उद्योग: अवस्थिति सिद्धांत एवं प्रमुख उद्योग
उद्योगों का विकास (Industrial Development)
किसी देश की आर्थिक प्रगति में औद्योगिक विकास एक मूल आधारस्तंभ है। भारत में औद्योगिक विकास की प्रक्रिया को निम्नलिखित चरणों में देखा जा सकता है:
- उदारीकरण-पूर्व चरण (1947-1991): इस चरण में ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के मॉडल को अपनाया गया, जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र को ‘कमांडिंग हाइट्स’ का दर्जा दिया गया। औद्योगिक नीति संकल्प 1948 और 1956, लाइसेंस राज, MRTP अधिनियम जैसी नीतियों ने इस दौर की औद्योगिक गतिविधियों को निर्धारित किया।
- उदारीकरण-उत्तर चरण (1991 के बाद): 1991 के आर्थिक संकट के बाद, भारत ने नई आर्थिक नीति (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण – LPG) अपनाई। औद्योगिक लाइसेंसिंग समाप्त की गई, FDI को बढ़ावा दिया गया और अर्थव्यवस्था को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए खोला गया।
अवस्थिति सिद्धांत (Location Theory)
अवस्थिति सिद्धांत यह समझाने का प्रयास करता है कि उद्योग एक विशिष्ट स्थान पर ही क्यों स्थापित होते हैं। यह उद्योगों के स्थानीयकरण को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण करता है।
- कच्चे माल की निकटता: भारी, भारी-भरकम या खराब होने वाले कच्चे माल (जैसे लौह अयस्क, गन्ना, कपास) पर निर्भर उद्योग उनके स्रोत के निकट स्थापित होते हैं।
- शक्ति के स्रोत (ऊर्जा): ऊर्जा-गहन उद्योग (जैसे एल्युमीनियम) सस्ते बिजली के स्रोतों के पास लगाए जाते हैं।
- परिवहन की सुविधा: बाजार तक पहुँच और कच्चे माल की आपूर्ति के लिए सड़क, रेल, बंदरगाह जैसे परिवहन साधनों का विकसित होना आवश्यक है।
- श्रम की उपलब्धता: कुशल और अकुशल श्रम की उपलब्धता और उसकी लागत उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करती है।
- बाजार की निकटता: तैयार माल के परिवहन में टूट-फूट का खतरा हो या उत्पाद की मांग एक विशिष्ट क्षेत्र में केंद्रित हो (जैसे एफएमसीजी), तो उद्योग बाजार के नजदीक स्थापित किए जाते हैं।
- सरकारी नीतियाँ: सरकारी प्रोत्साहन, कर लाभ, बैकवर्ड एरिया ग्रांट आदि उद्योगों को विशेष क्षेत्रों (जैसे विशेष आर्थिक क्षेत्र – SEZ) में स्थापित होने के लिए प्रेरित करते हैं।
प्रमुख उद्योग: अवधारणा एवं विशेषताएँ
1. लौह-इस्पात उद्योग (Iron & Steel Industry)
अवधारणा: यह एक आधारभूत उद्योग (Basic Industry) है, क्योंकि इसके उत्पाद अन्य所有 उद्योगों (जैसे मशीनरी, ऑटोमोबाइल, निर्माण) के लिए कच्चे माल का काम करते हैं। यह एक भारी (Heavy Industry), पूंजी-गहन (Capital Intensive) और श्रम-गहन (Labour Intensive) उद्योग है।
मुख्य विशेषताएँ:
- कच्चे माल पर निर्भरता: लौह अयस्क, कोकिंग कोयला, चूना पत्थर और मैंगनीज मुख्य कच्चे माल हैं। इनकी भारी प्रकृति के कारण उद्योग इनके स्रोतों के निकट स्थापित होते हैं।
- ऊर्जा-गहन: उत्पादन प्रक्रिया में भट्टियों को गर्म करने के लिए अत्यधिक ऊर्जा (बिजली, कोयला) की आवश्यकता होती है।
- जल की आवश्यकता: इस्पात संयंत्रों को ठंडा करने और अन्य प्रक्रियाओं के लिए भारी मात्रा में जल चाहिए, इसलिए अधिकांश संयंत्र नदियों या जलाशयों के किनारे स्थित हैं।
- प्रदूषणकारी: यह वायु प्रदूषण (धूल, CO2, SO2) और जल प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है।
- भारत में अवस्थिति: कोयला-लौह अयस्क खनन क्षेत्रों के निकट केंद्रित। मुख्य केंद्र:
- झारखंड-ओडिशा-पश्चिम बंगाल की ‘छोटानागपुर पठार पेटी’ (जमशेदपुर, बर्नपुर, दुर्गापुर, राउरकेला, बोकारो)।
- विस्तारित केंद्र: भिलाई (छत्तीसगढ़), विजयनगर (कर्नाटक), सलेम (तमिलनाडु), विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश)।
2. सूती वस्त्र उद्योग (Cotton Textile Industry)
अवधारणा: भारत का सबसे पुराना और सबसे बड़ा संगठित उद्योग, जो रोजगार सृजन और निर्यात आय में महत्वपूर्ण योगदान देता है। यह कृषि (कपास) और उद्योग के बीच एक कड़ी है।
मुख्य विशेषताएँ:
- कच्चे माल की उपलब्धता: परंपरागत रूप से कपास उत्पादक क्षेत्रों (महाराष्ट्र, गुजरात) में केंद्रित।
