके लिए लाह के उत्पादन एवं इस पर आधारित स्वरोजगार हेतु राज्य के कई जिलों यथा- राँची, खूटी, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा, गुमला, लातेहार, पलामू आदि का चयन किया गया है। इन जिलों में वन प्रबधन समिति तथा स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से लाह की खेती को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है।
जापान की हिताची कंपनीको राज्य में ठोस कचरा पर आधारित बिजली उत्पादन हेतु संयंत्र लगाने हेतु सहमति प्रदान की गई है।
राँची नगर निगम द्वारा सफाई व्यवस्था का कार्य अगले 25 वर्षों के लिए निजी कंपनी ‘एस्सेल इंफ्रा’को सौंपा गया है।
भारत सरकार द्वारा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के नियंत्रण हेतु आठ मिशनों की घोषणा की गई है।
इस हेत राज्य सरकार ने विभिन्न सरकारी विभागों के बीच समन्वय बनाने के लिए ‘झारखण्ड राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य इकाई‘ की स्थापना करने का निर्णय लिया है।
झारखण्ड राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य इकाई राज्य में पर्यावरण संतुलन को बनाए रखते हुए आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन तथा जीविका के साधनों की उपलब्धता पर बल दे रहा है। यह इकाई राज्य में जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों को ध्यान में रखते हुए कार्य करेगी।
राज्य में तापमान एवं वर्षा में परिवर्तनशीलता के कारण कृषि तथा अन्य क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में 2020 से 2050 के बीच राज्य में ग्रीष्म ऋतु में अधिकतम तापमान 2-3 डिग्री तक तथा शीत ऋतु में 4-5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है।
राज्य में प्रदूषण नियंत्रण तथा इससे संबंधित मामलों पर नियंत्रण रखने हेतु झारखण्ड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (JSPCB) की स्थापना 2001 में की गई है।
यह एक नियामक निकाय है, जो उद्योगों को पर्यावरण सरंक्षण हेतु उच्च तकनीकों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करता है।
राज्य सरकार द्वारा वर्ष2012 में झारखण्ड ऊर्जा नीतिकी घोषणा की गई है जिसका मुख्य उद्देश्य गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के विकास को प्रोत्साहित करना है।
नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के विकास को प्रोत्साहित करने हेतु राज्य में 2001में ‘झारखण्ड नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी’ (JREDA – Jharkhand Renewable Energy Development Agency)का गठन किया गया
राज्य सरकार द्वारा जल संसाधनों के उचित प्रबंधन हेतु वर्ष 2011में झारखण्ड राज्य जल नीतिलागू की गई है।