सामान्य परिचय (General Introduction)
- पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 71 प्रतिशत भाग जल के रूप में महासागरों, सागरों व खाड़ियों के अंतर्गत आता है, जिसे समग्र रूप में ‘जलमंडल’ कहा जाता है।
- पृथ्वी पर स्थानिक तौर पर जल का वितरण समान नहीं है।
- उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल अधिक है
- दक्षिणी गोलार्द्ध में जल अधिक है।
- पृथ्वी पर उपस्थित कुल जल का लगभग 97 प्रतिशत जल महासागरों में है
- जो खारा जल है अथवा पीने योग्य नहीं है।
- शेष लगभग 3 प्रतिशत जल, जो ताज़ा एवं पीने योग्य है, हिमानियों (लगभग 2 प्रतिशत), भौम जल, झीलों, नदियों आदि के अंतर्गत आता है।
- पृथ्वी पर जल के बाहुल्य के कारण ही इसे ‘जलीय ग्रह’ (Water planet) एवं अंतरिक्ष से नीला नज़र आने के कारण ‘नीला ग्रह’ (Blue planet) कहा जाता है।
जलीय चक्र (Hydrological Cycle)
- जल का इसके विभिन्न भौतिक रूपों (तरल, गैस एवं ठोस) में स्थलमंडल एवं जलमंडल, महाद्वीपों एवं महासागरों, धरातल एवं भूमिगत, वायुमंडल एवं जैवमंडल, आदि के मध्य निरंतर प्रवाह एवं आदान-प्रदान को ‘जलीय चक्र’ कहते हैं।
- जल एक चक्रीय एवं नवीकरणीय संसाधन है अर्थात् प्राकृतिक रूप से इसकी प्रकृति इस तरह की है कि इसे प्रयोग एवं पुनः प्रयोग किया जा सकता है।
- यह पृथ्वी पर वायुमंडल एवं जलमंडल के विकास से लेकर कभी न समाप्त होने वाली व्यवस्था है। यह जैवमंडल का महत्त्वपूर्ण घटक है।
- जल चक्र यह उद्घाटित करता है कि जिस मात्रा एवं अनुपात में जल का वाष्पन (Evaporation) एवं वाष्पोत्सर्जन (Evapotranspiration) होता है, उसी मात्रा एवं अनुपात में ‘वर्षण’ (Precipitation) होता है। अर्थात् पृथ्वी पर नियमित कई भौगोलिक संतुलनकारी प्रक्रियाओं के अंतर्गत जल चक्र एक अतिमहत्त्वपूर्ण संतुलनकारी प्रक्रिया है।
- पृथ्वी पर तीव्र जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, उपभोग वृद्धि, पर्यावरणीय ह्रास एवं ताज़े सीमित जलीय संसाधन की कमी से जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
महासागरीय नितल के उच्चावच
- स्थलखंड की तरह महासागरों के अंदर भी ऊँचे पर्वत, गहरी खाइयाँ, मैदान आदि अवस्थित हैं। इसकी पुष्टि सोनार तकनीक एवं अत्याधुनिक उपकरणों से महासागर के आंतरिक भागों के मानचित्रण की तकनीक के अनुप्रयोग से होती है।
- पृथ्वी पर होने वाली विभिन्न निर्माणकारी एवं विध्वंसकारी भौगोलिक प्रक्रियाएँ, जैसे- प्लेट विवर्तन, ज्वालामुखी क्रिया, अपरदन तथा निक्षेपण आदि के द्वारा समस्त महासागरीय अधःस्थल की रचना हुई है।
महासागरीय नितल का विभाजन
महासागरीय नितल या महासागरीय अधःस्थल को मुख्यत: 4 वर्गों में विभाजित किया जाता है
- (a)महाद्वीपीय मग्नतट (Continental Shelf )
- (b) महाद्वीपीय ढाल (Continental Slope)
- (d) महासागरीय गर्त (Deep Oceanic Plain)
- (c) गहरे समुद्री मैदान (Oceanic Deeps) or trench
महाद्वीपीय मग्नतट (Continental Shelf )
- महाद्वीप एवं महासागर के मिलन-क्षेत्र में महाद्वीप का महासागर की और जो बढ़ा हुआ जलमग्न भाग होता है, वह ‘महाद्वीपीय मग्नतट’ या ‘महाद्वीपीय शेल्फ’ कहलाता है।
- इसकी ढाल औसतन रूप से 1 से 3 डिग्री के मध्य या उससे भी कम होती है अर्थात् यह समुद्र का सबसे उथला क्षेत्र होता है।
- निमग्न तट की चौड़ाई विभिन्न महासागरों में भिन्न-भिन्न होती है, यह कहीं-कहीं न के बराबर होती है तो कहीं 100 से 150 किमी. तक हो सकती है। आर्कटिक महासागर में साइबेरियन शेल्फ विश्व में सबसे अधिक चौड़ाई वाला (1,500) किमी. है।
- महाद्वीपीय शेल्फों की औसत चौड़ाई 80 किमी. मानी गई है।महाद्वीपीय शेल्फ जिस तीव्र ढाल पर समाप्त होते हैं उसे ‘शेल्फ अवकाश’ (Shelf Break) कहा जाता है।
- विभिन्न भौगोलिक कारकों, जैसे- अक्षांशीय स्थिति एवं तापमान. चटटानी संरचना, विवर्तनिक प्रभाव, नदियों का प्रभाव आदि के चलते . महादीपीय मग्नतट कई तरह के होते हैं। उदाहरणस्वरूप-हिमानी र प्रवाल भित्ति निर्मित मग्नतट, नदी-मुहाने पर निर्मित मग्नतट, आदि।
- यहाँ पर पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस के विशाल भंडार हैं। इसके अलावा बालू, बजरी, समुद्री खाद्य पदार्थों सोलर या समुद्री संसाधनों की भी प्राप्ति होती है।
- प्रमुख वैश्विक मत्स्यन क्षेत्र, जैसे- डॉगर बैंक (प.यूरोप), ग्रांड बैंक एवं जार्जेस बैंक (उ. अमेरिका) आदि इन्हीं क्षेत्रों के अंतर्गत अवस्थित हैं।
महाद्वीपीय ढाल (Continental Slope)
- महाद्वीपीय शेल्फ एवं गहरे समुद्री मैदान के मध्य के अत्यंत तीव्र ढाल वाले अर्थात् इन्हें जोड़ने वाले महासागरीय क्षेत्र को ‘महाद्वीपीय ढाल’ कहते हैं।
- यह क्षेत्र शेल्फ अवकाश से आरंभ होकर 2 से 50 की ढाल प्रवणता के साथ महासागरीय बेसिन तक विस्तृत होता है। सामान्यतया इसकी गहराई 200 मीटर से लेकर 3,000 मीटर तक होती है। इसी के अंतर्गत कैनियन (गहरी गर्त) एवं खाइयों जैसी समुद्री संरचनाएँ भी पाई जाती हैं लेकिन इस क्षेत्र में निक्षेप नहीं पाये जाते।
- यह महासागरों के कुल क्षेत्रफल के 8.5 प्रतिशत भाग पर विस्तृत है।
- महाद्वीपीय ढाल की सीमा समाप्ति के क्षेत्र में जो कम ढाल वाला क्षेत्र होता है (जो कि अति तीव्र ढाल वाले महाद्वीपीय ढाल से अलग नज़र आता है) उसे ‘महाद्वीपीय उत्थान’ (Continental Rise) कहते हैं।
- गहराई बढते हए यह क्षेत्र समतल रूप में महासागरीय नितल में मिल जाता है।
गहरे समुद्री मैदान (Deep Oceanic Plain)
- महासागरीय नितल के लगभग 75.9 प्रतिशत भाग पर विस्तृत गहरे समुद्री मैदान समतल प्रकृति के होते हैं। महाद्वीपीय उत्थान के पश्चात् यह क्षेत्र आरंभ होता है।
- ये सागर तल से लगभग 3,000 से 6,000 मीटर की गहराई में विशाल क्षेत्र में विस्तृत होते हैं। इनका ढाल अत्यंत मंद होता है।
- ये मैदान गाद, मृतिका आदि महीन कणीय रूपी अवसादों से ढंके होते हैं एवं अवसादों की पर्याप्त आपूर्ति वाले महासागरों में यह मैदान अधिक विस्तृत होते हैं।
- महासागरों में दरारी उद्भेदन द्वारा ज्वालामुखी क्रिया से इनका विस्तार (सागर नितल प्रसरण) भी होता है। इन्हीं मैदानों के अंतर्गत बीच-बीच में ज्वालामुखी पर्वत एवं द्वीप, कटक, गर्त, खाइयाँ, विभंग आदि कई सागरीय संरचनाएँ भी अवस्थित होती हैं।
महासागरीय गर्त (Oceanic Deeps) or trean
- महासागरीय गर्त महासागरों के सबसे गहराई वाले हिस्से होते हैं। इनके अंतर्गत जलमग्न खाइयों तथा गर्तों को शामिल किया जाता है।
- सामान्यतया इनकी गहराई 3 से 5 किमी. तक होती हैं। हालाँकि कुछ महासागरीय गर्त बहुत अधिक गहरे होते हैं, जैसे प्रशांत महासागर ‘मेरियाना ट्रेंच’ की गहराई 11,022 मीटर है (यह विश्व का सबसे गहरा स्थान है)।
- इनकी रचना में प्लेट विवर्तनिक क्रियाओं का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है, इसमें भी प्लेटों का अभिसरण प्रमुख है, अर्थात् विनाशात्मक प्लेट के किनारों पर महासागरीय गर्ते अधिकता में पाई जाती हैं।
- महाद्वीपीय-महासागरीय प्लेट टक्कर या महासागरीय-महासागरीय प्लेट टक्कर से भारी प्लेट के धंसाव व हल्की प्लेट के सीमित उठाव से टक्कर वाले प्रमुख स्थानों पर गहरी गर्मों का निर्माण होता है।
- महासागरीय गर्त सामान्यतया महाद्वीपीय ढाल के आधार एवं द्वीपीय चापों के नज़दीक स्थित होते हैं।
- अब तक लगभग 57 महासागरीय गर्तो की पहचान कर ली गई है, जिनमें सर्वाधिक 32 प्रशांत महासागर में, 19 अटलांटिक महासागर में एवं 6 हिंद महासागर में हैं।
महासागरीय उच्चावच की अन्य लघु आकृतियाँ
- महाद्वीपीय मग्न तट, महाद्वीपीय ढाल, समुद्री मैदान जहाँ महासागरीय नितल उच्चावच की प्रमुख एवं वृहद् संरचनाएँ हैं, वहीं इन्हीं के अंतर्गत कुछ अन्य लघु आकृतियाँ भी शामिल होती हैं, जो इस प्रकार है: जलमग्न कटक, समुद्री टीला, जलमग्न सपाट कैनियन, निमग्न द्वीप, प्रवाल द्वीप आदि।
जलमग्न कटक (Submarine Ridge)
