खोरठा भाषा एवं साहित्य
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MANANJAY MAHATO
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खोरठा लोकसाहित्य एवं लोकगीत
khortha Loksahitya and Lokgeet
लोक साहित्य
लोक मानस के अपने परिवेश जनित भावों । चेतना / अनुभूति की शाब्दिक अभिव्यक्ति को लोक साहित्य कहा जाता है।
लोक साहित्य समाज का दपर्ण होता है।
लोक साहित्य के रचनाकार के नाम का पता नहीं चलता।
लोक साहित्य का हस्तांतरण बस मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता है
यह मौखिक होता है। लोक कंठों तथा मस्तिष्क / दिमाग में बसा होता है। पूरे लोक समाज में प्रचलित होता है। आदमी से आदमी, लोक से लोक, कंठ से कंठ इसका प्रचार-प्रसार होता रहता है। यह लोक विषयक, लोक निर्मित और लोक प्रचलित होता है।
खोरठा लोक साहित्य में अश्लीलता नहीं के बराबर पायी जाती है।
खोरठा लोक साहित्य में भाग्य, भगवान, स्वर्ग, नरक की चर्चा विल्कुल नहीं पायी जाती है।
लोक साहित्य को हजारों वर्षों के लोक अनुभव का सार कहा जाता है।
लोक साहित्य का वर्गीकरण
लोकगीत
लोक कथा
लोक गाथा
प्रकीर्ण (miscellaneous)
मुहावरा
लोकोक्ति
पहेली / मंत्र
लोकगीत
यह गीतात्मक या गेय होते हैं अर्थात इसे गाया जाता है।
अवसर एवं विषय के आधार पर इसके अनेकों भेद उपभेद होतते हैं।
लोकगीत विशेष अवसर पर ही गाये जाते हैं, सभी गीतों के लिए समय नियत है।
लोक गाथा
खोरठांचल में ‘महराई’ नामक एक लोक गाथा का प्रचलन है।
लोक गाथा को लोक महाकाव्य भी कहा जाता है।
महराई लोकगाथा, लोरि, संवरा दो योद्धओं के पराक्रम की एवं उनके प्रेम प्रसंगों की गीतात्मक कथा है।
लोरि की पत्नी मंजरी है और उसकी प्रेमिका चंदा है। खुलनी बुद्धी उसकी माँ का नाम है और पिता का नाम ढैंचा बुढा है।
महराई लोक गाथा नौ अध्यायों में बंटा है।
इसे गाने वाले कुछ खास गवैये होते हैं जिन्हें सारी कथा मौखिक याद रहती है।
इस लोकगाथा को गाय-बैलों या अन्य पशुओं में होने वाली महामारी खास करके खुरा-चपका (Mouth & Foot Disease) के शमन के लिए गाया जाता है।
इसके अतिरिक्त खलिहान में, किसी अवसर पर रात्रि जागरण के लिए भी गाया जाता है।
लोकोक्ति
इसे खोरठा में पटटहर, कामइत, कमनइत, लोकबाइन आदि भी कहा जाता है।
ये शिक्षाप्रद होते हैं।
इन्हें लोक सुभाषित या लोकनीति भी कहा जाता है।
ये पूर्ण छाम्य एवं कवितात्मक या तुकात्त्मक होते हैं, इसके पीछे कोई कहानी, घटना होती है।
मुहावरे
खोरठा में इसे आहना कहते हैं।
ये अपूर्ण वाक्य होते हैं तथा क्रियावाची शब्द से अंत होते हैं।
पहेलि
पहेलियों को खोरठा में बुझवइल, जान कहनि, फांकी, हिंआली भी कहा जाता है।
ये एक पक्ति के, कविता रूप में, गीत रूप में, कथा रूप में पाये जाते हैं।
ये गीतात्मक और पद्यात्मक या दोहा रूप में प्राप्त होती है।
सोहराइ के कुछ चांचर गीत इसी गीतात्मक पहेलियों के उदाहरण है।
इन्हें हाराबदिया लोकगीत कहा जाता है।
गीतात्मक पहेलियां खोरठा पहेलियों की विशेषता हैं।
खोरठा लोक गीतों का वर्गीकरण
अवसर के आधार पर वर्गीकरण
जैसे – पर्व त्योहार के अवसर पर गाये जानेवाले गीत:
(a) करम परब – जावा गीत, झुमइर- भदरिया
(b) सोहराई – चांचइर – हाराबदिया
(c) बांउड़ी जातरा – पुस परब, डोहा, टुसु उधवा
मौसम के आधार पर गाये जानेवाले गीत
(i) बरखा मौसम
जैसे – उदासी
(ii) बांदर खेलवा गीत
जैसे – आसना पतइ के डसना कोरइया पातेक दोना दोने-दोने मोध पीये
हिले कानेक सोना आदि।
गानेवालों के आधार पर
(a) पुरुष गीत
(b) स्त्री गीत – विवाह, जावा, करम गीत आदि
(c) स्त्री – पुरुषेक गीत -विवाह, करम गीत, उधवा, डोहा, टुसू आदि
खोरठा लोक साहित्य
(a) लोकगीत – संस्कार गीत, ऋतुगीत, प्रकृतिगीत, पर्वत्योहार के गीत, श्रम गीत, सहियारी (मित्रता के गीत) विविध गीत।
लोकगीत पुस्तक
एक टोकी फूल- खोरठा ढाकी छेतर कमिटि।
खोरठा लोकसाहित्य – शिवनाथ प्रमाणिक
(b) लोककथा -धर्मकथा (मिथ) अवदान (लीजेण्ड) कथाएँ, परीकथा, पशुपक्षी की कथा ।
लोककथा पुस्तक – खोरठा लोककथा, बोकारो खोरठा कमिटि
(c) प्रकीर्ण साहित्य – मुहावरे, लोकोक्तियाँ, पहेली,
खोरठा प्रकीर्ण साहित्य – डॉ. कुमुद बाला मेहता, श्याम सुन्दर महतो
टुसू पर्व/ टुसू लोकगीत
टुसू पर्व कुर्मी जाति का पर्व है
यह पौष महीने में मनाया जाता है इसी कारण इसे पुस पर्व कहते हैं
इस अवसर पर विशेष रूप से तैयार किए गए पकवान को पौष पीठा / बांका पीठा कहा जाता है
पहला दिन चाउर (चावल) धोवा से प्रारंभ होता है
दूसरा दिन गुड़ी (पिसा हुआ चावल) कूटा का दिन होता है
तीसरा दिन बावड़ी का दिन होता है इसी दिन पौष पीठा बनाया जाता है
चौथा दिन मकर संक्रांति का दिन होता है
टुसू टुसू गीत श्रृंगार रस का गीत है
टुसू पर्व में रंग बिरंगा टुसू चउड़ल बनाया जाता है