JPSC MAINS PAPER 4/PublicAdministration Chapter – 1 #12
मानव अधिकार: अवधारणा, संस्थाएँ और समकालीन चुनौतियाँ
यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा मुख्य परीक्षा के पाठ्यक्रम के अनुसार मानव अधिकारों की व्यापक अवधारणा, संबंधित संस्थानों एवं वर्तमान चुनौतियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।
1. मानव अधिकारः अवधारणा और अर्थ
अवधारणा (Concept): मानव अधिकार उन मौलिक, सार्वभौमिक, अहस्तांतरणीय और अविच्छेद्य अधिकारों का समुच्चय है जो व्यक्ति के जन्म से ही केवल एक मानव होने के नाते उसे प्राप्त होते हैं। ये अधिकार मानव गरिमा, स्वतंत्रता, समानता और न्याय पर आधारित हैं।अर्थ (Meaning): मानव अधिकारों का तात्पर्य उन न्यूनतम गारंटीयुक्त स्थितियों से है जो प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं। ये अधिकार किसी की देन नहीं हैं, बल्कि मानव-अस्तित्व के साथ ही जुड़े हुए हैं।
2. मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights – UDHR)
10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अंगीकृत यह घोषणा-पत्र अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून की आधारशिला है।
इसमें 30 अनुच्छेदों के माध्यम से नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को परिभाषित किया गया है।
यह एक घोषणा (Declaration) है, इसलिए स्वयं में कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, लेकिन इसने अंतर्राष्ट्रीय समझौतों (Covenants) और राष्ट्रीय संविधानों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
इसके प्रमुख सिद्धांतों में सार्वभौमिकता, अविभाज्यता और अंतर्निर्भरता शामिल हैं।
3. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission – NHRC)
भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण और प्रोत्साहन हेतु मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत 12 अक्टूबर, 1993 को एक statutory body के रूप में एनएचआरसी की स्थापना की गई।
मुख्य विशेषताएँ:
संरचना: इसमें एक अध्यक्ष (जो सर्वोच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश होता है) और चार सदस्य होते हैं (जिनमें से दो न्यायिक पृष्ठभूमि के होते हैं)।
शक्तियाँ एवं कार्य:
मानवाधिकार उल्लंघन की स्वत: संज्ञान लेना या शिकायतों की जाँच करना।
जेलों का निरीक्षण करना और कैदियों की स्थिति का अध्ययन करना।
मानवाधिकारों से संबंधित शोध एवं शिक्षा को बढ़ावा देना।
सरकार को सिफारिशें भेजना और वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
सीमाएँ: आयोग के पास अपने आदेशों को लागू करवाने की सीधी शक्ति नहीं है; इसकी भूमिका मुख्यतः सिफारिशकारी (recommendatory) है।
4. राज्य मानवाधिकार आयोग (State Human Rights Commission – SHRC)
राज्य स्तर पर मानवाधिकार संरक्षण हेतु राज्य मानवाधिकार आयोग की स्थापना का प्रावधान है।
मुख्य विशेषताएँ:
इसकी स्थापना राज्य सरकार द्वारा उसी अधिनियम (1993) के तहत की जा सकती है।
इसकी संरचना एनएचआरसी के समान होती है, जिसमें एक अध्यक्ष (राज्य उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश) और दो सदस्य होते हैं।
इसके अधिकार क्षेत्र और शक्तियाँ संबंधित राज्य तक सीमित होती हैं।
यह राज्य में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए एक केंद्रीय संस्था के रूप में कार्य करता है।
5. मानवाधिकार और सामाजिक मुद्दे
मानवाधिकार का सिद्धांत सामाजिक न्याय और समानता से गहराई से जुड़ा हुआ है। कई सामाजिक मुद्दे मानवाधिकारों के उल्लंघन का कारण बनते हैं:
जातिगत भेदभाव और छुआछूत: यह समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14, 15) और गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।
लैंगिक असमानता: महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, दहेज प्रथा, लिंग आधारित भेदभाव महिलाओं के मौलिक अधिकारों को कमजोर करते हैं।
बाल अधिकार: बाल श्रम, बाल तस्करी और बच्चों की शिक्षा से वंचित करना बाल अधिकारों (UNCRC) का गंभीर उल्लंघन है।
अल्पसंख्यक अधिकार: धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों (अनुच्छेद 29-30) का संरक्षण एक प्रमुख मानवाधिकार मुद्दा है।
शिक्षा और स्वास्थ्य का अधिकार: इन सेवाओं तक पहुँच की कमी आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के उल्लंघन को दर्शाती है।
6. मानवाधिकार और आतंकवाद
आतंकवाद और मानवाधिकारों के बीच एक जटिल और विरोधाभासी संबंध है।
आतंकवाद का मानवाधिकारों पर प्रभाव:
आतंकवाद जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता और भय से मुक्ति जैसे मौलिक अधिकारों का सीधा और सबसे गंभीर उल्लंघन है।
यह लोकतंत्र, शांति और विकास को नष्ट करता है, जो मानवाधिकारों के प्रसार के लिए आवश्यक पूर्वशर्त हैं।
आतंकवाद से निपटने में मानवाधिकारों की चुनौती:
राज्यों द्वारा आतंकवाद से निपटने के लिए उठाए गए कड़े कदम (जैसे- AFSPA, NSA, UAPA) अक्सर नागरिक स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध लगाते हैं।
इन कानूनों के दुरुपयोग, गैर-न्यायिक हत्याएँ, मनमानी गिरफ्तारी और यातना जैसी घटनाएँ मानवाधिकार उल्लंघन का कारण बन सकती हैं।
इस प्रकार, एक संतुलन (Balance) बनाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है: राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए नागरिकों के मौलिक अधिकारों और मानवीय गरिमा की रक्षा करना।
निष्कर्ष
मानवाधिकार एक सतत् विकासशील अवधारणा है। यह केवल कानूनी दस्तावेजों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक सभ्य, न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज के निर्माण की आधारशिला है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित संस्थान इन अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं, लेकिन आतंकवाद और गहन सामाजिक कुरीतियों जैसी चुनौतियाँ इस मार्ग में बाधक हैं। एक लोकतांत्रिक समाज में इन चुनौतियों से निपटने के लिए जागरूक नागरिक समाज, एक सक्रिय न्यायपालिका और मानवीय मूल्यों पर केंद्रित शासन आवश्यक है।
JPSC MAINS PAPER 4/PublicAdministration Chapter – 1 #12