दिल्ली सल्तनत: प्रमुख प्रशासनिक सुधार एवं नीतियाँ
दिल्ली सल्तनत काल में कुछ सुल्तानों ने ऐसे सुधार एवं नीतियों को लागू किया, जो अपनी व्यावहारिकता, दूरदर्शिता अथवा विचित्रता के कारण इतिहास में विशेष स्थान रखते हैं। इनमें अलाउद्दीन खिलजी के बाजारी एवं सैन्य सुधार और मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियाँ प्रमुख हैं।
अलाउद्दीन खिलजी के बाजारी एवं सैन्य सुधार
अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई.) एक महत्वाकांक्षी शासक था जिसने एक विशाल स्थायी सेना बनाए रखने और मंगोल आक्रमणों को रोकने के उद्देश्य से कुछ क्रांतिकारी आर्थिक एवं सैन्य सुधार लागू किए।
बाजार नियंत्रण व्यवस्था (बाजारी सुधार)
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- उद्देश्य: एक बड़ी स्थायी सेना को कम वेतन पर बनाए रखना। सैनिकों को कम दाम पर वस्तुएँ उपलब्ध कराकर उनकी क्रय शक्ति को बनाए रखना तथा महँगाई पर नियंत्रण करना।
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- मूल्य निर्धारण: अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं; जैसे- अनाज, कपड़ा, फल, घोड़े, दास आदि के दाम तय कर दिए।
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- व्यवस्था का स्वरूप:
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- शहना-ए-मंडी: बाजार का नियंत्रक अधिकारी जो व्यापारियों का पंजीकरण करता, उनकी आपूर्ति की निगरानी करता और मूल्य उल्लंघन करने वालों को दंडित करता था।
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- दीवान-ए-रियासत: यह एक अलग विभाग था जो सम्पूर्ण बाजार व्यवस्था की देखरेख करता था। इसका प्रमुख ‘नायब-ए-रियासत‘ कहलाता था।
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- राशनिंग: अकाल की स्थिति में अनाज की राशनिंग की व्यवस्था की गई।
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- गुप्तचर व्यवस्था: गुप्तचर (बरीद) एवं जासूसों की एक मजबूत प्रणाली विकसित की गई जो बाजार की हर गतिविधि पर नजर रखती थी और सुल्तान को रिपोर्ट करती थी।
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- व्यवस्था का स्वरूप:
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- परिणाम: यह व्यवस्था अलाउद्दीन के शासनकाल में अत्यंत सफल रही। दाम स्थिर रहे और सैनिक संतुष्ट रहे। हालाँकि, यह व्यवस्था पूर्णतः निरंकुश सत्ता पर आधारित थी और उसके बाद इसे जारी नहीं रखा जा सका।
सैन्य सुधार
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- स्थायी सेना का गठन: उसने एक विशाल स्थायी सेना का गठन किया जो सीधे सुल्तान के अधीन थी।
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- नकद वेतन: सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रथा शुरू की, जमीन का आवंटन (इक्ता) नहीं किया।
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- दाग व्यवस्था: घोड़ों पर दाग (हुलिया) लगवाने की प्रथा शुरू की ताकि नकली घोड़ों की बिक्री और भ्रष्टाचार पर रोक लगे।
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- सैन्य भर्ती एवं पंजीकरण: सैन्य भर्ती का कार्य ‘अरीज-ए-मुमालिक‘ नामक अधिकारी की देखरेख में होता था। सैनिकों का सही पंजीकरण किया जाता था।
मुहम्मद बिन तुगलक की काल्पनिक एवं विफल नीतियाँ
मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ई.) अपने समय का सबसे विद्वान एवं योग्य शासक था, किंतु उसकी महत्वाकांक्षाएँ उसकी व्यावहारिकता पर भारी पड़ गईं। उसकी नीतियाँ अत्यंत क्रांतिकारी थीं परन्तु क्रियान्वयन के अभाव में विफल रहीं। इब्नबतूता ने उसे “स्वप्नद्रष्टा और सिद्धांतों का पुजारी” कहा है।
1. राजधानी परिवर्तन (देवगिरि से दौलताबाद)
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- उद्देश्य: दक्षिण भारत पर बेहतर नियंत्रण स्थापित करना और मंगोल आक्रमणों के खतरे से बचने के लिए देश के मध्य में राजधानी स्थापित करना।
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- कार्यान्वयन: 1327 ई. में दिल्ली की पूरी आबादी को दौलताबाद (देवगिरि) जाने का आदेश दिया गया। यह यात्रा अत्यंत कष्टदायक थी।
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- विफलता के कारण: दौलताबाद की केन्द्रीय स्थिति व्यावहारिक नहीं थी। उत्तर भारत पर नियंत्रण ढीला पड़ने लगा। जनता को अत्यधिक कष्ट हुआ। अंततः, उसे राजधानी वापस दिल्ली लानी पड़ी।
2. सांकेतिक मुद्रा (Token Currency) का प्रचलन
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- उद्देश्य: कोषागार पर दबाव कम करना, व्यापार में तरलता लाना और विदेशी व्यापार को बढ़ावा देना। चीन और ईरान में ऐसी मुद्राएँ सफल रही थीं।
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- कार्यान्वयन: 1329-30 ई. में पीतल एवं ताँबे के सिक्के (जिसका वास्तविक मूल्य नहीं था) चलाए गए, जिन्हें चाँदी के टंके के बराबर मूल्य दिया गया।
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- विफलता के कारण:
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- जनता में मुद्रा के प्रति विश्वास की कमी।
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- नकली सिक्के ढालने की आसानी (घरेलू भट्टियों में)।
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- व्यापारियों ने चाँदी के सिक्के वापस माँगे, जिससे कोषागार खाली हो गया।
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- विफलता के कारण:
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- परिणाम: सरकार को जारी किए गए सभी सांकेतिक सिक्कों को बदलकर चाँदी के सिक्के देने पड़े, जिससे राजकोष पर भारी दबाव पड़ा और अर्थव्यवस्था चरमरा गई।
3. खुरासan अभियान एवं कर वृद्धि
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- उद्देश्य: मध्य एशिया (खुरासान) पर आक्रमण कर एक विशाल साम्राज्य स्थापित करना।
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- कार्यान्वयन: एक विशाल सेना का गठन किया गया और दोआब क्षेत्र (गंगा-यमुना का मैदान) में कृषि कर में भारी वृद्धि (लगभग 10 से 50%) कर दी गई।
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- विफलता के कारण: अकाल की स्थिति में भी कर वसूला गया, जिससे किसानों में रोष फैला। खुरासान की राजनीतिक स्थिति स्थिर हो गई, जिससे आक्रमण का अवसर ही नहीं मिला। अंततः यह अभियान रद्द करना पड़ा।
निष्कर्ष
अलाउद्दीन खिलजी के सुधार एक स्पष्ट उद्देश्य, कठोर अनुशासन और मजबूत प्रशासनिक machinery पर आधारित थे, इसलिए वे सफल रहे। वहीं, मुहम्मद बिन तुगलक एक दार्शनिक राजा था जिसकी नीतियों के पीछे बौद्धिक गहराई तो थी, किंतु उनका क्रियान्वयन अव्यावहारिक, जल्दबाजी और जनता की भावनाओं की अनदेखी करने वाला था। उसकी विफलताएँ सल्तनत के पतन का एक प्रमुख कारण बनीं।