- महासागरों के अंदर प्लेटों के अपसरण से जो मैग्मा निकलता है, उनके जमने के फलस्वरूप जलमग्न कटकों का निर्माण होता है। ये कटक सामान्यतः महासागर के मध्य में होते हैं, अतः इन्हें ‘मध्य-महासागरीय कटक’ भी कहा जाता है।
- इसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘मध्य अटलांटिक कटक‘ है जो कि ‘S’ आकार में अटलांटिक महासागर को लगभग मध्य से पूर्वी एवं पश्चिमी दो भागों में विभाजित करता है। इसके उत्तरी भाग को ‘डॉल्फिन कटक‘ तथा दक्षिणी भाग को ‘चैलेंजर कटक’ कहा जाता है।
- कटकों के शिखरों की ऊँचाई सामान्यतया 2,500 मीटर तक हो सकती है। जो शिखर समुद्री सतह (Sea level) तक पहुँच जाते हैं वह द्वीप के रूप में विकसित हो जाते हैं।
- उत्तरी अटलांटिक महासागर में आइसलैंड, एजोर्स द्वीप आदि ऐसे ही जलमग्न कटक के उभार हैं।
समुद्री टीला (Seamount)
- महासागरीय नितल के ऊपर उठे नुकीले शिखरों वाली पर्वतनुमा संरचना जो समुद्री सतह (Sea level) से नीचे ही रहती है। इस संरचना को ‘समुद्री टीला’ या ‘नितल पहाड़ी’ (Abyssal Hill) कहते हैं। ये ज्वालामुखी उद्गार द्वारा रचित होते हैं।
- इनकी ऊँचाई सामान्यतया 3,000 से 4,500 मीटर तक हो सकती है।
- प्रशांत महासागर में ऐसी सर्वाधिक आकृतियाँ हैं, उदाहरणस्वरूप हवाई द्वीप समूह के विस्तार के रूप में ‘एम्पेरर समुद्री टीला’ ऐसी ही एक समुद्री संरचना है।
- जिनका शिखर नितल से 1,000 मी. ऊँचा उठा हो, उन्हें ‘समुद्री पर्वत‘ कहते हैं। सपाट शीर्ष वाले समुद्री पर्वत को ‘गुयॉट’ (Guyots) कहते हैं।
जलमग्न कैनियन (Submarine Canyons)
- महाद्वीपीय निमग्न तट, महाद्वीपीय ढाल एवं महाद्वीपीय उत्थान तक लंबवत् काटती हुई कंदरानुमा, गहरी एवं सँकरी समुद्री घाटी या गॉर्ज जलमग्न कैनियन अथवा ‘अंतः सागरीय कंदरा’ कहलाती है।
- ये समुद्री कैनियन सामान्यतः तटरेखा के लंबवत् एवं बड़ी नदियों के मुहाने पर पाई जाती हैं। इनकी गहराई 1 से 3 किमी. तक हो सकती है।
- बेरिंग सागर (अलास्का के पश्चिम में) में विश्व के सबसे लंबे जलमग्न कैनियन, जैसे- जेमचुग, प्रिबिलॉफ पाये जाते हैं।
- जलमग्न कैनियनों का निर्माण भू-संचलन से क्वार्टनरी युग की नदियों के अवतलन एवं निमज्जन होने या प्लीस्टोसीन हिम युग में सागर तल में गिरावट इत्यादि कारणों को माना जाता है।
- हडसन कैनियन (USA) एवं कॉन्गो कैनियन (प.अफ्रीका) विश्व के प्रसिद्ध जलमग्न कैनियन के उदाहरण हैं।
- गंगा एवं सिंधु नदियों के मुहानों पर भी क्रमशः बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर में कैनियन का निर्माण होता है।
निमग्न द्वीप (Submerged Island)
- ऐसे समुद्री टीले जिनके शिखर चपटे हों, ‘निमग्न द्वीप’ कहलाते हैं।
- यह समुद्री सतह (Sea level) से नीचे अवस्थित होते हैं, अर्थात् डूबे हुए रहते हैं। इनकी रचना क्रमिक अवतलन के द्वारा हुई है। प्रशांत महासागर में सर्वाधिक निमग्न द्वीप हैं।
महासागर (Ocean)
पृथ्वी पर कुल पाँच महासागर हैं, जो इस प्रकार हैं
- 1. प्रशांत महासागर (Pacific Ocean)
- 2. अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean)
- 3. हिंद महासागर
- 4. आर्कटिक महासागर
- 5. अंटार्कटिक महासागर
प्रशांत महासागर (Pacific Ocean)
- पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल के लगभग एक-तिहाई भाग पर विस्तृत प्रशांत महासागर पृथ्वी का सबसे विशाल एवं गहरा महासागर है।
- इसका क्षेत्रफल पृथ्वी के समस्त महाद्वीपीय भाग के कुल क्षेत्रफल से भी अधिक है तथा भूमध्यरेखा पर इसका विस्तार (पश्चिम से पूर्व) 16,000 किमी. से भी अधिक है। वहीं उत्तर में बेरिंग जलसंधि (प्रशांत-आर्कटिक के मध्य) से लेकर दक्षिण में एद्रे अंतरीप (अंटार्कटिक) के मध्य इसका विस्तार करीब 15,000 किमी. है।
- इसके उत्तर में रूस एवं अमेरिका की भूमियों को विभाजित करती हुई बेरिंग जलसंधि एवं आर्कटिक महासागर जबकि दक्षिण में अंटार्कटिका है।
- पूर्व एवं पश्चिम से क्रमशः अमेरिकी महाद्वीपीय वृहद् भूमियाँ (उत्तर अमेरिका एवं दक्षिण अमेरिका), एशिया एवं ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपीय भूमियाँ प्रशांत महासागर को घेरे हुए हैं।
महाद्वीपीय मग्नतट
- प्रशांत महासागर को सामान्यतः कम विकसित निमग्नतटों (5.7 प्रतिशत) वाला महासागर माना जाता है।
- अमेरिकी तटों से संबंधित मग्नतट बेहद कम चौड़े (औसतन 80 किमी.) हैं। यहाँ प्रशांत एवं अमेरिकी प्लेटों के टक्कर से गर्तो का निर्माण हुआ है, जबकि इसके विपरीत एशिया एवं ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के तटों के साथ निमग्न तट अधिक विस्तार वाले हैं, जहाँ द्वीपों की विशाल श्रृंखला से लेकर उथले सीमांत सागर उपस्थित हैं।
- यह उत्तर से दक्षिण की ओर बेरिंग सागर, ओखोत्स्क सागर, जापान द्वीप समूह, पूर्वी चीन सागर, ताइवान, दक्षिणी चीन सागर, फिलीपींस,पापुआ न्यू गिनी, ऑस्ट्रेलियाई पूर्वी तट एवं न्यूज़ीलैंड तक विस्तृत है।
- इस समस्त क्षेत्र में मग्नतट की चौड़ाई 160 किमी. से लेकर 1,600 किमी. तक है।
कटकनुमा संरचनाएँ
- मध्य अटलांटिक कटक की तरह प्रशांत महासागर को मध्य से विभाजित करने वाला कोई मध्य-महाद्वीपीय कटक नहीं पाया जाता बल्कि इसमें कहीं-कहीं कटकीय संरचनाएँ अवस्थित हैं, जिनमें प्रमुख संरचनाएँ निम्नवत हैं:
पूर्व प्रशांत महासागरीय कटक या अल्बेट्रोस पठार :
- यह मध्य अमेरिका के पास अधिक विस्तृत संरचना है। उत्तरी-पूर्वी भाग ‘कोकोस कटक’ एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग ‘फैलिक्स जुआन मर्नाडीज कटक’ कहलाता है जो कि चिली तट के समानांतर अवस्थित है।
हवाई कटक :
- यह ज्वालामुखीकृत कटक है,जिस पर प्रसिद्ध हवाई एवं होनोलुलू द्वीप अवस्थित हैं, यह ‘हवाइयन उभार’ के नाम से भी जाना जाता है।
चाथम उभार
- न्यूजीलैंड के पश्चिम की ओर अवस्थित एवं दक्षिण में न्यूज़ीलैंड पठार के रूप में नामित।
तस्मानिया कटक : तस्मानिया के दक्षिण में अवस्थित।
मेकवेरी बेल्लेनी कटक : सुदूर दक्षिण में अवस्थित।
गर्त(trough/trench )
- प्रशांत महासागर के पूर्वी एवं पश्चिमी दोनों भागों के सीमांत विनाशात्मक प्लेट सीमा से संबंधित होने के कारण यहाँ पर कई गर्ते पाई जाती हैं। स्मरणीय है कि प्रशांत महासागर के पश्चिमी भागों में इन गर्मों की अधिकता मिलती है।
- मेरियाना गर्त (विश्व की सबसे गहरी गर्त), करमाडेक गर्त, एल्यूशियन गर्त, क्यूराइल गर्त, जापान गर्त, फिलीपाइन गर्त, अटाकामा गर्त, रिक्यू गर्त, नीरो गर्त, ब्रुक गर्त, बेली गर्त, प्लानेट गर्त आदि प्रशांत महासागर की प्रमुख गते हैं।
द्वीप (island)
- प्रशांत महासागर में सर्वाधिक संख्या में लगभग 20,000 द्वीप अवस्थित हैं।
- अधिकतर द्वीप क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटे-छोटे हैं। जापान, फिलीपींस , न्यूगिनी, न्यूजीलैंड जैसे कुछ बड़े द्वीप ‘महाद्वीपीय द्वीप’ (continental island) कहलाते हैं।
- प्रसिद्ध ज्वालामुखी द्वीप, हवाई द्वीप उत्तरी प्रशांत के अंतर्गत है।
- पूर्वी प्रशांत के अंतर्गत एल्यूशियन, ब्रिटिश कोलंबिया व चिली प्रमुख द्वीप हैं।
प्रशांत महासागर के पश्चिमी हिस्से में सर्वाधिक द्वीप पाये जाते हैं जिनमें से अधिकतर प्लेटों की टक्कर से हुए वलन क्रिया एवं ज्वालामुखी से निर्मित हैं। इनमें क्यूराइल, जापान, फिलीपाइन, न्यूज़ीलैंड आदि समूहों में द्वीप पाये जाते हैं।
बेसिन (basin)
- एल्यूशियन बेसिन
- पर्वी व पश्चिमी केरोलिन बेसिन
- फिजी बेसिन
- जेफरीन बेसिन (दक्षिणी ऑस्ट्रेलियाई बेसिन)
- दक्षिणी-पूर्वी प्रशांत बेसिन (पेरू-चिली के पश्चिम में)
- प्रशांत-अंटार्कटिक बेसिन आदि
प्रशांत के सीमांत सागर एवं खाड़ियाँ
- अमेरिकी महाद्वीपों के अनुदैर्ध्य तटों के कारण प्रशांत महासागर के पूर्वी भाग में सीमांत सागर एवं खाड़ियों का सामान्यतया अभाव है। इस क्षेत्र में केवल कैलिफोर्निया की खाड़ी तथा तटों एवं द्वीपों के मध्य जलमग्न भाग ही हैं।
- प्रशांत महासागर के अधिकांश सीमांत सागर एवं खाड़ियाँ इसके पश्चिमी हिस्से अर्थात् एशिया-ऑस्ट्रेलिया की तरफ हैं।
