कुषाण वंश: कनिष्क, साम्राज्य, धर्म, कला एवं संस्कृति
मध्य एशियाई मूल के कुषाण वंश ने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में प्रथम सदी ईस्वी से तीसरी सदी ईस्वी तक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह शक-पह्लवों के बाद भारत में सबसे शक्तिशाली विदेशी शासक सिद्ध हुए। कुषाण साम्राज्य की स्थापना कुजुल कडफिसेस ने की, किंतु इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक कनिष्क था, जिसने कुषाण साम्राज्य को अपनी चरम सीमा पर पहुँचाया।
कनिष्क: परिचय एवं साम्राज्य का विस्तार
कनिष्क कुषाण वंश का दूसरा महान शासक था, जिसने लगभग 78 ई. से 101 ई. तक (या 127-150 ई. के अनुसार नए शोध) शासन किया। उसने ‘द्वितीय अशोक’ की उपाधि धारण की और अपने विशाल साम्राज्य का विस्तार किया।
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- साम्राज्य विस्तार: कनिष्क का साम्राज्य अत्यंत विशाल था। इसके अंतर्गत आधुनिक अफगानिस्तान, पाकिस्तान, और उत्तरी भारत के विशाल भू-भाग शामिल थे।
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- राजधानी: उसकी मुख्य राजधानी पुरुषपुर (पेशावर, पाकिस्तान) थी, जबकि मथुरा दूसरी महत्वपूर्ण राजधानी थी।
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- विजय: उसने मगध साम्राज्य पर विजय प्राप्त की और पाटलिपुत्र तक अपना अधिकार जमाया। उसने मध्य एशिया में खोतान, काश्गर और यारकंद जैसे क्षेत्रों पर भी अधिकार किया। चीनी स्रोतों के अनुसार, उसने चीन के एक जनरल पान-चाओ के विरुद्ध युद्ध भी लड़ा।
कनिष्क की धार्मिक नीति
कनिष्क की धार्मिक नीति अत्यंत उदार और सहिष्णु थी। वह स्वयं एक बौद्ध अनुयायी बना, किंतु उसने अन्य सभी धर्मों को भी संरक्षण दिया।
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- बौद्ध धर्म का संरक्षण: कनिष्क बौद्ध धर्म का महान संरक्षक बना। उसने चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर में कुण्डलवन (वर्तमान हरिवन) में किया। इस संगीति की अध्यक्षता बौद्ध विद्वान वसुमित्र ने की तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। इसी संगीति में महाविभाषा शास्त्र की रचना हुई, जिसके कारण बौद्ध धर्म की नई शाखा ‘सर्वास्तिवाद‘ या ‘वैभाषिक‘ का उदय हुआ।
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- महायान बौद्ध धर्म का प्रसार: कनिष्क के शासनकाल में ही महायान बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ। बुद्ध की मूर्ति पूजा का प्रचलन इसी काल में बढ़ा।
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- धार्मिक सहिष्णुता: उसके सिक्कों पर यूनानी, ईरानी, भारतीय एवं बौद्ध देवी-देवताओं (जैसे- हेलियोस, हेफेस्टस, शिव, बुद्ध आदि) के चित्र अंकित मिलते हैं, जो उसकी धार्मिक उदारता को दर्शाते हैं।
कुषाण काल में कला एवं स्थापत्य
कुषाण काल भारतीय कला के इतिहास में एक स्वर्णिम युग माना जाता है। इस दौरान कला की दो प्रमुख शैलियों का विकास हुआ:
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- गांधार कला शैली: यह शैली आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) एवं अफगानिस्तान के क्षेत्र में विकसित हुई। इस पर यूनानी-रोमन कला का गहरा प्रभाव था। इसमें बुद्ध की मानव रूप में मूर्तियाँ बनाई गईं, जिनमें यूनानी देवता अपोलो जैसी विशेषताएँ दिखाई देती हैं। यह शैली अधिक यथार्थवादी और शारीरिक सुडौलता पर बल देती थी। पत्थरों (स्लेट/शिस्ट) का प्रयोग किया जाता था।
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- मथुरा कला शैली: यह शैली मथुरा क्षेत्र में विकसित हुई और पूर्णतः भारतीय परंपरा पर आधारित थी। इसकी मूर्तियाँ लाल बलुआ पत्थर से निर्मित की जाती थीं। इन मूर्तियों में भारतीय आदर्शवाद की झलक मिलती है। मथुरा कला में जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मणणical तीनों धर्मों की मूर्तियाँ बनाई गईं। कुषाण शासकों की विशाल मूर्तियाँ (जैसे कनिष्क की खंडित मूर्ति) भी यहाँ मिली हैं।
संचार एवं व्यापार का विकास
कुषाण साम्राज्य की स्थिति एशिया के मध्य में होने के कारण यह ‘सिल्क रोड’ (रेशम मार्ग) के व्यापार का केंद्र बिंदु बन गया। इससे आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बहुत बल मिला।
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- व्यापारिक मार्ग: कुषाणों ने स्थल मार्गों को सुरक्षित बनाया, जिससे रोम, चीन और भारत के बीच व्यापार फला-फूला। भारत से मसाले, रत्न, हाथीदाँत और कपड़े निर्यात किए जाते थे और स्वर्ण, चाँदी और विलासिता की वस्तुएँ आयात की जाती थीं।
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- सिक्का प्रणाली: कुषाणों ने सोने और ताँबे के उच्च गुणवत्ता वाले सिक्के चलाए। इन सिक्कों पर यूनानी और प्राकृत भाषाओं में लेख अंकित होते थे। यह एक सुव्यवस्थित अर्थव्यवस्था का संकेत देता है।
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- सांस्कृतिक संगम: व्यापार के माध्यम से भारतीय, यूनानी, रोमन, ईरानी और चीनी सभ्यताओं का संपर्क हुआ, जिससे एक समन्वित संस्कृति का विकास हुआ। यह संगम कुषाण कला में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
निष्कर्ष
कनिष्क का शासनकाल कुषाण साम्राज्य का स्वर्ण युग था। उसके विशाल साम्राज्य, उदार धार्मिक नीति, कला与 संस्कृति के प्रति संरक्षण以及 व्यापार एवं संचार के विकास ने न केवल भारत बल्कि पूरे मध्य एशिया के इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी। गांधार與 मथुरा कला शैली ने भारतीय कला को एक नई दिशा दी और बौद्ध धर्म के विस्तार में उसकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। इस प्रकार, कुषाण काल भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय सांस्कृतिक संश्लेषण与 आर्थिक समृद्धि का काल था।