- आर्द्र जलवायु: सूत कातने की प्रक्रिया के लिए आर्द्रता की आवश्यकता होती है, इसलिए तटीय शहर (मुंबई, अहमदाबाद, कोयंबटूर) प्राकृतिक रूप से अनुकूल थे। आज Humidifier इस समस्या का समाधान करते हैं।
- बाजार की निकटता: एक बड़ा घरेलू बाजार होने के कारण उद्योग देशभर में फैला है।
- श्रम की उपलब्धता: यह एक श्रम-गहन उद्योग है, इसलिए सस्ते और abundant श्रम वाले क्षेत्रों में विकसित हुआ।
- विकेन्द्रीकरण: हथकरघा (Decentralized) और बिजली-करघा (Organized Sector) दोनों ही खंडों में फैला हुआ है।
- निर्यातोन्मुखी: भारत विश्व में सूती वस्त्रों और परिधानों का एक प्रमुख निर्यातक है।
3. चीनी उद्योग (Sugar Industry)
अवधारणा: यह एक कृषि-आधारित उद्योग (Agro-Based Industry) है जो गन्ने को चीनी, गुड़, खांडसारी और शराब जैसे उत्पादों में परिवर्तित करता है। भारत ब्राजील के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश है।
मुख्य विशेषताएँ:
- कच्चे माल की समस्याएँ:
- गन्ने में सुक्रोज की मात्रा कटाई के तुरंत बाद घटने लगती है, इसलिए मिलें गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के अत्यंत निकट स्थित होती हैं।
- गन्ना एक भारी और ढोने में महँगा कच्चा माल है, जो दूरस्थ परिवहन को अलाभकारी बनाता है।
- मौसमी उद्योग: गन्ने की कटाई के मौसम (लगभग 4 से 7 महीने) तक ही चलता है।
- उप-उत्पाद का महत्व: गन्ने की खोई (Bagasse) का उपयोग कागज उद्योग और बिजली उत्पादन (Cogeneration) में होता है। मोलासेस (Molasses) से एथेनॉल और शराब बनाई जाती है।
- दक्षिण भारत में लाभ: दक्षिण के राज्यों (तमिलनाडु, कर्नाटक) में उत्पादन कुशलता अधिक है क्योंकि यहाँ गन्ने में चीनी की मात्रा (Sucrose Content) अधिक होती है और कारखाने सहकारी क्षेत्र में बेहतर प्रबंधित होते हैं।
- उत्तर भारत में चुनौतियाँ: उत्तरी राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार) में मौसमी विविधताएँ, छोटे खेत, और पुरानी तकनीक के कारण उत्पादन दक्षता कम है।
4. पेट्रोकेमिकल उद्योग (Petrochemical Industry)
अवधारणा: यह उद्योग पेट्रोलियम (कच्चे तेल) और प्राकृतिक गैस को विभिन्न उत्पादों में परिवर्तित करता है। इसके उत्पाद दो श्रेणियों में आते हैं: 1) पॉलिमर (सिंथेटिक फाइबर, प्लास्टिक, इलास्टोमर्स) 2) विशेषताएँ रसायन (वर्णक, सॉल्वैंट्स, फर्टिलाइजर)।
मुख्य विशेषताएँ:
- पूंजी-गहन एवं प्रौद्योगिकी-गहन: इस उद्योग की स्थापना के लिए भारी निवेश और उन्नत प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है।
- अवस्थिति कारक: यह उद्योग तेल शुद्धिकरणशालाओं (Refineries) या पाइपलाइनों के निकट स्थापित होते हैं, क्योंकि नैफ्था (Naphtha) जैसे मुख्य कच्चे माल की आपूर्ति इन्हीं से होती है।
- अग्रगामी संबंध (Forward Linkages): इसके उत्पाद (प्लास्टिक, सिंथेटिक रबर, फाइबर) ऑटोमोबाइल, कपड़ा, पैकेजिंग, कृषि, फार्मा जैसे अनगिनत उद्योगों के लिए आधार प्रदान करते हैं।
- भारत में अवस्थिति: मुख्य केंद्र तटीय क्षेत्रों में या उनके निकट स्थित हैं क्योंकि कच्चे तेल का आयात समुद्री मार्गों से होता है।
- पश्चिमी कॉरिडोर: जामनगर, वडोदरा, मुंबई, पुणे।
- पूर्वी कॉरिडोर: होल्डिया, विशाखापत्तनम, चेन्नई।
- अंतर्देशीय: मथुरा, पानीपत, असम (डिगबोई, नूनमती)।
- PCPIRs (Petroleum, Chemicals and Petrochemicals Investment Regions): सरकार द्वारा विशेष निवेश क्षेत्र स्थापित किए गए हैं (जैसे दावा PCPIR-आंध्र प्रदेश) ताकि बुनियादी ढांचा और संसाधन साझा कर उद्योग को बढ़ावा दिया जा सके।
निष्कर्ष
भारत के औद्योगिक परिदृश्य में इन उद्योगों का विशेष स्थान है। प्रत्येक उद्योग की अवस्थिति और विकास उसके कच्चे माल, ऊर्जा आवश्यकताओं, बाजार और सरकारी नीतियों जैसे कारकों से गहराई से प्रभावित होता है। भारत ‘मेक इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत करने और वैश्विक मूल्य श्रृंखला में एकीकृत होने का प्रयास कर रहा है, जिसमें इन आधारभूत उद्योगों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।