- इनमें उत्तर से दक्षिण बेरिंग सागर, ओख़ोत्स्क सागर, जापान सागर, पूर्वी चीन सागर, दक्षिणी चीन सागर, सेलीबीज सागर, कारपेन्ट्रिया की खाड़ी (ऑस्ट्रेलिया के पास), अराफूरा सागर, कोरल सागर, तस्मान सागर (ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड के मध्य, तस्मानिया के नज़दीक) आदि प्रमुख हैं।
अटलांटिक या अंध महासागर (Atlantic Ocean)
- पूर्व में यूरोप एवं अफ्रीका महाद्वीपों जबकि पश्चिम में उत्तर अमेरिका एवं दक्षिण अमेरिका महाद्वीपों के मध्य में अंग्रेज़ी वर्णमाला के ‘S’ अक्षर के आकार में इस महासागर का विस्तार है।
- इसके उत्तर में ग्रीनलैंड एवं आर्कटिक महासागर जबकि दक्षिण में अंटार्कटिक महासागर है।
- यह महासागर पृथ्वी का 1/6 वाँ भाग समाहित किये हुए है एवं विश्व के सबसे बड़े महासागर प्रशांत महासागर का आधा है।
महाद्वीपीय मग्नतट
- अटलांटिक महासागर सामान्यतः विस्तृत मग्नतटों से युक्त है। हालाँकि इसमें पर्याप्त विविधता भी है। यह अटलांटिक महासागर के कुल क्षेत्र के 13.3 प्रतिशत भाग पर विस्तृत है।
- उत्तरी अटलांटिक महासागर के दोनों ओर विशेषतः उत्तर-पश्चिमी यूरोप एवं उत्तर-पूर्वी अमेरिका के तटों के पास मग्नतट जहाँ 240 से 400 किमी. तक चौड़े हैं, वहीं दक्षिणी अटलांटिक में विशेषतः अफ्रीकी तटों के पास इनकी चौड़ाई 80 से 160 किमी. ही है।
मध्य अटलांटिक कटक
- मध्य अटलांटिक कटक को अटलांटिक महासागर की सबसे विशिष्ट संरचना माना जाता है। यह अटलांटिक महासागर के लगभग ठीक मध्य में उत्तर में आइसलैंड से शुरू होकर (‘S’ की आकृति में) दक्षिण में बोवेट द्वीप के मध्य विस्तृत है।
- इसकी कुल लंबाई लगभग 14,500 किमी. है एवं इसकी गहराई सागर तल से 4 किमी. से नीचे नहीं जाती है। हालाँकि कहीं-कहीं अधिक ऊँचा है एवं द्वीपों के रूप में भी नजर आता है; आइसलैंड, एजोर्स द्वीप आदि इसी तरह की संरचनाएँ है।
- रोमांशे ट्रेंच (भूमध्य रेखा के नज़दीक) मध्य अटलांटिक कटक को डॉल्फिन उभार (उत्तरी भाग) एवं चैलेंजर उभार (दक्षिणी भाग) में विभाजित करता है।
- लगभग 55° उत्तरी अक्षांश के पास यह कटक सर्वाधिक चौड़ा है।
- यहाँ इसे ‘टेलीग्राफिक पठार’ का नाम दिया गया है। दक्षिण अटलांटिक महासागर में (40° द. अक्षांश के पास) कटक का एक हिस्सा पश्चिम में अफ्रीका की ओर निकला हुआ है, इसे ‘वालविस कटक’ का नाम दिया गया है।
गर्त
- अटलांटिक महासागर के रचनात्मक प्लेट सीमा पर स्थित होने के कारण इसमें अधिक संख्या में समुद्री गर्ते नहीं पाई जाती हैं।
- यहाँ पर मुख्यतः दो गर्ते-साउथ सैंडविच तथा प्यूर्टो रिको (अटलांटिक महासागर का सबसे गहरा गर्त) अवस्थित हैं।
द्वीप
- अटलांटिक महासागर में मुख्यतः एजोर्स का पाइको द्वीप, केप वर्दे द्वीप, भूमध्य रेखा के नज़दीक सेंट पॉल द्वीप आदि मध्य-अटलांटिक कटक की उभरी हुई चोटियाँ हैं।
- इनके अलावा, ब्रिटिश द्वीप समूह, पश्चिमी द्वीप समूह, न्यूफाउंडलैंड आदि अटलांटिक के उत्तरी हिस्से के महत्त्वपूर्ण तटीय द्वीप हैं।
बेसिन
लेब्रोडोर बेसिनः
- उत्तर में ग्रीनलैंड के तट एवं दक्षिण में न्यूफाउंडलैंड उभार के मध्य अवस्थित।
आइबेरियन बेसिन या उत्तर-पूर्वी अटलांटिक महासागरीय बेसिनः
- अटलांटिक महासागर के उत्तर-पश्चिमी भाग में एजोर्स द्वीप के उत्तर में 38° से 50° उत्तरी अक्षांशों के मध्य अवस्थित है। इसको ‘आइबेरियन बेसिन’ भी कहा जाता है।
उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक महासागरीय बेसिनः
- उत्तरी अटलांटिक का सबसे बड़ा बेसिन।
केप वर्दे बेसिनः
- अफ्रीका के लाइबेरिया तट एवं मध्य अटलांटिक कटक के मध्य अवस्थित।
गिनी बेसिनः
- भूमध्य रेखा के नज़दीक। अफ्रीका के गिनी के तट के साथ अवस्थित। उत्तरी भाग सियरा लियोन बेसिन भी कहलाता है।
ब्राज़ील बेसिनः
- लगभग भूमध्य रेखा से शुरू होकर 30° दक्षिणी अक्षांश तक इसका विस्तार ब्राज़ीलियन तट के सहारे है।
केप बेसिनः
- अफ्रीका के पश्चिम में गिनी बेसिन के दक्षिण में अवस्थित।
अर्जेंटीना बेसिनः
- दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना के तट एवं मध्य अटलांटिक कटक के मध्य अवस्थित।
अगुलहास बेसिन
- द. अफ्रीका के केप ऑफ गुड होप (आशा अंतरीप) के दक्षिण में अवस्थित।
अटलांटिक के सीमांत सागर एवं खाड़ियाँ
- उत्तरी अटलांटिक में मग्नतटों के विस्तार एवं यूरोप के तटीय भागों के डूब जाने से सागर एवं खाड़ियाँ दक्षिणी अटलांटिक की तुलना में अधिकता में पाये जाते हैं।
- मध्य अमेरिकी क्षेत्र में अवस्थित ‘कैरेबियन सागर’,अटलांटिक महासागर का सबसे बड़ा सीमांत सागर है एवं दूसरा स्थान भूमध्य सागर का है। काला सागर को भूमध्य सागर का सीमांत सागर माना जाता है।
हिंद महासागर (Indian Ocean)
- हिंद महासागर, प्रशांत एवं अटलांटिक की तुलना में बेहद छोटा एवं कम औसत गहराई (लगभग 4,000 मी.) वाला है। इस दृष्टि से इसे ‘अर्द्ध-महासागर’ भी कहा जाता है।
- अन्य कई मानकों के आधार पर भी हिंद महासागर को प्रशांत एवं अटलांटिक से अलग माना जाता है, जैसे- इसकी उत्तरी सीमा भू-आबद्ध है, नितल पर उच्चावच की असमानताएँ भी बेहद कम हैं, गर्तों का अभाव है, महाद्वीपीय मग्नतटों की कमी है, सीमांत सागरों की संख्या भी कम है, आदि।
- भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक अवस्थिति के चलते हिंद महासागर त्रिभुजाकार की विशिष्ट आकृति में दिखाई देता है। भारत की लंबी तट रेखा हिंद महासागर से जुड़ी हुई है।
- भारत इसके शीर्ष पर अवस्थित है, जिसके कारण इस महासागर का नामकरण ‘हिंद महासागर’ किया गया है।
महाद्वीपीय निमग्न तट
- हिंद महासागर में महाद्वीपीय निमग्न तटों का विस्तार बेहद कम है।
- अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी के अंतर्गत यह सर्वाधिक चौड़ाई में, अफ्रीकी तट विशेषकर मेडागास्कर के पास यह औसतन चौड़ा जबकि पूर्व में जावा, सुमात्रा एवं ऑस्ट्रेलियाई मग्नतट सबसे कम चौड़ाई के साथ अवस्थित है (औसत 160 किमी.)।
- दक्षिणतम भाग अंटार्कटिक महाद्वीप के अंतर्गत मग्नतट बेहद सँकरा है।
कटक
- हिंद महासागर का मुख्य कटक भारत की मुख्य भूमि के दक्षिणतम सिरे से शुरू होकर दक्षिण में अंटार्कटिक महाद्वीप तक जाता है।
- यह हिंद महासागर को पूर्वी एवं पश्चिमी विशाल बेसिनों में विभाजित करता है। इस मुख्य कटक से कई उपशाखाएँ पूर्वी ओर एवं पश्चिमी ओर अनियमित रूप से निकलती हैं, जिनको मिलाकर कटक को निम्नानुसार नाम दिये गए हैं
- आरंभ में यह कटक ‘लक्षद्वीप-चागोस कटक’ कहलाता है। मालदीव व लक्षद्वीप इसी पर स्थित हैं।
- 30° दक्षिणी अक्षांश के आस-पास यह ‘चागोस सेंट पॉल कटक’ अथवा मध्य हिंद महासागरीय उभार के रूप में नामित है। इसी को आगे बढ़ने पर ‘एम्सटर्डम सेंटपॉल पठार’ कहते हैं।
- दक्षिण में आगे चलकर यह दो शाखाओं में विभक्त हो जाता है। पश्चिमी शाखा ‘करगुएलेन गॉसबर्ग कटक’ जबकि पूर्वी शाखा ‘इण्डियन अंटार्कटिक कटक’ कहलाती हैं, जो कि अंटार्कटिका के मग्नतट में मिल जाती है।
- कुछ अन्य पूरक एवं स्वतंत्र कटक भी हिंद महासागर में अवस्थित हैं, जैसे- बंगाल की खाड़ी में अंडमान-निकोबार कटक, 90° पूर्वी कटक (बंगाल की खाड़ी के अंतर्गत ही), सोकोत्रा-चागोस कटक, कार्ल्सबर्ग कटक दक्षिणी मेडागास्कर कटक, प्रिंस एडवर्ड क्रोजेट कटक आदि।
नोटः हिंद महासागर में मुख्यतः गर्तो का अभाव है। जावा द्वीप (इंडोनेशिया) के दक्षिण में ही इसके समानांतर रूप में ‘सुण्डा गर्त’ (जावा गर्त) अवस्थित है, जो कि 7,258 मीटर गहरा है। इसके अतिरिक्त ‘डायमेंटिना गर्त‘ भी यहीं अवस्थित है।
द्वीप
- हिंद महासागर में विभिन्न तरह के निर्मित या उभरे हुए छोटे-बड़े द्वीप अवस्थित हैं।
- ये द्वीप मेडागास्कर एवं श्रीलंका महाद्वीपों के ही विस्तृत भाग हैं एवं इन्हें ‘महाद्वीपीय द्वीप’ भी कहा जाता है। इसके अलावा सुमात्रा, जंजीवार, कोमोरोस को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है।
- अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह म्यांमार की अराकानयोमा पर्वत श्रेणी के जलमग्न भाग के उभरे हुए हिस्से हैं।
