जलवायु वर्गीकरण, हरितगृह प्रभाव, वैश्विक तापन एवं जलवायु परिवर्तन

यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा मुख्य परीक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत पर्यावरण एवं भूगोल से संबंधित महत्वपूर्ण अवधारणाओं का एक व्यापक अवलोकन प्रस्तुत करता है।

1. जलवायु वर्गीकरण (Climate Classification)

पृथ्वी पर विविध प्रकार की जलवायु दशाओं को व्यवस्थित ढंग से समझने के लिए भूगोलवेत्ताओं ने जलवायु वर्गीकरण की विभिन्न प्रणालियाँ विकसित की हैं। इनमें दो सर्वाधिक प्रचलित प्रणालियाँ हैं:

क. कोपेन जलवायु वर्गीकरण (Köppen Climate Classification)

व्लादिमीर कोपेन द्वारा 1918 में विकसित यह प्रणाली वनस्पति पर आधारित है (क्योंकि वनस्पति तापमान और वर्षा का सबसे अच्छा सूचक है)। यह वर्गीकरण तापमान एवं वर्षा के मासिक व वार्षिक औसत पर आधारित है।

प्रतीक जलवायु प्रकार विशेषताएँ
A उष्णकटिबंधीय आर्द्र सभी महीनों का औसत तापमान 18°C से अधिक, भारी वर्षा
B शुष्क वाष्पीकरण की तुलना में वर्षा कम
C उपोष्णकटिबंधीय (समशीतोष्ण) सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान -3°C से 18°C के बीच
D महाद्वीपीय (शीतोष्ण) सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान -3°C से नीचे, सबसे गर्म महीने का तापमान 10°C से ऊपर
E ध्रुवीय सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10°C से कम
H उच्च पर्वतीय ऊँचाई के कारण उत्पन्न जलवायु (बाद में जोड़ा गया)

ख. थोर्नथ्वेट जलवायु वर्गीकरण (Thornthwaite Climate Classification)

सी. डब्ल्यू. थोर्नथ्वेट द्वारा 1948 में प्रस्तावित इस प्रणाली की मुख्य विशेषता जलवायु दक्षता (Climate Efficiency) पर जोर देना है। यह वर्गीकरण पौधों द्वारा जल की आवश्यकता और जल की उपलब्धता के संतुलन पर आधारित है।

मुख्य आधार:

    • वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन (Evapotranspiration): थोर्नथ्वेट ने ‘संभाव्य वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन’ (Potential Evapotranspiration – PE) की अवधारणा दी, जो बताती है कि किसी क्षेत्र में पौधों द्वारा कितने जल की आवश्यकता है।

    • वर्षण (Precipitation) और PE का अनुपात: जलवायु को नमी की उपलब्धता के आधार पर शुष्क, अर्द्ध-शुष्क, उप-आर्द्र, आर्द्र आदि श्रेणियों में बाँटा जाता है।

    • जलबजट अवधारणा: यह प्रणाली मासिक आधार पर जल के अधिशेष या कमी की गणना करती है।

तुलना: कोपेन का वर्गीकरण अधिक सरल और लोकप्रिय है, जबकि थोर्नथ्वेट का वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक और जल संतुलन पर केंद्रित है, जो कृषि और जल संसाधन योजना के लिए अधिक उपयोगी है।

2. हरितगृह प्रभाव (Greenhouse Effect)

हरितगृह प्रभाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो पृथ्वी के surface को गर्म रखती है और जीवन के अस्तित्व के लिए absolutely essential है।

कार्यविधि:

    1. सूर्य से आने वाली लघु तरंगदैर्ध्य वाली सौर विकिरण (UV, Visible Light) पृथ्वी के वायुमंडल से easily गुजर जाती है और पृथ्वी की surface को गर्म करती है।

    1. गर्म होकर पृथ्वी दीर्घ तरंगदैर्ध्य वाली अवरक्त विकिरण (Infrared Radiation/Heat) वापस वायुमंडल में भेजती है।

    1. वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें (हरितगृह गैसें), जैसे CO₂, CH₄, N₂O, जलवाष्प आदि, इस अवरक्त विकिरण को सोख (absorb) लेती हैं और इसे पुनः सभी दिशाओं में विकिरित (re-radiate) कर देती हैं।

