विधायिका एवं सेवाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण: एक विश्लेषण

भारतीय संविधान का एक मूल उद्देश्य सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करना है। इसी क्रम में, विधायिका (संसद एवं विधानसभाएं) तथा सिविल सेवाओं में इन वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह प्रावधान सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने और ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों को राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

आरक्षण की संवैधानिक पृष्ठभूमि

संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेद आरक्षण की व्यवस्था करते हैं:

    • अनुच्छेद 330: लोकसभा में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण।

    • अनुच्छेद 332: राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण।

    • अनुच्छेद 335: संघ एवं राज्यों की सेवाओं में नियुक्तियों एवं पदों के आरक्षण का प्रावधान, जो कि दक्षता बनाए रखने के अधीन है।

विधायिका में आरक्षण की मुख्य विशेषताएं

    • प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना: इसका उद्देश्य देश की विधायिकाओं में इन वर्गों के हितों की रक्षा करने और उनकी आवाज़ उठाने के लिए उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है।

    • जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण: आरक्षित सीटों की संख्या प्रत्येक राज्य/केंद्रशासित प्रदेश में उनकी जनसंख्या के अनुपात में तय की जाती है।

    • निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन: परिसीमन आयोग द्वारा निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन (Delimitation) करते समय इन आरक्षित सीटों को निर्धारित किया जाता है।

    • समयसीमा एवं निरंतरता: मूल रूप से यह प्रावधान 10 वर्षों के लिए था, लेकिन संविधान में संशोधन कर इसकी अवधि लगातार बढ़ाई जाती रही है। वर्तमान में यह 25 जनवरी 2030 तक के लिए विस्तारित है।

    • एंग्लो-इंडियन समुदाय के प्रावधान का हटना: ध्यान देने योग्य बात है कि 104वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण को बढ़ाया गया, लेकिन एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए नामनिर्देशन का प्रावधान समाप्त कर दिया गया।

सेवाओं (नौकरियों) में आरक्षण की मुख्य विशेषताएं

    • अनुच्छेद 16(4): यह राज्य को सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण देने का अधिकार देता है, जिनका राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।

    • अनुच्छेद 335: यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों को, प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की शर्त के साथ, सेवाओं और पदों पर नियुक्ति के मामले में ध्यान में रखने का निर्देश देता है।

    • रोस्टर प्रणाली: विभिन्न पदों और सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था एक निश्चित रोस्टर (क्रम) के अनुसार की जाती है।

    • क्रीमी लेयर (Creamy Layer): ध्यान देने योग्य बात है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए सेवाओं में आरक्षण देते समय ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा लागू नहीं होती है। यह अवधारणा केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के आरक्षण के लिए लागू है।

    • प्रोन्नति में आरक्षण: इंद्रा साहनी मामले (1992) में सुप्रीम कोर्ट ने प्रोन्नति (Promotion) में आरक्षण को ग़ैर-ज़रूरी माना था, लेकिन बाद में संविधान (77वां संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा अनुच्छेद 16(4A) जोड़कर प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

निष्कर्ष

विधायिका और सेवाओं में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का विशेष प्रावधान भारतीय लोकतंत्र की सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता का एक मजबूत स्तंभ है। इसका उद्देश्य सदियों से चले आ रहे सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और एक समतामूलक समाज का निर्माण करना है। हालांकि इसकी प्रासंगिकता और क्रियान्वयन पर लगातार बहस होती रहती है, लेकिन यह तथ्य अटल है कि इस नीति ने देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को बदलने और वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भविष्य में, इसके लाभों का मूल्यांकन और इसे और अधिक प्रभावी बनाने के तरीकों पर विचार जारी रहेगा।

JPSC MAINS PAPER 4/polity Chapter – 1 #9