- चागोस, डियागो गार्शिया, न्यू एम्सटर्डम, सेंट पॉल, करगुएलेन व सेशेल्स द्वीप मध्य-महासागरीय कटक के उभरे हुए हिस्से हैं।
- लक्षद्वीप व मालदीव को प्रवाल द्वीप की श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है।
- मॉरीशस व रीयूनियन द्वीप ज्वालामुखी शंकु हैं।
बेसिन
- अंडमान बेसिन (बंगाल की खाड़ी में)
- अरब बेसिन (अफ्रीका व भारत के तटों के मध्य); कार्ल्सबर्ग कटक इसे दो भागों में बाँटता है।
- ओमान बेसिन (ओमान की खाड़ी के निकट)
- मॉरीशस बेसिन (दक्षिण-पूर्वी मेडागास्कर बेसिन)
- सोमालियन बेसिन (उत्तर में सोकोत्रा-चागोस तथा दक्षिण में सेशल्स कटकों द्वारा घिरी हुई है।)
- नटाल बेसिन (मेडागास्कर व दक्षिण अफ्रीका के पर्वी तट के मध्य)
- अगुलहास बेसिन (नटाल के दक्षिण में)
- कोकोस कीलिंग बेसिन (पश्चिमी ऑस्ट्रेलियाई बेसिन या भारत ऑस्ट्रेलियाई बेसिन भी कहलाती है।) इस पर कोकोस कीलिंग नामक द्वीप स्थित है।
- अटलांटिक-हिंद-अंटार्कटिक बेसिन (अटलांटिक महासागर की अटलांटिक-अंटार्कटिक बेसिन का विस्तृत भाग)
हिंद महासागर के सीमांत सागर एवं खाड़ियाँ
- हिंद महासागर के अंतर्गत आने वाली लगभग सभी महाद्वीपीय ढालें (Continental Slopes) तीव्र हैं, जिसका कारण इनका प्राचीन गोंडवानालैंड के पठारों से निर्मित होना है। अतः ऐसी स्थिति में हिंद महासागर में सीमांत सागरों का भी सामान्यतया अभाव है। अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी को कई विद्वान सीमांत सागर नहीं मानते (ऐसा इनके आकार व अवस्थिति के चलते है)।
- यहाँ लाल सागर एवं उथले गर्त के रूप में उपस्थित फारस की खाडी को ही हिंद महासागर के वास्तविक सीमांत सागर व खाडियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाता है।
महासागरीय जल का तापमान
- समुद्र का जल सौर विकिरण से ऊष्मा प्राप्त करके गर्म होता है. जिससे उसका तापमान बढ़ता है। समुद्री जल के तापमान में समय और स्थानिक भिन्नता पाई जाती है।
- सागरीय जल का तापमान अगस्त में सर्वाधिक तथा फरवरी में न्यूनतम रहता है।
- महासागरीय जल की सतह का औसत दैनिक तापांतर नगण्य (1°C) होता है।
- महासागरीय जल का अधिकतम तापमान दोपहर दो बजे एवं न्यूनतम तापमान सुबह 5 बजे रहता है।
महासागरीय जल में तापमान का महत्त्व
- तापमान के अंतर के कारण ही महासागरीय जल में संचरण होता है, समुद्री लहरें तथा धाराएँ चलती हैं।
- समुद्री जल के तापमान पर ही समुद्री जीव-जंतु तथा वनस्पति निर्भर करते हैं। विश्व के अधिकांश मत्स्य क्षेत्र उन क्षेत्रों में है, जहाँ समुद्री जल का तापमान अनुकूलतम होता है।
महासागरीय तापमान का वितरण
- महासागरीय जल के तापमान के वितरण में अक्षांशीय विस्तार के अलावा जल की गहराई को भी ध्यान में रखा जाता है। इस आधार पर सागरीय तापमान का क्षैतिज एवं लंबवत् दोनों प्रकार के वितरण का अध्ययन किया जाता है। महासागरीय जल के तापक्रम में अंतर निम्नलिखित तत्त्वों पर निर्भर करता है
जल एवं स्थल के वितरण में असमानता
- उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलीय भाग की अधिकता तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जलीय भाग की अधिकता के कारण तापमान के वितरण में भिन्नता पाई जाती है।
- गर्म स्थलीय भाग के संपर्क के कारण महासागरीय भाग अधिक ताप प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि महाद्वीपों के उत्तरी गोलार्द्ध में महासागरों का तापक्रम दक्षिणी गोलार्द्ध की अपेक्षा अधिक होता है जबकि अपेक्षाकृत ठंडे स्थलीय भाग महासागर के तापक्रम को घटा देते हैं।
अक्षांश
- महासागरीय जल का तापमान विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर कम होता जाता है, क्योंकि सूर्य की किरणें ध्रुवों की ओर तिरछी होती जाती हैं, जिसके कारण सूर्यातप की मात्रा भी ध्रुवों की ओर कम होती जाती है।
महासागरीय धाराएँ
- जिन क्षेत्रों में गर्म जलधाराएँ प्रवाहित होती हैं, वहाँ का तापमान अधिक तथा जिन क्षेत्रों में ठंडी जलधाराएँ चलती हैं, वहाँ का तापमान कम होता है।
- उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट पर लेब्राडोर की ठंडी धारा चलती है, जिसके कारण लगभग 50° उत्तरी अक्षांश पर ही शीत ऋतु में समुद्री जल जम जाता है।
- इसके विपरीत, यूरोपीय तट के साथ गल्फस्ट्रीम गर्म जलधारा बहती है, और यहाँ पर समुद्री जल के तापमान को ऊँचा बनाये रखती हैं। अत: नॉर्वे के तट पर 60° उत्तरी अक्षांश पर भी समुद्री जल नहीं जमता।
प्रचलित पवनें
- हवाओं की दिशाएँ सागरीय सतह के तापमान को पर्याप्त प्रभावित करती हैं। अनुतटीय पवनों (Onshore wind) से प्रभावित महासागरीय जल के सतह का तापमान अधिक तथा अपतटीय पवनों से प्रभावित महासागरीय जल का तापमान कम होता है।
- अपतटीय पवनों (Offshore wind) से प्रभावित क्षेत्रों में अपवेलिंग के कारण सागर के आंतरिक भाग का ठण्डा जल सतह पर आता है. जिससे सतही जल का तापमान कम हो जाता है।
- अनुतट पवन से प्रभावित क्षेत्रों में गर्म जल के एकत्रण से सतही जल के तापमान में वृद्धि पाई जाती है।
लवणता
- समुद्री जल के तापमान पर लवणता का भी प्रभाव पड़ता है। अधिक लवणता वाला जल अधिक ऊष्मा को ग्रहण करने में सक्षम होता है, अतः अधिक लवणीय जल का तापमान अधिक होता है। इसके विपरीत, कम लवणता वाले क्षेत्रों में जल का तापमान कम होता है।
महासागरीय तापमान को प्रभावित करने वाले अन्य कारक
- अन्तः सागरीय कटकों की उपस्थिति के कारण उसके दोनों ओर – के भागों के तापक्रम में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है।
- स्थानीय मौसम संबंधी विविध दशाएँ, जैसे-तूफान, चक्रवात आदि सागरीय जल के तापमान को प्रभावित करते हैं। इनके द्वारा मुख्यतः दैनिक तापक्रम अधिक प्रभावित होता है।
- सागर की अवस्थिति तथा इसके आकार का सागरीय तापक्रम के वितरण में अधिक महत्त्व होता है। निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों में स्थित सागरों का तापक्रम उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में स्थित सागरों की अपेक्षा अधिक होता है।
महासागरीय तापमान का क्षैतिज वितरण
- सामान्यतः विषुवत् रेखा पर महासागरीय सतह का तापमान 26.7°C अंकित किया जाता है। वहीं ध्रुवों की ओर जाने पर तापमान में गिरावट दर्ज की जाती है।
- महासागरीय जल का तापमान 20° अक्षांश के पास 22°C, 40° अक्षांश के पास 14°C व 60° अक्षांश के पास 1°C तथा ध्रुवों पर 0°C अंकित किया जाता है।
- उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल-खंडों की अधिकता के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध की अपेक्षा उत्तरी गोलार्द्ध में तापक्रम अधिक पाया जाता है। वहीं अत्यधिक वर्षा के कारण अधिकतम तापमान भूमध्य रेखा पर न होकर उससे थोड़ा उत्तर में होता है।
- उत्तरी अटलांटिक महासागर में गर्म जलधाराओं के कारण भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर जाने पर तापक्रम में गिरावट न्यून होती है। 50°-70° उत्तरी अक्षांशों के मध्य भी 5°C तापक्रम अंकित किया जाता है परंतु दक्षिणी अटलांटिक महासागर के तापक्रम में ध्रुव की ओर पर्याप्त गिरावट होती है।
- हिंद महासागर की सतह का अधिकतम तापमान अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में 25°C अंकित किया जाता है।
- संपूर्ण महासागरों के जल का औसत वार्षिक तापक्रम लगभग 17.2°C माना जाता है।
महासागरीय जल के तापमान का लंबवत् वितरण
- वायुमंडलीय तापमान के अनुरूप महासागरीय जल के तापमान में भी सतह से जल के आंतरिक परतों में जाने पर तापमान में कमी आती है, किंतु तापमान में आने वाली यह कमी सभी अक्षांशीय प्रदेशों में एक समान नहीं होती है।
- सामान्यतः सूर्य की किरणें महासागर के आंतरिक जलीय भाग में लगभग 200 मीटर की गहराई तक ही प्रवेश कर पाती हैं।
- सौर्यिक तापीय वितरण के आधार पर ही लंबवत् रूप में महासागरीय जल को तीन परतों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
- ऊपरी परत
- निचली परत
- थर्मोक्लाइन परत.