    1. इस प्रक्रिया में कुछ ऊष्मा पृथ्वी की surface की ओर वापस लौट जाती है और उसे और गर्म करती है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे एक ग्रीनहाउस (Glasshouse) में गर्मी रुकी रहती है। इसीलिए इसे ‘हरितगृह प्रभाव’ कहते हैं।

निष्कर्ष: बिना इस प्राकृतिक हरितगृह प्रभाव के, पृथ्वी की औसत सतह का तापमान -18°C के लगभग होता, जो जीवन के लिए अनुकूल नहीं होता। वर्तमान में यह 15°C है।

3. वैश्विक तापन (Global Warming)

वैश्विक तापन, हरितगृह प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि का direct परिणाम है। यह पृथ्वी के निकट surface के वायुमंडल और महासागरों के तापमान में दीर्घकालिक वृद्धि की प्रवृत्ति को refer करता है।

कारण:

    • मानवीय क्रियाएँ: औद्योगिक क्रांति के बाद से मानवीय गतिविधियों ने वायुमंडल में हरितगृह गैसों (GHGs) की सांद्रता को खतरनाक स्तर तक बढ़ा दिया है।

    • जीवाश्म ईंधन का दहन: कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के जलने से CO₂ का विशाल मात्रा में उत्सर्जन।

    • वनोन्मूलन: पेड़ CO₂ सोखने के natural sink हैं। उनके कटाव से वायुमंडल में CO₂ की मात्रा बढ़ती है।

    • कृषि और पशुपालन: चावल की खेती और पशुधन से मीथेन (CH₄) गैस का उत्सर्जन।

    • औद्योगिक प्रक्रियाएँ: विभिन्न उद्योगों से निकलने वाली Fluoroकार्बन गैसें (CFCs, HFCs)।

प्रमाण:

    • बर्फ की चादरों (ग्लेशियरों) का पिघलना।

    • वैश्विक औसत समुद्र स्तर में वृद्धि।

    • महासागरों का अम्लीकरण (Ocean Acidification)।

    • चरम मौसमी घटनाओं (बाढ़, सूखा, चक्रवात) की बारंबारता और तीव्रता में वृद्धि।

4. जलवायु परिवर्तन (Climate Change)

वैश्विक तापन, जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है, जबकि जलवायु परिवर्तन इसका परिणाम है। जलवायु परिवर्तन का अर्थ है पृथ्वी की जलवायु के सांख्यिकीय गुणों (जैसे औसत तापमान, वर्षा, हवा के पैटर्न) में दीर्घकालिक (दशकों या उससे अधिक) परिवर्तन

वैश्विक तापन vs जलवायु परिवर्तन: सरल शब्दों में, वैश्विक तापन (तापमान बढ़ना) जलवायु परिवर्तन को drive करता है, जिसके परिणामस्वरूप मौसम के patterns में बदलाव होते हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव:

    • पारिस्थितिकी तंत्र: प्रजातियों के आवास नष्ट, प्रवासन के pattern में बदलाव, प्रवाल भित्तियों (Coral Reefs) का विरंजन (Bleaching)।

    • कृषि और खाद्य सुरक्षा: फसल चक्र में बदलाव, सूखे और बाढ़ से कृषि उत्पादन पर दबाव।

    • जल संसाधन: अनियमित वर्षा के कारण जल की उपलब्धता पर संकट, ग्लेशियरों के सिकुड़ने से नदियों के प्रवाह पर प्रभाव।

    • मानव स्वास्थ्य: मलेरिया, डेंगू जैसी vector-borne बीमारियों के फैलाव का क्षेत्र बढ़ना, heatwaves।

    • सामाजिक-आर्थिक प्रभाव: climate refugees का पलायन, तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा, आर्थिक नुकसान।

निष्कर्ष

जलवायु वर्गीकरण की प्रणालियाँ हमें पृथ्वी की जटिल जलवायु को समझने का एक ढाँचा प्रदान करती हैं। हरितगृह प्रभाव एक life-saving natural phenomenon है, लेकिन मानवीय गतिविधियों द्वारा इसमें अतिशय वृद्धि (enhanced greenhouse effect) ही वैश्विक तापन का मूल कारण बनी है। वैश्विक तापन के गंभीर दुष्परिणाम के रूप में जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जो समस्त मानव सभ्यता और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक गंभीर संकट है। इससे निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग (जैसे पेरिस समझौता), नवीकरणीय ऊर्जा की ओर transition, और सतत विकास अपरिहार्य हैं।

JPSC MAINS PAPER 3/Geography Chapter – 9