ऊपरी परतः
- इसका विकास सागरीय सतह से 500 मी. गहराई तक तथा औसत तापमान 20°C से 25°C तक होता है। इस परत का विकास विषुवतरेखीय प्रदेश में वर्ष भरं तथा मध्य अक्षांशीय क्षेत्र में केवल ग्रीष्म ऋतु में हो पाता है।
थर्मोक्लाइन परत
- यह एक संक्रमण परत है, इसके द्वारा ऊपरी परत, निचली परत से अलग होती है। थर्मोक्लाइन परत में गहराई के साथ तापमान में तीव्र गिरावट दर्ज किया जाता है।
निचली परत
- इस परत का विस्तार 1000 मी. की गहराई से सागरीय तली तक होता है। इस परत में सभी अक्षांशों पर लगभग एक समान तापमान पाया जाता है।
महासागरीय जल की लवणता
- सामान्य रूप में “सागरीय जल के भार एवं उसमें घुले हुये पदार्थों के भार के अनुपात को सागरीय लवणता कहते हैं।”
- “एक किलोग्राम सागरीय जल में घुले हुये ठोस पदार्थों की कुल मात्रा को भी लवणता कहते हैं।” लवणता को % (ग्राम प्रति हज़ार ग्राम) के रूप में दर्शाया जाता है।
- महासागरीय जल की लवणता का मुख्य स्रोत पृथ्वी की भू-पर्पटी में विद्यमान लवणीय पदार्थ हैं जो अपरदन के विभिन्न कारकों, जैसेपवनों, नदियों द्वारा सागर में ले जाये गए हैं। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी से निकलने वाले राखों से भी कुछ लवण महासागरों को प्राप्त होता है।
सागरीय जल का संघटन
- सागरीय जल विभिन्न पदार्थों के सम्मिश्रण का प्रतिफल है अर्थात् इसमें विभिन्न प्रकार के पदार्थ घुली हुई अवस्था में विद्यमान होते हैं। प्रमुख खनिज निम्न हैं
लवणता का महत्त्व
- समुद्री जल की लवणता जल की संपीडनता, घनत्व, सूर्यातप का अवशोषण, वाष्पीकरण तथा आर्द्रता को निर्धारित करती है।
- लवणता की मात्रा जल की बनावट तथा संचरण, जीव-जंतुओं और प्लवकों के वितरण को भी काफी हद तक प्रभावित करती है।
- सागर का हिमांक लवणता पर आधारित होता है। अधिक लवणयुक्त सागर देर में जमता है। लवणता अधिक होने पर वाष्पीकरण भी कम होता है। सागरीय लवणता के कारण जल का घनत्व भी बढ़ता है।
लवणता को प्रभावित करने वाले कारक
- वर्षा, नदियों के जल तथा सागरीय हिम के पिघलने पर लवणता में ह्रास होता है।
- वाष्पीकरण, वायुमंडलीय उच्च वायुदाब या प्रतिचक्रवातीय दशाओं के कारण सागरीय लवणता में वृद्धि होती है।
- ध्रुवीय प्रदेशों में सागरीय जल के जमने तथा हिम के निर्माण के कारण सागरीय लवणता में नगण्य वृद्धि होती है।
- प्रचलित हवाओं एवं महासागरीय धाराओं के कारण सागरीय लवणता में क्षेत्रीय विभिन्नता होती है।
सागरीय लवणता का वितरण
- महासागरीय जल की औसत लवणता 35% है, परंतु प्रत्येक महासागर, – सागर, झील, खाड़ी आदि में लवणता की मात्रा में अंतर पाया जाता – है। लवणता में यह अंतर क्षैतिज तथा लंबवत् दोनों रूपों में होता है। इसी तरह बंद एवं खुले सागरों में भी लवणता में अंतर पाया जाता है।
लवणता का क्षैतिज वितरण
खुले सागरों की लवणता
- महासागरों में कर्क और मकर रेखा के पास के क्षेत्रों में लवणता की मात्रा सबसे अधिक होती है। इसका प्रमुख कारण वर्षा की मात्रा का, वाष्पीकरण के दर से कम होना है।
- आकाश के साफ रहने और वायु शुष्क होने के फलस्वरूप सागरीय जल का वाष्पीकरण अधिक होता है, जिस कारण से इस क्षेत्र में लवणता की मात्रा 36-37 % के लगभग पाई जाती है।
- विषुवत् रेखा के निकट लवणता की मात्रा कम होती है क्योंकि अत्यधिक वर्षा के कारण नदियों तथा वर्षा द्वारा स्वच्छ जल की आपूर्ति महासागरों से होती रहती है। साथ ही, मौसम आर्द्र होने की वजह से वाष्पीकरण भी कम होता है अतः इन क्षेत्रों में लवणता 34-35 % रहती है।
- ध्रुवों के पास हिम पिघलने से स्वच्छ जल की आपूर्ति के कारण लवणता में और अधिक कमी आ जाती है। यहाँ 20-30 % लवणता होती है।
- समस्त उत्तरी गोलार्द्ध में औसत लवणता 34 % पाई जाती है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में 35 % रहती है। उत्तरी गोलार्द्ध में लवणता के कम रहने का प्रमुख कारण नदियों द्वारा निरंतर जल की आपूर्ति होना है।
आंशिक रूप से घिरे समुद्रों की लवणता
- भूमध्य सागर, लाल सागर तथा फारस की खाड़ी में लवणता सामान्य से अधिक पाई जाती है। यहाँ 37-41 % लवणता पाई जाती है।
- कैरेबियन सागर, बास जलडमरूमध्य एवं कैलिफोर्निया की खाड़ी में सामान्य लवणता 35.5 % पाई जाती है।
- काला सागर, बाल्टिक सागर, ओख़ोत्स्क सागर, दक्षिणी चीन सागर, अंडमान सागर, जापान सागर, बेरिंग सागर आदि में लवणता सामान्य से भी कम पाई जाती है क्योंकि यहाँ पर नदियों के द्वारा पर्याप्त जल आपूर्ति किया जाता है, साथ ही वाष्पीकरण भी कम होता है।
अंतः समुद्रों तथा झीलों की लवणता
- अंतः समुद्रों तथा झीलों की लवणता सामान्यत: बहुत अधिक होती है। यूएसए के ‘ग्रेट साल्ट लेक’ में लवणता 220 % पाई जाती है। जॉर्डन व इज़राइल की सीमा पर अवस्थित ‘मृत सागर’ में 238 % लवणता पाई जाती है। सर्वाधिक लवणता तुर्की के ‘वॉन झील’ (330%) में पाई जाती है।
- कैस्पियन सागर एक प्रकार का झील है किंतु वृहद् आकार होने के कारण इसे सागर की उपमा दी जाती है। इसकी लवणता औसत लवणता से भी कम है। इसके उत्तरी भागों में लवणता की मात्रा दक्षिणी भागों के अपेक्षाकृत कम पाई जाती है क्योंकि इसमें वोल्गा व यूराल नदियों द्वारा बड़ी मात्रा में स्वच्छ जल की आपूर्ति होती है। .
महासागरीय लवणता का लंबवत् वितरण
- महासागरीय लवणता में होने वाला परिवर्तन महासागरीय सतह की विशेषता है किंतु गहराई में लवणता का स्तर नियत रहता है क्योंकि यहाँ पर जल का ह्रास व नमक की मात्रा में वृद्धि नहीं होती है।
- महासागरीय जल में सतह से गहराई में जाने पर सामान्यतः लवणता में कमी आती है किंतु यह सर्वत्र एक समान नहीं होती है।
- भूमध्यरेखीय प्रदेश में वर्षा के रूप में स्वच्छ जल की आपूर्ति स ऊपरी परत में लवणता औसत लवणता से कम (34%) पाई जाती है।
- उच्च अक्षांशीय क्षेत्र में जल के हिम में परिवर्तित होने से गहराई के साथ जल की लवणता में वृद्धि होती है।
- महासागरीय जल में 300 मी. से 1,000 मी. की गहराई तक लवणता में तीव्र परिवर्तन होता है, इस परत को ‘हैलोक्लाइन’ की संज्ञा दी जाती है।
- इस प्रकार, महासागर के ऊपरी परत में सर्वाधिक लवणता पाई जाती है किंतु गहराई में जाने पर क्रमशः लवणता में कमी होती जाती है।
महासागरीय निक्षेप
- महासागरीय नितल पर विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अवसादों के जमाव को ‘महासागरीय निक्षेप’ कहते हैं।
- चट्टानों के निरंतर अपक्षय एवं अपरदन से उपलब्ध अवसादों से तथा जीवों और वनस्पतियों के अवशेषों से समुद्री निक्षेपों का निर्माण होता है।
- मरे ने महासागरीय निक्षेप के विषय में निम्नलिखित वर्गीकरण प्रस्तुत किया है
स्थल जनित निक्षेप
- स्थलीय भाग के अपरदन व अपक्षरण से प्राप्त पदार्थ स्थल जनित निक्षेप होते हैं।
- स्थल जनित निक्षेप मुख्यतः महाद्वीपीय मग्नतट तथा महाद्वीपीय ढलान पर ही पाये जाते हैं, हालाँकि कहीं-कहीं ये गहरे समुद्रों में भी मिलते हैं।
- कणों के आकार, रासायनिक संघटन तथा उसकी बनावट के आधार पर स्थलीय निक्षेप को क्रमशः बजरी, रेत तथा पंक (नीला. लाल व हरा पंक) में वर्गीकृत किया जा सकता है।
ज्वालामुखी निक्षेप
- ज्वालामुखी क्षेत्रों में महाद्वीपीय मग्नतट तथा ढाल पर निक्षेपित अधिकांश निक्षेप मुख्यतः ज्वालामुखी प्रक्रिया से उत्पन्न अवसाद हैं।
- ज्वालामुखी से निकले पदार्थ यांत्रिक और रासायनिक अपक्षय से प्रभावित होते हैं।
- ये अपक्षयित पदार्थ बहते जल तथा पवन द्वारा महासागर तक ले जाये जाते हैं।
- ज्वालामुखी निक्षेप का जमाव नीली पंक के समान होता है एवं इसका रंग भूरा और काला होता है।
जैविक निक्षेप
- महाद्वीपीय मग्नतट असंख्य पौधों एवं जंतुओं के आवास होते हैं। ये जीव अपने रहने के लिये विभिन्न प्रकार के खोल बनाते हैं। इन जीवों के मरने के उपरांत इनके खोल व अस्थि-पंजर महासागरीय नितल पर जमा हो जाते हैं। वनस्पतियाँ भी सड़-गलकर नितल पर एकत्रित होती रहती हैं। इनको मुख्यतः दो वर्गों में रखा जाता है।
1. नेरिटिक निक्षेप
2. पेलैजिक निक्षेप
नेरिटिक निक्षेप
- सागरों में जीव-जंतुओं के अवशेषों को ‘नेरिटिक पदार्थ’ कहते हैं। इनके जमाव से जो निक्षेप बनते हैं उनको ‘नेरिटिक निक्षेप’ कहते हैं। ये निक्षेप मुख्य रूप से महाद्वीपीय मग्नतटों पर मिलते हैं। इनमें मोलस्क जीवों के अवशेष, अस्थि-पंजर, चूना प्रधान और अम्लप्रधान वनस्पति के अवशेष शामिल किये जाते हैं।
पेलैजिक निक्षेप
- पेलैजिक निक्षेप जैविक तथा अजैविक दोनों प्रकार के पदार्थ होते हैं। ये समुद्री जंतुओं तथा पौधों के अवशेष होते हैं और अंशतः पवन द्वारा लाये गए ज्वालामुखी धूल से बने होते हैं।
- चूना तथा सिलिका की मात्रा के आधार पर इसके दो उपवर्ग कसण. ‘चूना प्रधान ऊज’ तथा ‘सिलिका प्रधान ऊज’ हैं।
- मोलस्का वर्ग के जीवों को कैल्शियम युक्त कवचों के निशाने शामिल किया जाता है, जिन्हें ‘टेरोपोड ऊज’ कहते हैं।
- ग्लोबिजेरिना जीवों के निक्षेप को ‘ग्लोबिजेरिना ऊज’ कहते हैं। इन निक्षेपों में कैल्शियम की मात्रा लगभग 64 फीसदी तक होती है।
महासागरीय जल संचलन
- समुद्र का जल स्थिर न होकर गतिशील होता है। इसकी भौतिक विशेषताएँ (जैसे- तापमान, लवणता, घनत्व) तथा बाह्य बल (जैसेसूर्य, चंद्रमा तथा वायु) अपने प्रभाव से महासागरीय जल को गति प्रदान करते हैं।
- यह क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर दोनों ही दिशाओं में गतिमान होता है।
- महासागरीय तरंगें और धाराएँ जल की क्षैतिज गतियाँ हैं। महासागरीय धाराएँ एक निश्चित दिशा में बहुत बड़ी मात्रा में जल का लगातार प्रवाह करती हैं।
- ज्वार-भाटा उर्ध्वाधर गति से संबंधित है।
तरंगें
- तरंगें महासागरीय सतह की दोलायमान गति हैं। इसमें सागरीय जल स्तर ऊँचा या नीचा होता है परंतु अपने स्थान से बहकर अन्य स्थान पर नहीं जाता है।
तरंग बनने के कारण
- वायुमंडलीय परिसंचरण एवं हवाएँ
- सागर तटीय क्षेत्रों के जल में भूस्खलन
- तली में विवर्तनिकी घटनाएँ, यथा-भ्रंशन, क्षेपण आदि
- सागरीय तली में अंतः सागरीय भूकंपों का आना
- सागरीय तली में ज्वालामुखी का उद्भेदन
- चंद्रमा एवं सूर्य का गुरुत्व बल
- चक्रवात आदि।
महासागरीय धाराएँ
(Ocean Currents)
- महासागरीय धाराएँ महासागरों में नदी प्रवाह के समान हैं। एक निश्चित दिशा में बहुत अधिक दूरी तक महासागरीय जल के एक राशि के प्रवाह को ‘महासागरीय धारा’ कहते हैं।
धाराओं की उत्पत्ति के कारण
- महासागरीय धाराएँ महासागरों में कई कारकों के सम्मिलित प्रयासों से उत्पन्न होती हैं। इनमें कुछ धाराएँ महासागरीय विशेषताओं के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं तो कुछ पृथ्वी की घूर्णन गति तथा उसके गुरुत्वाकर्षण बल के कारण उत्पन्न होती हैं।
महासागरीय धाराओं को उत्पन्न करने वाले कारकों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जाता है
महासागरीय धाराओं को उत्पन्न करने वाले कारक
1.पृथ्वी के परिभ्रमण (घूर्णन) से संबंधित कारक
- कोरिऑलिस बल
- एकमैन स्पाइरल
2.महासागरों से संबंधित कारक
- तापमान में विविधता
- घनत्व में विविधता
- लवणता में विविधता
3.बाह्य महासागरीय कारक
- वायुदाब तथा हवाएँ
- वाष्पीकरण तथा वर्षा
महासागरीय धाराओं की दिशा को प्रभावित करने वाले कारक
- तट की दिशा तथा आकार
- तलीय आकृतियाँ
- मौसमी परिवर्तन
- पृथ्वी का परिभ्रमण (घूर्णन)
पृथ्वी के परिभ्रमण (घूर्णन) से संबंधित कारक
- दरअसल, पृथ्वी पश्चिम से पूर्व दिशा में अपने अक्ष पर गति करती है। इस गति के कारण महासागरीय जल में पृथ्वी की गति के विपरीत गति (पूर्व में पश्चिम की ओर) उत्पन्न होती है, जिससे विषुवतरेखीय धाराओं की उत्पत्ति होती है। वास्तव में कभी-कभी कुछ महासागरीय जल पृथ्वी की गति की दिशा के साथ अग्रसर हो जाता है, जिससे ‘प्रति विषुवतरेखीय धारा’ उत्पन्न होती है।
- एक ओर जहाँ महासागरीय धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में विषुवत् रेखा से ध्रुवों की तरफ चलने पर अपनी दायीं ओर मुड़ जाती हैं तो दूसरी तरफ दक्षिणी गोलार्द्ध में ध्रुवों से विषुवत् रेखा की तरफ चलने पर अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं।
महासागरों से संबंधित कारक
- महासागरीय जल के तापमान, लवणता एवं घनत्व में विविधता से भी महासागरीय धाराएँ उत्पन्न होती हैं।
तापमान में विविधता
- विषुवत् रेखा पर सूर्य की किरणें वर्ष भर लंबवत् (सीधी) पड़ती हैं, जिससे महासागरीय जल का तापमान बढ़ जाता है तथा महासागरीय जल का घनत्व कम हो जाने से विषुवतरेखीय जलधारा के रूप में जल में गति प्रारंभ हो जाती है।
लवणता में विविधता
- लवणता में विविधता के कारण अधिक लवणीय महासागरीय जल का घनत्व अधिक हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वह नीचे की ओर बैठ जाता है। महासागर के दूसरे भाग में जहाँ लवणता कम होती है उसका घनत्व भी कम होता है, अतः कम लवणीय जल अधिक लवणीय जल की ओर गति करने लगता है, जिससे महासागरीय धाराएँ उत्पन्न होती हैं।
घनत्व में विविधता
- महासागरीय जल के घनत्व में विविधता कई कारणों से होती है, जिसमें तापमान, लवणता, दाब तथा उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में हिम के पिघलने से भी घनत्व में अंतर आता है। जिसके कारण महासागरीय जल में गति होती है।
बाह्य महासागरीय कारक
- महासागर के जल पर विविध दशाओं का प्रभाव होता है, जिसमें वायुदाब, हवाएँ, वाष्पीकरण तथा वर्षण इत्यादि हैं।
वायुदाब तथा हवाएँ
- महासागर के जल में जहाँ वायुदाब अधिक होता है, वहाँ पर सागरीय जल का तल नीचे होता है तथा जहाँ वायुदाब कम होता है, वहाँ पर सागरीय जल का तल ऊँचा होता है, जिसके कारण कम वायुदाब के क्षेत्र से जल अधिक वायुदाब की ओर गति करने लगता है, जिससे धाराएँ उत्पन्न होती हैं।
- प्रचलित तथा सनातनी हवाओं के कारण भी महासागरीय जल में धाराएँ उत्पन्न होती हैं। जब हवाएँ सागर से होकर चलती हैं तो रगड़/घर्षण से अपने साथ सागरीय जल को भी ले जाती हैं, जिससे धाराओं की उत्पत्ति होती है।
महासागरीय धाराओं के प्रकार
महासागरीय धाराओं को तापमान के आधार पर गर्म व ठण्डी जलधाराओं में वर्गीकृत किया जाता है।
गर्म धाराएँ
- जो धाराएँ निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर चलती हैं, उन्हें ‘गर्म जलधाराएँ’ कहते हैं। इनके जल का तापमान मार्ग में आने वाले जल के तापमान से अधिक होता है। अतः ये जलधाराएँ जिन क्षेत्रों की ओर चलती हैं, वहाँ का तापमान बढ़ा देती हैं।
ठंडी धाराएँ
- ठंडी धाराएँ उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों की ओर चलती हैं। ये प्रायः ध्रुवों की ओर से विषुवत् रेखा की ओर चलती हैं। इनके जल का तापमान रास्ते में आने वाले जल के तापमान से कम होता है। अतः ये धाराएँ जिन क्षेत्रों में चलती हैं, वहाँ के तापमान को कम कर देती हैं।
प्रशांत महासागर की धाराएँ
(Currents of the Pacific Ocean)
A.उत्तरी प्रशांत महासागर की धाराएँ
उत्तरी विषुवतीय धारा
- यह धारा पूर्व से पश्चिम की ओर महासागर के आर-पार बहती है। यह धारा जैसे-जैसे पश्चिम की ओर बहती है, इसके आयतन में वृद्धि होती जाती है। यह धारा मध्य अमेरिका के पश्चिमी तट से आरंभ होकर पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हुई फिलीपाइन द्वीप समूह तक पहुँचती है। यह धारा हमेशा विषुवत् रेखा के उत्तर में ही प्रवाहित होती है।
क्यूरो-शिवो धारा
- उत्तरी विषुवतीय धारा फिलीपाइन द्वीप के साथ ताइवान तथा जापान के तटों के साथ लगते हुए उत्तर की ओर बहती है, जिसको ‘क्यूरो-शिवो’ धारा कहते हैं। यह एक गर्म जलधारा है। यह उत्तरी विषुवतीय धारा का ही अग्र विस्तार है।
उत्तरी प्रशांत गर्म प्रवाह
- जापान के दक्षिण-पूर्वी तट पर पहुँचने के बाद क्यूरो-शिवो धारा प्रचलित पछुआ पवनों के प्रभाव से महासागर के पश्चिम से पूर्व की ओर बहने लगती है। इस कारण इसको उत्तरी प्रशांत गर्म प्रवाह’ नाम दिया गया है।
उत्तरी प्रशांत धारा, उत्तर अमेरिका के पश्चिमी तट पर पहुंचकर दो शाखाओं में बँट जाती है
कैलिफोर्निया की धारा :
- दक्षिण की ओर मुड़ने वाली शाखा कैलिफोर्निया के तट के साथ-साथ बहती है, इसलिये इसे ‘कैलिफोर्निया की धारा’ कहते हैं। यह जलधारा मोजाबे व सोनोरन मरुस्थल के निर्माण के लिये उत्तरदायी कारकों में से एक है।
ब्रिटिश कोलंबिया या अलास्का की गर्म जलधारा :
- उत्तरी प्रशांत धारा की उत्तर की ओर जाने वाली शाखा वामावर्त्त मुड़ते हुये ब्रिटिश कोलंबिया और अलास्का के तट के साथ बहती है, इसलिये इसे “ब्रिटिश कोलंबिया’ अथवा ‘अलास्का की धारा’ कहते हैं। यह धारा निचले अक्षांशों में आकर उत्तरी विषुवतीय धारा से मिल जाती है।
ओया-शिवो ठंडी जलधारा
- यह बेरिंग जलडमरूमध्य से शुरू होकर कमचटका प्रायद्वीप के पूर्वी तट के समीप उत्तर से दक्षिण की ओर बहने वाली ठण्डी जलधारा है।
ओखोत्स्क ठंडी जलधारा अथवा क्यूराइल जलधारा
- यह ओख़ोत्स्क सागर से शुरू होकर सखालीन द्वीप के पूर्वी तट के साथ बहती हुई जापान के होकैडो द्वीप के पास ओया-शिवो धारा के साथ मिल जाती है।
B.दक्षिणी प्रशांत महासागर की धाराएँ
दक्षिणी विषुवतीय गर्म जलधारा
- यह पूर्व में मध्य अमेरिका के तट से पश्चिम में ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट तक जाती है।
पूर्वी ऑस्ट्रेलिया गर्म जलधारा
- यह पृथ्वी के घूर्णन के कारण उत्पन्न कोरिऑलिस बल के प्रभाव से दक्षिण की ओर मुड़ जाती है और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट के साथ-साथ बहने लगती है।
दक्षिणी प्रशांत जलधारा
- तस्मानिया के निकट पूर्वी ऑस्ट्रेलिया धारा पछुआ पवनों के प्रभाव में आ जाती है और पश्चिम से पूर्व बहने लगती है। यहाँ इसे दक्षिणी प्रशांत धारा कहा जाता है।
पेरू-ठंडी जलधारा
- दक्षिणी प्रशांत धारा दक्षिण के तट पर पहुँचकर दक्षिण से उत्तर की दिशा में पेरू तट के समानांतर बहने लगती है जो अंत में दक्षिणी विषुवतीय धारा में विलीन हो जाती है। इसे ‘हम्बोल्ट की जलधारा’ भी कहते हैं। यह जलधारा ‘अटाकामा मरुस्थल’ के निर्माण के उत्तरदायी कारकों में से एक है।
प्रतिविषुवंतीय जलधारा
- विषुवत् रेखा के दोनों ओर उत्तरी तथा दक्षिणी विषुवतरेखीय धाराओं द्वारा प्रशांत महासागर के पश्चिमी भाग में विशाल जलराशि के एकत्र होने से पश्चिम से पूर्व दिशा में ‘प्रतिविषुवतीय जलधारा’ का जन्म होता है।
एल-निनो एवं ला-निना
- ‘एल-निनो’ व ‘ला-निना’ एक मौसमी परिघटना है। एल-निनो की उत्पत्ति का संबंध पूर्वी प्रशांत महासागर के जल के तापमान में वृद्धि व ला-निना का संबंध पश्चिमी प्रशांत महासागरीय जल के तापमान में वृद्धि से है।
- एल-निनो रूपी गर्म जलधारा के प्रभाव से पर्वी प्रशांत महासागर के तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप पेरू के तट पर सामान्य से अधिक वर्षा होती है, जिससे सागर तटीय भाग हरे-भरे रूप में परिवर्तित हो जाता है।
- समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर एल-निनो का विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिससे मछलियाँ, प्लैंकटन व अन्य समुद्री जीव-जंतु मरने लगते हैं।
- एल-निनो के प्रभाव से पूर्वी प्रशांत महासागर क्षेत्र में अतिवृष्टि तथा पश्चिमी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है। इसका प्रतिकल प्रभाव दक्षिण-पर्व एशिया के मानसून पर भी पड़ता है, जिससे इंडोनेशिया, भारत, बांग्लादेश आदि देशों में सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
- जब पूर्वी प्रशांत महासागर में एल-निनो का प्रभाव समाप्त हो जाता है तो ला-निना की उत्पत्ति पश्चिमी प्रशांत महासागर में होती है।
- ‘ला-निना’ के प्रभाव से एल-निनो के ठीक विपरीत स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे पुनः सामान्य मौसमी दशाओं का जन्म होता है।
- एल-निनो को ‘ईशु शिशु’ तथा ला-निना को उनकी ‘छोटी बहन’ के रूप में मान्यता दी जाती है।
अटलांटिक महासागर की धाराएँ
(Currents of the Atlantic Ocean)
उत्तरी विषुवतीय गर्म जलधारा
- यह विषुवत् रेखा के समीप उत्तर में सन्मार्गी पवनों के प्रभाव से पर्व में अफ्रीका के तट से पश्चिमी द्वीप समूह तक बहती है।
एण्टीलीज गर्म जलधारा
- दक्षिण अमेरिका के पूर्वी तट के अवरोध के कारण दक्षिणी विषुवतरेखीय जलधारा का विभाजन दो शाखाओं में हो जाता है। इसकी उत्तरी शाखा उत्तरी विषुवतीय धारा में मिल जाती है और कैरेबियन सागर तथा मेक्सिको की खाड़ी में प्रवेश करती है, जिसे कैरेबियन सागर में ‘कैरेबियन जलधारा‘ कहते हैं। इसका शेष भाग पश्चिमी द्वीप समूह के पूर्वी किनारे पर ‘अंटाइल्स’ या ‘एण्टीलीज धारा‘ के नाम से प्रवाहित होता है।
फ्लोरिडा गर्म जलधारा
- उत्तरी तथा दक्षिणी विषुवतीय धारा का कुछ भाग मेक्सिको की खाडी में पहँचती है। खाड़ी से जल की धारा फ्लोरिडा के मुहाने से होकर बाहर खले महासागर में निकलती है, जहाँ एण्टीलीज की धारा इससे मिलती है। फ्लोरिडा अंतरीप से यह सम्मिलित धारा संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण-पूर्वी तट पर बहने लगती है। इसे हैटरस अंतरीप (Cape Hatteras) तक ‘फ्लोरिडा धारा’ कहते हैं।
गल्फस्ट्रीम गर्म जलधारा
- हैटरस अंतरीप से आगे ग्रांड बैंक तक फ्लोरिडा धारा को ‘गल्फस्टीम धारा’ कहते हैं जो न्यूफाउण्डलैंड द्वीप के ग्रांड बैंक तक इसी नाम से बहती है।
लेब्राडोर ठण्डी जलधारा
- यह धारा बेफिन की खाड़ी तथा डेविस जलडमरूमध्य से लेब्राडोर .ट के साथ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है तथा ग्रीनलैंड के दक्षिणी किनारे पर पूर्वी ग्रीनलैंड धारा से मिलती है। आगे यह संयुक्त जलधारा न्यूफाउण्डलैंड तट से होती हुई ग्रांड बैंक के पास गल्फस्ट्रीम गर्म जलधारा से मिल जाती है। यहाँ पर इनके मिलने से ताप व्यतिक्रमण के कारण घने कोहरे का निर्माण होता है जो सागरीय यातायात में बाधा उत्पन्न करता है।
- लेब्राडोर ठंडी और गल्फ स्ट्रीम गर्म जलधाराओं के मध्य उत्प्लावन (Upwelling) के कारण प्लैंकटन की संख्या में वृद्धि होती है, जिससे मछलियों को पर्याप्त आहार की प्राप्ति होती है।
- यही कारण है कि यहाँ पर ग्रांड बैंक, जॉर्जेज बैंक जैसे महत्त्वपूर्ण मत्स्यन क्षेत्रों का विकास हुआ है।
उत्तरी अटलांटिक गर्म जलधारा
- ग्रांड बैंक से गल्फस्ट्रीम, पछुआ पवन के प्रभाव में आकर पूर्व की ओर मुड़ जाती है और अटलांटिक महासागर के आर-पार उत्तरी अटलांटिक प्रवाह के रूप में बहने लगती है।
नॉर्वे गर्म जलधारा
- अटलांटिक महासागर के पूर्वी भाग में पहुँचकर उत्तरी अटलांटिक धारा दो भागों में बँट जाती है। इसकी मुख्य धारा ब्रिटिश द्वीप समूह से होती हुई नॉर्वे तट तक पहुँच जाती है, यहाँ इसे ‘नॉर्वे की धारा’ कहते हैं। इससे आगे यह आर्कटिक महासागर में प्रवेश करती है।
कनारी ठंडी जलधारा
- उत्तरी अटलांटिक प्रवाह की दूसरी शाखा दक्षिण की ओर मुड़कर कनारी द्वीप तक पहुँचती है। यह अपेक्षाकृत ठण्डे क्षेत्र से गर्म क्षेत्र की ओर जाती है। कनारी द्वीप से आगे बढ़ते हुये यह धारा विषुवतरेखीय धारा में मिल जाती है।
- कनारी की ठण्डी जलधारा ‘सहारा मरुस्थल’ के निर्माण के लिये उत्तरदायी कारकों में से एक है।
सारगैसो सागर (Sargasso Sea)
- उत्तरी अटलांटिक महासागर में उत्तरी विषुवतरेखीय, गल्फस्ट्रीम तथा कनारी धारा द्वारा जल का एक प्रति चक्रवातीय प्रवाह क्रम का निर्माण होता है, जिसमें शांत और गतिहीन जल पाया जाता है। यहाँ पर सारगैसम घास की अधिकता होती है, जिसके कारण इस भाग को ‘सारगैसो सागर’ कहते हैं।
- सारगैसो सागर के जल में अटलांटिक महासागर की सर्वाधिक लवणता 37% पाई जाती है। इसका मुख्य कारण उच्च तापमान तथा अत्यधिक वाष्पीकरण है। इसे ‘महासागरीय मरुभूमि’ के रूप में संबोधित किया जाता है।
दक्षिणी अटलांटिक महासागर की धाराओं को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया गया है
दक्षिणी विषुवतीय गर्म जलधारा
- यह धारा विषुवत् रेखा के दक्षिण में उसके समानांतर पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।
ब्राज़ील गर्म जलधारा
- ब्राज़ील धारा उच्च तापमान तथा उच्च लवणता वाली गर्म जलधारा है। इसकी उत्पत्ति दक्षिण विषुवतीय जलधारा के विभाजन तथा उसके दक्षिण की ओर मुड़ जाने से होता है। इसका प्रवाह ब्राज़ील के तट के समानांतर होता है।
फॉकलैण्ड ठंडी जलधारा
- ठंडे जल की धारा दक्षिण अमेरिका के दक्षिण-पूर्वी तट के साथ दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है। यह अपने साथ अंटार्कटिका क्षेत्र से हिमखण्ड दक्षिण अमेरिका तट तक ले आती है। फॉकलैंड धारा तथा ब्राज़ील धारा के मिलने से इस क्षेत्र में घना कुहरा छाया रहता है।
दक्षिणी अटलांटिक प्रवाह
- तीव्रगामी पछुआ पवनों के प्रभाव से ब्राज़ील धारा तथा फॉकलैंड धारा का संयुक्त जल पश्चिम से पूर्व की ओर ड्रिफ्ट के रूप में बहने लगता है।
- इसे दक्षिणी अटलांटिक प्रवाह, पछुवा पवन प्रवाह, अंटार्कटिक प्रवाह आदि नामों से जाना जाता है।
बेंगुला धारा
- यह ठंडी जलधारा है जो दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट के सहारे उत्तर दिशा में प्रवाहित होती है।
- यह जलधारा ‘कालाहारी मरुस्थल’ के उत्पत्ति के कारकों में से एक है।
हिंद महासागर की धाराएँ (Currents of the Indian Ocean)
उत्तरी-पूर्वी मानसून धारा
- शीत ऋतु में उत्तरी-पूर्वी मानसूनी हवाएँ स्थल से जल की ओर चलती हैं, जिस कारण उत्तरी हिंद महासागर में अंडमान तथा सोमाली के मध्य पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने वाली ‘उत्तरी-पूर्वी मानसून धारा’ का उद्भव होता है।
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून धारा
- ग्रीष्म ऋतु में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के प्रभाव में जल का प्रवाह पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर होने लगता है और ‘दक्षिणी-पश्चिमी मानसून नामक धारा’ का जन्म होता है। यह धारा अफ्रीका के पूर्वी भाग में उत्पन्न होकर पूर्व दिशा की ओर बहती हुई अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में प्रवाहित होती है।
दक्षिणी विषुवतीय धारा
- दक्षिणी हिंद महासागर में मानसूनी हवाओं के मौसमी परिवर्तन का प्रभाव धाराओं पर अत्यंत कम होता है। यह धारा ऑस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका के तटों के मध्य पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।
मोजाम्बिक गर्म धारा
- दक्षिणी विषुवतीयधारा की एक शाखा मोज़ाम्बिक चैनल में होकर बहती है, जो ‘मोजाम्बिक’ धारा’ कहलाती है।
मेडागास्कर गर्म धारा
- मेडागास्कर द्वीप के पूर्वी तट पर बहने वाली दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा की दूसरी शाखा को ‘मेडागास्कर धारा’ कहते हैं।
अगुलहास गर्म धारा
- मोज़ाम्बिक धारा तथा मेडागास्कर धारा, मेडागास्कर द्वीप के दक्षिण में मिल जाती हैं तथा संयुक्त रूप से प्रवाहित होती है। इस संयुक्त धारा को ही ‘अगुलहास धारा’ के नाम से जाना जाता है। यह जलधारा आगे चलकर पछुआ पवन प्रवाह में मिल जाती है।
पछुआ पवन प्रवाह
- यह धारा हिंद महासागर के दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट तक प्रवाहित होती है।
पश्चिमी ऑस्ट्रेलियाई ठंडी जलधारा
- पछुआ पवन प्रवाह की एक शाखा ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण में बहती हुई निकल जाती है और दूसरी शाखा ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट से टकराकर उत्तर की ओर मुड़ जाती है। इस दूसरी शाखा को ‘पश्चिमी ऑस्ट्रेलियाई ठण्डी धारा’ कहते हैं। अंततः यह धारा आगे चलकर दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा में मिल जाती है। यह धारा ‘ग्रेट ऑस्ट्रेलियन मरुस्थल’ के निर्माण के लिये उत्तरदायी कारकों में से एक मानी जाती है।
प्रवाल तथा प्रवाल भित्ति (Coral and Coral Reef)
- प्रवाल, जिसे मूंगा या कोरल भी कहते हैं, एक प्रकार का छोटा समुद्री जीव है, जो लाखों-करोड़ों की संख्या में एक समूह में रहते हैं।
- इसके शरीर के बाहरी तंतुओं में एक प्रकार का पादप शैवाल रहता है, जिसे ‘जुक्सान्थलाई शैवाल’ (Zooxanthellae Algae) कहते हैं।
- यह शैवाल प्रकाश संश्लेषण विधि से भोजन बनाता है तथा अपना विकास करता है एवं संबंधित प्रवाल की सकल भोजन मांग के लगभग 60% भाग की आपूर्ति करता है। प्रवाल शेष 40% आहार की आपूर्ति जंतु प्लैंकटन का शिकार करके करते हैं।
- प्रवाल भित्ति एक प्रकार की कैल्शियमयुक्त चट्टान है, जो पॉलिप या प्रवाल नामक सूक्ष्म समुद्री जीव के अस्थिपंजर से बनते हैं।
- पॉलिप जीव के मरने के पश्चात् इनके खोल समुद्री नितल पर जमा हो जाते हैं।
- इस अवशेष पर एक के बाद एक जीवों के समूह पैदा होते रहते हैं और मरते जाते हैं और कालांतर में उनके अवशेष भी इसी के ऊपर जमा होते जाते हैं। इस प्रकार इनकी कई परतें जमा हो जाती हैं। धीरे-धीरे ऊपरी दबाव के कारण यह पत्थर की भाँति कठोर हो जाती है।
- प्रवाल चट्टानों के निक्षेप से प्रवाल की निरंतर वृद्धि होती रहती है और कुछ समय के बाद यह समुद्री जल स्तर के ऊपर दिखाई देने लगते हैं, फलतः प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है।
प्रवाल के विकास की दशाएँ
- प्रवाल मुख्य रूप से उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के महासागरों में ही पाये जाते हैं क्योंकि इनको जीवित रहने के लिये अनुकूलतम तापक्रम (20°-21°C) की आवश्यकता होती है इसलिये अधिकांश प्रवाल 25° उत्तरी तथा 25° दक्षिणी अक्षांशों के बीच वाले क्षेत्रों में पनपते हैं।
- प्रवाल के विकास के लिये सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होना चाहिये। 200-250 फीट से अधिक गहराई में प्रवाल मर जाते हैं क्योंकि इसके नीचे वे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं कर पाते हैं।
- प्रवाल के विकास के लिये अवसाद रहित स्वच्छ जल होना चाहिये क्योंकि अवसादों के कारण प्रवाल का मुख बंद हो जाता है इसलिये इनका विकास नदी के मुहाने के समीप नहीं हो पाता है।
- प्रवालों की उत्पत्ति और विकास के लिये अत्यधिक लवणता वाला जल हानिकारक होता है। प्रवाल के समुचित विकास के लिये 27 -30 % लवणता अति उत्तम मानी जाती है।
- सागरीय तरंगें तथा धाराएँ प्रवालों के लिये लाभदायक होती हैं क्योंकि इनके द्वारा प्रवालों के लिये भोजन लाया जाता है। यही कारण है कि बंद सागरों में कम प्रवाल पाये जाते हैं।
- प्रवाल झुण्ड अथवा समूह बनाकर रहते हैं अतः वे उन्हीं समुद्रों में ज़्यादा पनपते हैं, जहाँ का जल ज़्यादा शांत होता है।
प्रवाल भित्तियों के प्रकार
- स्थिति और आकार के अनुसार इन्हें निम्नलिखित चार वर्गों में वर्गीकृत किया गया है
अवरोधक प्रवाल भित्ति (Barrier Reef)
- यह प्रवाल भित्ति सबसे बड़ी एवं सबसे अधिक विस्तृत होती है।महाद्वीपों के निकट स्थित बड़े निमग्न स्थलों तथा समुद्री चबूतरों पर इनका आधार पाया जाता है।
- इनकी ढाल सागरीय क्षेत्रों की ओर तीव्र होती है।
- इसका सबसे उत्तम उदाहरण ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्वी तट के समीप स्थित ‘ग्रेट बेरियर रीफ’ है जो विश्व में सबसे बड़ी अवरोधक प्रवाल भित्ति है।
तटीय प्रवाल भित्ति (Fringing Reef)
- महाद्वीपीय या द्वीप किनारों पर निर्मित होने वाली प्रवाल भित्तियों को ‘तटीय प्रवाल भित्ति’ कहते हैं। इनका सागरवर्ती भाग खड़ा तथा तीव्र ढाल वाला एवं स्थलोन्मुख भाग मंद ढाल वाला होता है। इस प्रकार की प्रवाल भित्तियों का धरातल असमतल तथा असमान होता है।
- स्थल के मुख्य भाग तथा प्रवाल भित्ति के मध्य छिछले लैगून का विकास होता है, जिसे ‘बोट चैनल’ कहते हैं।
- सकाऊ द्वीप समूह, दक्षिणी फ्लोरिडा तट तथा मलेशिया के द्वीपों के सहारे तटीय प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं।
वलयाकार प्रवाल भित्ति/एटॉल (Atolls)
- इस प्रकार की भित्ति का आकार घोड़े की नाल अथवा अंगूठी के समान वलयाकार होता है। इस भित्ति के मध्य में छिछली झील ‘लैगून’ पाई जाती है।
- किसी जलमग्न पठार के ऊपर गोलाकार या अंडाकार रूप में अथवा किसी द्वीप के चारों ओर इनका विकास होता है। ये वलयाकार भित्ति समुद्र की सतह से ऊपर होती है तथा इनका कोई न कोई भाग अवश्य खुला होता है परंतु ये सागर तट से सैकड़ों मीटर दूर स्थित होते हैं।
- प्रशांत महासागर में ‘फिजी एटॉल’ तथा ‘फुनाफुटी (Funafuti) एटॉल’ अत्यंत प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
प्रवाल द्वीप (Coral Island)
- मुख्य महाद्वीपों से बहुत दूर समुद्र के बीच अलग-अलग स्थानों पर प्रवाल चट्टानों के चबूतरे बन जाते हैं। जब कभी ये भू-गर्भिक उत्थान के कारण समुद्र तल से ऊपर उठ जाते हैं तो इन्हें ‘प्रवाल द्वीप’ कहा जाता है।
- द्वीपों की रचना में प्रवालों के अलावा रेत, गोलाश्म व अन्य कैल्शियमी जीवों के निक्षेपों का भी सहयोग रहता है।
- ग्रीन द्वीप, लक्षद्वीप, कैप्रीकार्न आदि इसके मुख्य उदाहरण हैं।
प्रवाल विरंजन (Coral Bleaching)
- ‘प्रवाल विरंजन’ का सामान्य अर्थ होता है-‘शैवाल का श्वेत रंग का होना।’ इस प्रक्रिया में प्रवाल समूह और सूक्ष्म शैवाल ‘जुक्सान्थलाई’ (Juxanthellae) के बीच संबंध टूट जाते हैं जो प्रवालों को उनका अधिकतर रंग प्रदान करते हैं। इस प्रकार शैवालों में प्रकाश संश्लेषण की किया न होने के कारण उन पर आश्रित प्रवाल मर जाते हैं।
प्रवाल विरंजन के कारण
- जल के तापमान में कमी या वृद्धि होना (आमतौर पर अधिक);
- सौर विकिरण में वृद्धि होना;
- स्वच्छ जल की ज़्यादा आपूर्ति;
- संक्रामक रोगों की अधिकता (कोरल प्लेग);
- लवणता में परिवर्तन
- अवसादों की मात्रा में वृद्धि;
- ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जल स्तर ऊँचा उठने से।